मनोज जी ने अपने ब्लॉग पर प्रवासी पंछियों पर एक श्रंखला शुरू की है. जो मुझे बेहद पसंद है .क्योंकि उसमें मुझे अपने बचपन के बहुत से सवालों के जबाब मिल जाते हैं.ये कुछ पंक्तियाँ उन्हीं आलेखों से प्रेरित हैं. कहते हैं उड़ान परों से नहीं हौसलों से होती है पर क्या हौसला ही काफी है. हौसले के साथ तो …
यूँ ही कभी कभी ठन्डे पड़ जाते हैं मेरे हाथ. तितलियाँ सी यूँ ही मडराने लगती हैं पेट में. ऊंगलियाँ करने लगती हैं अठखेलियाँ यूँ ही एक दूसरे से . पलकें स्वत: ही हो जाती हैं बंद. और वहाँ बिना किसी जुगत के ही कुछ बूंदे निकल आती हैं धीरे से. काश कि तेरे पोर उठा लें और कह दें उन्हें मोती. या…
कल रात किवाड़ के पीछे लगी खूंटी पर टंगी तेरी उस कमीज पर नजर पड़ी जिसे तूने ना जाने कब यह कह कर टांग दिया था कि अब यह पुरानी हो गई है. और तब से कई सारी आ गईं थीं नई कमीजें सुन्दर,कीमती, समयानुकूल परन्तु अब भी जब हवा के झोंके उस पुरानी कमीज से टकराकर मेरी नासिका में…
सभी साहित्यकारों से माफी नामे सहित . कृपया निम्न रचना को निर्मल हास्य के तौर पर लें. आजकल मंदी का दौर है उस पर गृहस्थी का बोझ है इस काबिल तो रहे नहीं कि अच्छी नौकरी पा पायें तो हमने सोचा चलो साहित्यकार ही बन जाएँ रोज कुछ शब्द यहाँ के वहां लगायेंगे और नए रंगरूटों को फलसफा ए लेखन सिखायेंगे कुछ नए…
आजकल हर जगह अन्ना की हवा चल रही है .बहुत कुछ उड़ता उड़ता यहाँ वहां छिटक रहा है.ऐसे में मेरे ख़याल भी जाने कहाँ कहाँ उड़ गए .और कहाँ कहाँ छिटक गए…. क्षणिकाएं …….. अपनी जिंदगी की सड़क के किनारों पर देखो मेरी जिंदगी के सफ़े बिखरे हुए पड़े हैं है परेशान महताब औ आफताब ये शब्बे सहर भी मेरे तेरे…
कभी कभी तो लगता है कि हम लन्दन में नहीं भटिंडा में रहते हैं (भटिंडा वासी माफ करें ) वो क्या है कि हम घर बदल रहे हैं और हमारी इंटर नेट प्रोवाइडर कंपनी का कहना है कि उसे शिफ्ट होने में १५ दिन लगेंगे .तो जी १८ मार्च तक हमारे पास नेट की सुविधा नहीं होगी.और हमारा काला बेरी…
रोज जब ये आग का गोला उस नीले परदे के पीछे जाता है और उसके पीछे से शशि सफ़ेद चादर लिए आता है तब अँधेरे का फायदा उठा उस चादर से थोड़े धागे खींच अरमानो की सूई से मैं कुछ सपने सी लेती हूँ फिर तह करके रख देती हूँ उन्हें अपनी पलकों के भीतर कि सुबह जब सूर्य की गोद…
तू बता दे ए जिन्दगी किस रूप में चाहूँ तुझे मैं? क्या उस ओस की तरह जो गिरती तो है रातों को फ़िर भी दमकती है. या उस दूब की तरह जिसपर गिर कर शबनम चमकती है. या फिर चाहूँ तुझे एक बूँद की मानिंद . निस्वार्थ सी जो घटा से अभी निकली है. मुझे बता दे ए जिन्दगी किस रूप में चाहूँ तुझे मैं.…
बसंत पंचमी ( भारतीय प्रेम दिवस ) बीत गया है ,पर बसंत चल रहा है और वेलेंटाइन डे आने वाला है ..यानी फूल खिले हैं गुलशन गुलशन ..अजी जनाब खिले ही नहीं है बल्कि दामों में भी आस्मां छू रहे हैं ,हर तरफ बस रंग है , महक है ,और प्यार ही प्यार बेशुमार . …वैसे मुझे तो आजतक…
. आज इन पलकों में नमी जाने क्यों है रवानगी भी इतनी थकी सी जाने क्यों है जाने क्या लाया है समीर ये बहा के सिकुड़ी सिकुड़ी सी ये हंसी जाने क्यों है. खोले बैठे हैं दरीचे हम नज़रों के आती है रोशनी भी उन गवाक्षों से दिख रहा है राह में आता हुआ उजाला बहकी बहकी सी ये नजर जाने क्यों…