कविता

एक नौनिहाल माँ का एक खिड़की से झाँक रहा था साथ थाल में पड़ी थी रोटी  चाँद अस्मां का मांग रहा था माँ ले कर एक कौर रोटी का उसकी मिन्नत करती थी लाके देंगे पापा शाम को उससे वादा करती थी पास खड़ा एक मासूम सा बच्चा  उसको जाने कब से निहार रहा था. हैरान था उनकी बातों पर…

रिश्तों का बाजार गरम है  पर उनका अहसास नरम है हर रिश्ते का दाम  अलग है  हर तरह का माल  उपलब्ध है कभी हाईट तो कभी रूप कम है   जहाँ  पिता की  इनकम कम है  साथ फेरे, रस्में सब, आडम्बर हैं  अब तो नया लिव इन का फैशन  है हर रिश्ते पर स्वार्थ की  पैकिंग  हर रिश्ते पर एक्सचेंज ऑफर…

आजकल भाव सब सूख से गए हैं आँखों से पानी भी गिरता नहीं परछाई भी जैसे जुदा जुदा सी है मन भी अब पाखी बन उड़ता नहीं पंख भी जैसे क़तर गए हैं. पर फिर भी ये दिल धडकता है ज्यादा इत्मीनान से. ख़ुशी भी झलकती है अपने पूरे गुमान से हाँ पर ख़्वाबों को मेरे ज़ंग लग गई है…

गीली सीली सी रेत में छापते पांवों के छापों में अक्सर यूँ गुमां होता है तू मेरे साथ साथ चलता है .. सुबह की पीली धूप जब मेरे गालों पर पड़ती है शांत समंदर की लहरें जब पाँव मेरे धोती हैं उन उठती गिरती लहरों में अब भी मुझे अक्स तेरा दिखाई देता है . उस गोधुली की बेला में…

नारी बंद खिड़की के पीछे खड़ी वो, सोच रही थी कि खोले पाट खिड़की के, आने दे ताज़े हवा के झोंके को, छूने दे अपना तन सुनहरी धूप को. उसे भी हक़ है इस आसमान की ऊँचाइयों को नापने का, खुली राहों में अपने , अस्तित्व की राह तलाशने का, वो भी कर सकती है अपने, माँ -बाप के अरमानो…

प्रेम दिवस कहो या valentine day ..कितना खुबसूरत एहसास है …आज के दौर की इस आपा धापी जिन्दगी में ये एक दिन जैसे ठहराव सा ला देता है .एक दिन के लिए जैसे फिजा ही बदली हुई सी लगती है ..फूलो की बहार सी आ जाती है…हर चेहरा फूल सा खिला दीखता है..कोई गर्व से , कोई ख़ुशी से ,…

तुम्हारे उठने और  मेरे गिरने के बीच  बहुत कम फासला था.  बहुत छोटी सी थी ये जमीं  या तो तुम उठ सकते थे  या मै ही,  मैंने  उठने दिया दिया था तुम्हे  अपने कंधो का सहारा देकर  उसमे झुक गए मेरे कंधे  आहत हुआ अंतर्मन  पर ह्रदय प्रफुल्लित था  आत्मा की आवाज़ सुनकर.  पर आज  सबकुछ नागवार सा है,  भूल…

सर उठा रहा भुजंग है  क्रोध, रोष, दंभ है  बेबस है लाल भूमि के  शत्रु हो रहा दबंग है  फलफूल रहा आतंक है  और सो रहा मनुष्य है  अपनी ही माँ की छाती पर  वो उड़ेल रहा रक्त है  जिन चक्षु में था नेह भरा वो पीड़ा से आज बंद हैं  माँ कहे मुझे नहीं देखना  मेरी कोख पर लगा…

नजरें. कुछ और कह रही लब की अलग कहानी है देते आगे से मिश्री और पीछे हाथ में आरी है कोई बड़ा हुआ है कैसे और कोई कैसे चढ़ा हुआ है खींचो पैर गिराओ भू पर ये किस की शामत आई है. . रख कर पैर किसी के सर बस अपनी मंजिल पानी है. है हाथ दोस्ती का बढा हुआ.…

उगता सूर्य कल यूँ बोला, चल मैं थोडा ताप दे दूं  ले आ अपने चुनिन्दा सपने कुछ धूप मैं उन्हें दिखा दूँ   उल्लासित हो जो ढूंढा  कोने में कहीं पड़े थे,  कुछ सीले से वो सपने निशा की ओस से भरे थे. गत वो हो चुकी थी उनकी  लगा श्रम बहुत उठाने में  जब तक टाँगे बाहर आकर  सूरज जा…