कविता

नया साल फिर से दस्तक दे रहा है …और हम फिर, कुछ न कुछ प्रण कर रहे हैं अपने भविष्य के लिए ….कुछ नाप तोल रहे हैं ..क्या पाया ? क्या खोया ? ये नया साल जहाँ हम सबके लिए उम्मीदों की नई किरण लेकर आता है ,वहीँ हम सबको आत्मविश्लेषण का एक मौका भी देता है….ये बताता है की…

यहाँ आजकल बर्फ पढ़ रही है तो उसे देखकर कुछ ख्याल आये ज़हन में view from my house window . छोटे छोटे रुई के से टुकड़े गिरते हैं धुंधले आकाश से और बिछ जाते हैं धरा पर सफ़ेद कोमल चादर की तरह तेरा प्यार भी तो ऐसा ही है, बरसता है बर्फ के फाहों सा और फिर …… बस जाता है…

सागर भरा है तुम्हारी आँखों में जो उफन आता है रह रह कर और बह जाता है भिगो कर कोरों को रह जाती है एक सूखी सी लकीर आँखों और लबों के बीच जो कर जाती है सब अनकहा बयाँ तुम रोक लिया करो उन उफनती , नमकीन लहरों को, न दिया करो बहने उन्हें कपोलों पे क्योंकि देख कर…

आसमान के ऊपर भी एक और आसमान है, उछ्लूं लपक के छू लूँ  बस ये ही अरमान है। बना के इंद्रधनुष को अपनी उमंगों का झूला , बैठूँ और जा पहुँचूँ चाँद के घर में सीधा। कुछ तारे तोडूँ और भर लूँ अपनी मुठ्ठी में, लेके सूरज का रंग भर लूँ सपनो की डिब्बी में। उम्मीदों का ले उड़नखटोला जा उतरूं…

अनवरत सी चलती जिन्दगी में अचानक कुछ लहरें उफन आती हैं कुछ लपटें झुलसा जाती हैं चुभ जाते हैं कुछ शूल बन जाते हैं घाव पनीले और छा जाता है निशब्द गहन सा सन्नाटा फ़िर इन्हीं खामोशियों के बीच। रुनझुन की तरह, आता है कोई यहीं कहीं आस पास से करीब के ही झुरमुट से जुगनू की तरह चमक जाता…

कितना आसान होता था ना जिन्दगी को जीना जब जन्म लेती थी कन्या लक्ष्मी बन कर होता था बस कुछ सजना संवारना सखियों संग खिलखिलाना, कुछ पकवान बनाना और डोली चढ़ ससुराल चले जाना बस सीधी सच्ची सी थी जिन्दगी अब बदल क्या गया परिवेश बोझिल होता जा रहा है जीवन जो था दाइत्व वो तो रहा ही बहुत कुछ…

सुनो! पहले जब तुम रूठ जाया करते थे न, यूँ ही किसी बेकार सी बात पर मैं भी बेहाल हो जाया करती थी चैन ही नहीं आता था मनाती फिरती थी तुम्हें नए नए तरीके खोज के कभी वेवजह करवट बदल कर कभी भूख नहीं है, ये कह कर अंत में राम बाण था मेरे पास। अचानक हाथ कट जाने…

रुकते थमते से ये कदम अनकही कहानी कहते हैं यूँ ही मन में जो उमड़ रहीं ख्यालों की रवानी कहते हैं रुकते थमते….. सीने में थी जो चाह दबी होटों पे थी जो प्यास छुपी स्नेह तरसती पलकों की दिलकश कहानी कहते हैं रुकते थमते…. धड़कन स्वतः जो तेज हुई अधखिले लव जो मुस्काये माथे पर इठलाती लट की नटखट…

लो फिर आ गई दिवाली… हम फिर करेंगे घर साफ़ मगर मन तो मेले ही रह जायेंगे . दिल पर चडी रहेगी स्वार्थ की परत पर दीवारों पे रंग नए पुतवायेंगे . फिर सजेंगे बाज़ार मगर जेबें खाली ही रह जाएँगी . जगमगायेंगी रौशनी की लडियां पर इंसानियत अँधेरा ही पायेगी . आस्था से क्या लेना-देना हमें पर लक्ष्मी पूजन…

देवनागरी लिपि है मेरी, संस्कृत के गर्भ से आई हूँ.  प्राकृत, अपभ्रंश हो कर मैं,  देववाणी कहलाई हूँ. शब्दों का सागर है मुझमें,  झरने का सा प्रभाव है. है माधुर्य गीतों सा भी, अखंडता का भी रुआब है.  ऋषियों ने अपनाया मुझको,  शास्त्रों ने मुझे संवारा है.  कविता ने फिर सराहा मुझको,  गीतों ने पनपाया है.  हूँ गौरव आर्यों का…