आलेख

 नवभारत में प्रकाशित  क्या पुरुष प्रधान समाज में, पुरुषों के साथ काम करने के लिए,उनसे मित्रवत  सम्बन्ध बनाने के लिए स्त्री का पुरुष बन जाना आवश्यक है ?.आखिर क्यों यदि एक स्त्री स्त्रियोचित व्यवहार करे तो उसे कमजोर, ढोंगी या नाटकीय करार दे दिया जाता है और यही  पुरुषों की तरह व्यवहार करे तो बोल्ड, बिंदास और आधुनिक या फिर चरित्र हीन .यूँ मैं कोई नारी वादी…

  अभी कुछ दिन पहले करण समस्तीपुर की एक पोस्ट पढ़ी कि कैसे उन्होंने अपनी सद्वाणी  से एक दुर्लभ सा लगने वाला कार्य करा लिया जिसे उन्होंने गाँधी गिरी कहा.और तभी से मेरे दिमाग में यह बात घूम रही है कि भाषा और शब्द कितनी अहमियत रखते हैं हमारी जिन्दगी में. यूँ कबीर भी कह गए हैं कि- ऐसी वाणी बोलिए , मन का आपा…

अभी तक नस्लवाद का इल्जाम पश्चिमी विकसित देशों पर ही लगता रहा है.आये दिन ही नस्लवादी हमलों के शिकार होने वालों की खबरे आती रहती हैं. कभी ऑस्ट्रेलिया से, तो कभी ब्रिटेन से तो कभी अमेरिका से. पर क्या कभी आपने सुना या सोचा कि अंग्रेज़ भी कभी इस नस्लवाद का शिकार हो सकते हैं.कुछ अजीब लगता है ना ? पर आजकल…

मैं जब भी भारत जाती हूँ लगभग हर जगह बातों का एक विषय जरुर निकल आता है. वैसे उसे विषय से अधिक ताना कहना ज्यादा उचित होगा. वह यह कि “अरे वहां तो स्कूलों में पढाई ही कहाँ होती है.बच्चों का भविष्य बर्बाद कर रहे हो. यहाँ देखो कितना पढ़ते हैं बच्चे”. पहले पहल उनकी इस बात पर मुझे गुस्सा…

*सिर्फ एक पंक्ति फेसबुक की दिवार पर – “मैंने अपनी महिला मित्र को छोड़ दिया. अब मैं आजाद हूँ.” और नतीजा… उस लडकी ने शर्मिंदगी और दुःख में आत्महत्या कर ली. *एक बच्ची ने फेस बुक पर एक इवेंट डाल दिया .कल उसका जन्म दिन है सभी को आमंत्रण .दूसरे दिन हजारों की संख्या में उसके घर आगे उपहार लिए…

तीन मध्यम वर्गीय १६- १७ वर्षीय  बालाएं आधुनिक पश्चिमी पोशाक , एक हाथ में स्टाइलिस्ट बैग्स और दूसरे में ब्लेक बेरी.इस काले बेरी  ने बाकी सभी मोबाइल को छुट्टी पर भेज दिया है आजकल. स्थान -महानगर की मेट्रो . शायद किसी कोचिंग क्लास में जा रहीं थीं या फिर आ रहीं थीं.पर उनकी बातों में कहीं भी लेश मात्र भी…

“शब्-ए फुरक़त का जागा हूँ, फरिश्तों अब तो सोने दो, कभी फुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता…” कभी सोचा नहीं था कि इस पोस्ट के बाद यह श्रद्धांजलि इतनी जल्दी लिखूंगी. अभी इसी साल जून की तो बात है जब जगजीत सिंह का लन्दन में कंसर्ट था और वहां उनका ७० वां जन्म दिन मना कर आई थी उनके जन्म…

आज हिंदी दिवस है.और हर जगह हिंदी की ही बातें हो रही हैं .मैं आमतौर पर इस तरह के दिवस या आयोजनों पर लिखने से बचती हूँ पर आज कुछ कहे बिना रहा नहीं जा रहा.आमतौर पर हिंदी भाषा के लिए जितने भी आयोजन होते हैं उनमें हिंदी को मृत तुल्य मान कर शोक ही मनाते देखा है.एक हँसती खेलती…

मेरी पिछली पोस्ट पर काफी विचार विमर्श हुआ. विषय का  स्त्री पुरुष के पूरक होने से , या उनके सम्मान से या फिर किसी तथाकथित नारी या पुरुष वाद से कोई लेना – देना  नहीं था. एक सीधा सादा सा प्रश्न था. कि क्या स्त्री विवाह को अपने करियर के उत्थान में बाधक महसूस करती है.? सभी विचारों का यहाँ उलेल्ख संभव नहीं फिर भी…

छतीस गढ़ के दैनिक  नवभारत में प्रकाशित एक आलेख. कुछ समय से ( खासकर भारतीय परिवेश में )अपने आस पास जितनी भी महिलाओं को अपने क्षेत्र  में सफल और चर्चित देख रही हूँ .सबको अकेला पाया है .किसी ने शादी नहीं की या कोई किसी हालातों की वजह से अलग रह रही हैं. और यह सवाल पीछा ही नहीं छोड़…