![]() मेरी पिछली पोस्ट पर काफी विचार विमर्श हुआ. विषय का स्त्री पुरुष के पूरक होने से , या उनके सम्मान से या फिर किसी तथाकथित नारी या पुरुष वाद से कोई लेना – देना नहीं था.
एक सीधा सादा सा प्रश्न था. कि क्या स्त्री विवाह को अपने करियर के उत्थान में बाधक महसूस करती है.?
सभी विचारों का यहाँ उलेल्ख संभव नहीं फिर भी कुछ उदाहरण देना चाहूंगी.और वहां आई ज्यादातर टिप्पणियों से फिर चाहे वो किसी १९ वर्षीय किशोरी की रही हो कि – “मेरे विचार से विवाह का तरक्की में बाधक ना होना सिर्फ़ एक special case है जो तभी सम्भव है जब महिला स्वंय इस बारे में aware हो। और ज़हिर है… बहुत मेहनत लगती है लीक से हटकर कुछ करने में। क्योंकि हमारे समाज में “normally” लड़कों को बिन मांगे ही और लड़कियों को ना सिर्फ़ मांगने पर ही… बल्कि बहुत लड़ने पर ही अपने अधिकार मिलते हैं। अगर लड़की खुद ये सब ना समझे और इतनी जुझारु ना हो तो लगता है जैसे presently सारा set up तो आपकी ही पोस्ट को सही साबित करने पर तुला है।
और मेरे विचार से लड़ाई इस बात की नहीं कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के बिना रह सकते हैं या नहीं… दोनों साथ तभी रहें जब एक दूसरे को एकदम बराबर सम्मान और अधिकार दे सकें… बिना किसी लाग लपेट के… एकदम बराबर। सिर्फ़ साथ रहने की रस्म निभाना, कभी समाज़, परिवार की खातिर तो कभी अपनी ही ‘ज़रुरतों‘ पर अपनी महत्वकांक्षा की बलि चढ़ाना… गलत है”…
या एक परिपक्व गृहणी की. “विवाह के बाद स्त्री चाहे जितनी प्रखर हो उसकी पहली जिम्मेदारी हो जाती हैं गृहस्थी का सुचारु प्रबंध ,और सबसे बढ़ कर बच्चों का भविष्य (अपने से अधिक महत्वपूर्ण ) अगर बच्चे ही योग्य न बने तो सारा किया-धरा निरर्थक लगने लगता है.पति से कब कितनी सहायता मिलेगी इसके बारे में कुछ निश्चित नहीं.समझौता विवाहित महिला को ही करना होता है”..
यही समझ में आया कि समस्या तो है .भारतीय परिवेश में स्त्री विवाह को अपने करियर में एक गति अवरोधक की तरह तो महसूस करती है.फिर इसकी वजह चाहे उसकी परवरिश रही हो,संस्कार हों या उसकी अपनी भावनाएं जिनके चलते वह अपने करियर को अपने परिवार से ऊपर प्राथमिकता नहीं दे पाती.यहाँ सोचने वाली बात यह भी है कि अगर वह अपनी गृहस्थी में खुश है.आखिर घर चलाना और बच्चों की सही परवरिश करना भी खेल नहीं. ये भी एक उपलब्धि ही है.तो बहुत अच्छा है.हमारे समाज में ज्यादातर स्त्रियाँ यह कर रही हैं और कर चुकी हैं. और कोई समस्या नहीं गृहस्थी की गाड़ी आराम से चल रही है.हालाँकि यहाँ यह एक टिप्पणी भी गौरतलब है. -“विवाह के बाद बहुत ही कम स्त्रियों को ऐसे मौके मिलते हैं जो अपनी योग्यता के अनुसार कैरियर को बना सकें .. माना कि स्त्रियों की पहली ज़िम्मेदारी परिवार है और बच्चे हैं ..पर कितनी पत्नियाँ हैं जो अपने मन की कर पाती हैं …स्त्रियां अपने कम्फर्ट ज़ोन में नहीं रहतीं ..बल्कि दूसरों के कम्फर्ट को देख कर अपने मन को मार लेती हैं ..मैंने तो आस पास यही देखा है या तो स्त्रियां परिवार के हिसाब से अपने कैरियर को दांव पर लगाती हैं या फिर साथ रहते हुए भी एक अलग दुनिया बना लेती हैं तभी वो अपना कैरियर बना पाती हैं ..लेकिन तब वो पति से और अपने बच्चों से भी दूर हो जाती हैं ,एक ही घर में रहते हुए “.
परन्तु समस्या आती है तब, जब वह गृहस्थी से उठ कर कुछ और भी करना चाहती हैं बाहरी समाज में अपना वजूद बनाना चाहती हैं .परन्तु घर परिवार की जिम्मेदारियों में सहयोग ना मिलने के कारण अपनी इच्छाओं को दबा लेती हैं.और इसी तरह जीवन गुजार देती हैं.या फिर जो थोड़ी हिम्मती होती हैं वे हालातों से बगावत कर कुछ पाने की कोशिश करती हैं.और घरेलू संबंधों में कटुता का भाजन बनती हैं.
जैसे किसी ने कहा.-और सफलता का मापदंड केवल बाहरी (अर्थार्जन) ही बच कर रह गया है…गृहस्थी की व्यवस्था कितने अच्छे ढंग से सम्हली ,इसे सफलता न स्त्री मानती है,न पुरुष…
अब अगर इस समस्या के समाधान की तरफ देखें तो कुछ सकारात्मक उदाहरण देखने को मिलते हैं.और यही समझ में आता है कि वक़्त बदल रहा है और सोच भी बदल रही है.हालाँकि ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं फिर भी आशा है कि आपसी सामंजस्य से इस समस्या से निबटा जा सकता है.
गया वो ज़माना जब घरेलू कामो की ट्रेंनिंग सिर्फ बेटियों को दी जाती थी.अब खुली सोच वाले घरों में बेटों को भी घर के काम सिखाये जाते हैं.
और औरत के लिए यह कहने वाले “कि प्रकृति ने औरत को बच्चा पैदा करने की शक्ति दी है ,तो उसे पाल भी वही सकती है.अत: उसे यही करना चाहिए .उनसे तो यही कहा जा सकता है कि यह शक्ति औरत के पास है तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे चार दिवारी में बंद कर सिर्फ यही करने को मजबूर किया जाये
और इसलिए मर्दों को ही धन कमाने का हक़ है और फिर नीचा दिखाने का भी कि खुद तो कमाना नहीं पड़ता ना.इस तरह औरत को मोहताज़ बना कर रखने का एक जरिया भी मिल जाये.
परन्तु जो भी हो इसके लिए दोषी सिर्फ और सिर्फ स्त्री ही है.उसे खुद ही अपनी प्राथमिकता को चुनना होगा.खुद अपनी क्षमताओं ,योग्यताओं और हालातों को परखना होगा.एक टिप्पणी में बहुत अच्छी बात कही गई.कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ऐसे ही सफलता भी अपना हिस्सा मांगती है. अब ये फैसला खुद स्त्री को ही करना होगा कि वह क्या चाहती है और किस मूल्य पर.
बरहाल यह विषय किसी नारी – पुरुष बहस का विषय नहीं.एक ऐसा विषय है जो बृहद विमर्श की मांग करता है.
कुछ दिनों से यह पंक्तियाँ दिमाग में चल रही हैं अत: इन्हीं के साथ मैं इस विमर्श को यहाँ विराम देना चाहूंगी.
इति शुभम.
कोमल से आवरण में
बहुत कुछ भरा हुआ. पलपल ताप में पकती पर बिना ताप का रंग लिए. उसी कोमल आवरण में दिखती औरत मोमोस हो गई है |
मोमोस

आपके मुख्य पोस्ट पर शायद कमेन्ट नहीं दे पाया था. विषय अच्छा है. समय के साथ ये सवाल और भी मुखर होंगे और नई सामाजिक संरचना को जन्म देंगे. हो सकता है कि अगले सौ वर्षों में जो भूमिका आज महिलायें एक गृहणी के रूप में निभा रही हैं वे पुरुष करें… वैसे शुरुआत हो चुकी है. मेरे कई मित्र हैं जो पति पत्नी बराबर पढ़े हैं… पत्नी को बढ़िया पैकेज मिला है और बच्चे की स्कूलिंग, परेंट्स मीटिंग आदि में पति ही छुट्टी लेकर जिम्मेदारी निभा रहे हैं. मोमोस कविता अच्छी है.
विचारणीय लेख। कुदरत ने दोनों को बराबर बनाया है। इंसान ने ही फ़र्क किया है।
momos kyon samosa kyon nahi:)
waise isme koi sakk nahi, tum apne soch ko bahut pankh deti ho…..achhha lagta hai tumahre soch ke udan ko dekh kar…sarthak aalekh!!
badhai mitra!
स्त्री और पुरुष दोनों ही बराबर है। जरूरत है दोनों को आपस मैं समज्स्य बनना कर चलने की उसके बिना इस सामस्या का और कोई समाधान नहीं है। क्यूंकि दोनों के अपने कुछ सीमित दायरे हैं और फर्ज भी जिन्हे हर हालातों में पूरा करना दोनों की ही ज़िम्मेदारी है। इसलिए यह कहना की "इसके लिए दोषी सिर्फ और सिर्फ स्त्री ही है.उसे खुद ही अपनी प्राथमिकता को चुनना होगा.खुद अपनी क्षमताओं,योग्यताओं और हालातों को परखना होगा" मेरे हिसाब से सही नहीं है।
बहुत अच्छा लिखा है आपने वाक़ई विचारणीय पोस्ट है आपकी शुभकामनायें 🙂
Ye ek jatil samasya hai,aur barson waise hee banee rahegee….tab tak jab tak saman adhikaron ke bareme samaj jagruk nahee hota.
कशमकश जारी है अनंत समय से …..लेकिन हल ….???? जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक नहीं ……! वैसे आपने काफी बातों पर गौर किया है ….!
अब जब मोमोस देखूँगी तो आपकी पंक्तियाँ और नारी याद आएगी …..
Shikha, bahut din baad aaj tera lekh phir se padha. Uttejana ke saath kaafi garvit hoti hu jabi teri likhi hui panktiyan padhti hu. saaf, saral dil ko chhoo jane wali bhaasha.
Yahan aurat kuch bhi kar le, jab tak apni nazron mein wo upar na jaana chahe, swawlambi na hona chahe to humey kisi ko dosh nahi dena chahiye. hum sab mein wo aurat hai jo udna chahti hain par raah nahi milta ya shayad woh dhoondhna nahi chahti. shayad in lekhon se woh aurat hum sab mein jagrut ho jo udna chahti ho. u'd know exactly what i mean.
Love Soniya.
सृष्टि की दो खूबसूरत रचनाये, पुरुष और स्त्री , दोनों ही अनंत संभावनाओ के मालिक . अधिकार और कर्तव्य तो समाज में प्रचलित रितिओं और रिवाजों के हिसाब से बनते बिगड़ते रहते है . इनके बीच सामंजस्य ही सुखी जीवन की कुंजी है . मोमो का फोटो देखकर धर्मशाला प्रवास याद आया .
माना कि स्त्रियों की पहली ज़िम्मेदारी परिवार है और बच्चे हैं—
शिखा जी आजकल ऐसा कोई नहीं सोचता । आजकल बच्चों की परवरिश करने में मां और पिता दोनों की भूमिका अहम् रहती है । बच्चे को स्कूल बस में बैठाना , ट्यूशन के लिए ले जाना , एग्जाम या इंटरव्यू के लिए लेकर जाना , उसका होम वर्क कराना आदि सभी कामों में पिता का रोल कम नहीं रहता , बल्कि ज्यादा ही रहता है ।
फिर कैसे कह सकते हैं कि घर की जिम्मेदारी नारी पर ही है ।
करियर भी दोनों के लिए बराबर मायने रखता है ।
क्या एक स्त्री को करियर के अलावा और कुछ नहीं चाहिए ? प्रेमी/पति / जीवन साथी –सुख दुःख में साथ देने के लिए , बच्चे –ममत्त्व से नारी को सम्पूर्ण नारी बनाने के लिए , और एक घर जहाँ वह अपनों के साथ सुख शांति से रह सके ।
और यह सब संभव है -ज़रुरत है एक सामंजस्य स्थापित करने की ।
आपने एक आम सी चीज़ को ख़ास बना दिया … शायद यही आपकी खासियत है … आपको और नारी शक्ति को प्रणाम !
सारगर्भित समीक्षा की आपने….
@@कोमल से आवरण में
बहुत कुछ भरा हुआ.
पलपल ताप में पकती
पर बिना ताप का रंग लिए.
उसी कोमल आवरण में दिखती
औरत मोमोस हो गई है ..
सब कुछ इसी में समाहित कर दिया आपनें,बहुत आभार.
ओह! मोमोस की सुगंध आप तक पहुंच गई, जेलर के जासूस………….। मोमोस बिंब बहुत ही उम्दा उकेरा है कविता में।
३६ गढ़ी मे कहावत है.."जेखर काम उही ला साजे, नइ साजे तो ठेंगा बाजे"… अर्थात प्रकृति ने जिस कार्य के नियत निर्माण किया है, उसके विपरीत कोई काम किया जाता है तो वह कष्टदायक ही होता है। वर्तमान समय में गृहस्थी को चलाने के लिए स्त्री एवं पुरुष दोनों को अर्थ अर्जन करना पड़ता है और दोनों के कार्यों का सामाजिक महत्व है।
सार्थक लेख के लिए आभार
कल 14/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
शिखा जी! आपकी पिछली पोस्ट पर मेरा कमेन्ट बहुत जेनेरल सा था… कारण बस इतना कि इस तरह के विषय में लोग स्वस्थ परिचर्चा की बजाये लांछना और स्वयं को सुपीरियर सिद्ध करने में लग जाते हैं.. मुख्य मुद्दा पीछे छूट जाता है और बहस अर्थहीन और अंतहीन होकर रह जाती है..
ओशो कहते हैं कि हमारे देश में स्त्रियों के लिए सीता का जो आदर्श स्थापित किया गया वही आज नारी की दुर्दशा (?) के लिए जिम्मेवार है. यदि सीता के स्थान को द्रौपदी को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया होता तो देश का चरित्र कुछ और होता.
डॉ. राम मनोइहर लोहिया ऐसे अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने इस बात को स्वीकार किया है. देश में सीता माता के अनेक मंदिर मिलेंगे मगर द्रौपदी के नहीं. दुर्योधन ने द्रौपदी की साड़ी उतारने का आदेश दिया, मगर कोई द्रौपदी को नंगा कर ही नहीं सकता… वो उसका सख्त किरदार है!!
इससे अधिक तो कुछ नहीं कह सकता मैं. और रही बात मोमोज़ की तो मुझे पसंद नहीं..
charchaen, vaad-vivaad aur kai baar to ladai-jhagadon ka main mudda yahi hota hai… is post pe comment karne ke liye aapka last post padha… well… ye baatein hamesha hamare samaj mein hoti hai, koi peechhe hatne ko tayyar nahi hai… samjhouton ki baatein badi mushkil se hoti hain…
fir baat ego ki bhi aati hai…
then ghar ki zimmedaaree… etc.
par adjustments ke liye hamesha female ko aage kiya jata hai…
aaj hi maine Masoom Uncle ki bhi post padhi, waha bhi aisa hi mahoul hai…
har koi adig hai… dekhiye kya hota hai…
momos ke liye thank you… sikkim mein s=best khaye the… 🙂
hooooooooooom achchha khasa lekh hai .aapne ek baat kya chhedi mano sabhi kuchh kahna chahte the bas mouka nahi mila tha
ant me likhi lavita bahut sunder hai
rachana
एक लम्बी बहस का मुद्दा बन गया यह अंतत दोनों एक समान……..
इस तुलना ने पोस्ट का सार व्यक्त कर दिया।
मैं तो यही कहता हूं कि हर किसी को अपनी इच्छानुसार पढ़ने, आगे बढ़ने, कैरियर बनाने और विवाह करने (या फिर इस को न करने) का हक होना चाहिये फिर वह पुरुष हो स्त्री.
आज स्थितियां काफ़ी बदली हैं परंतु समग्र रूप से अभी काफ़ी समय लगेगा. वैसे इमानदारी से बेबाक कहुं तो जिस तरह से गादी के दो पहियों का संतुलन होता है वही संतुलन इस विषय में भी अपेक्षित है, पर अफ़्सोस ये हो ना सका और आगे भी पूरी तरह हो पायेगा? इसका सिर्फ़ भरोसा ही किया जा सकता है.
रामराम.
पल्लवी जी की बातों से सहमति बना पा रहा हूँ.
परिस्थितिया अब पहले से काफी बदली है. वैसे यह केस टु केस डिफर करता है. परिवार को वैलेंस रखने के लिए आज दोनों को बराबर भूमिका निभाना जरुरी है. मोमोस की कमाल की व्याख्या निकाली है आपने . कभी इसे खाते वक्त इस पर सोंचा न था.
पुरवईया : आपन देश के बयार
संतुलन के सिवा और कोई उपाय नहीं है इस समस्या का !
शिखा जी आपने नारी की वास्तविकता स्थित बतलाई है इसके लिये आप बधाई के पात्र है, आप्क धन्यवाद.
टिप्पणी में ज्यादातर लोग ये कह रहे है की परिस्थितिया पहले से बदली है किन्तु ये बदली कैसे है और कितनी बदली है ये भी देखते चले, परिस्थितिया अभी भी केवल बड़ो शहरों में बदली है वो भी वहा पर जहा पत्नी खुद मुखर हो कर अपने हक़ की बात करती है या आगे बढ़ कर बराबरी का काम करती है पर जहा पर पत्नी मुखर नहीं हो पाती उन घरो के हालत भी गांवो से बिल्कुल भी अलग नहीं है जहा आज भी पत्नी का कोई अपना अस्तित्व नहीं होता है | कैरियर जैसे शब्द पत्नी या ये कहे महिलाओ के लिए नहीं बने है शहरों में जिन घरो में महिलाए काम करती है वहा भी ज्यादातर मामलों में कैरियर जैसी कोई बात नहीं होती है महिलाए काम करती है या ये कहे की पत्नियों से काम करवाया जाता है ताकि घर चल सके या परिवार का जीवन स्तर ऊँचा हो सके नौकरी करने के बाद भी कई महिलाए आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं होती है बस इसलिए कई घरो में पत्नी के काम करने पर समस्या नहीं आती है और इसे ही लोग पति की महानता और परिस्तितियो के बदलाव के रूप में देखते है | किन्तु समस्या तो तब आती है जब पत्नी कैरियर की बात करने लगती है बस वही पर ये सारी सोच बदल जाती है पत्नी पति की मर्जी से जब तक करे ठीक किन्तु जैसी ही वो अपनी ख़ुशी के लिए घर के बाहर कदम निकलती है सभी को परेशानी होने लगती है | कई बार देखा है की कुछ अपने कैरियर में काफी आगे जा सकती है बिना परिवार की जिम्मेदारियों को छोड़ कर फिर भी आगे नहीं जा पाती बस समस्या वही आ जाती है कैरियर शब्द से |
अच्छा लिखा है आपने….अपन तो यथा-संभव सही रास्ते पर चलते और औरों को बतियाते हैं….बाकी जिसे जो समझ में आये….तो अपन का काम है….सही करना….बताना….और समझना….आपकी बातें भी शिरोधार्य…!!
जीवन के पहिये की (बैल ) गाडी में दोनों पहिये बराबर के हों -अन्यथा बहुत कुछ बेमजा रहेगा
पति – पत्नि दोनों ही यथायोग्य परिवार में सहयोग देते हैं … दोनों ही अपनी ज़िम्मेदारी निबाहते हैं ..ज़िम्मेदारी के मामले में न बराबरी की बात है न ही कोई तुलना की बात ..
बात कैरियर को लेकर है तो पुरुष कैरियर के लिए किसी का मोहताज नहीं उसे आगे बढ़ना है तो बढ़ना है ..जबकि स्त्री को कई बातें सोचनी पड़ती हैं ..कैरियर से ज्यादा उसके लिए परिवार महत्त्वपूर्ण लगता है …जिनको नहीं लगता वो बिना रोक टोक के आगे बढ़ सकती हैं ..
चंद पंक्तियों में नारी की सच्चाई लिखने का प्रयास किया है … मोमोस … जो पके होते हैं लेकिन फिर भी सीके हुए दिखाई नहीं देते … ऐसे ही नारी जिसको देखने से उसके चेहरे से नहीं पता चलता की कितना मन में द्वंद चलता है ..
किसी ने कहा था की मोमोस ही क्यों ? समोसा क्यों नहीं ..यह उसी का जवाब है ..समोसा तो अच्छे से सिका हुआ दिखाई देता है यानि उसका रंग बदल जाता है … मोमोस एक सटीक उपमा दी है ..
@ क्या स्त्री विवाह को अपने करियर के उत्थान में बाधक महसूस करती है.?
कुछ चीज़ें प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। चाह कर भी हम उनके विरुद्ध नहीं जा सकते। बहस का मुद्दा भले हों, अपवाद भले हों।
पति-पत्नी और विवाह एक सामाजिक नियम है। इनके अपने मूल्य हैं, जिन्हें निबाहना आता है निबाह ही लेते हैं, उनकी राह में कोई बाधा टिक नहीं पाती। जिस पत्नी को खाना-किचन मन नहीं भाता उनके भी पति खाते-पीते तो होंगे ही। कई जगह दोनों मिलकर कर लेते हैं कई जगह एक पुरुष मिसेज तेंदुलकर बन जाता है।
कहने का मतलब यह कि यह एक ऐसा इंसटीटूशन है जहां बात ताल-मेल से ही बनती है।
मेरी बहन मेडिकल थर्ड इयर में जब गई उसने शादी के लिए हां की और हाउस मैन शिप करते करते दो बच्चों की मां बनी, आज उसके नाती पोते हैं।
दोनों हस्बैंड वाइफ़ सकारी अस्पताल में डॉक्टर हैं, बहन रोटी बना रही होती है, तो बहनोई चिकन।
मैं ने भी पहले शादी कर ली फिर सिविल सर्विसेज कम्पीट किया। हम भाए-बहन के जीवन में शादी व्याह कैरियर के रास्ते में बाधक नहीं बना।
किन्तु जीवन न तो सरल होता है न कोई इसके लिए सीधा फ़ॉमूला।
इस आलेख के शीर्षक से असहमति है, इससे खाने का, भोजन और … बोध होता है।
नारी भोग्या नहीं है, अब लोग इसे खींच खांच कर आलू-समोसे और न जाने कहां कहां तक ले जाना चाहेंगे।
वैसे भी शायद यह भारतीय व्यंजन नहीं है …
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और शादी क्या कैरियर में बाधक बनेगी … कम से कम आज के संदर्भ में तो हमारे देश की राष्ट्रपति, विपक्ष की नेता, और एक बड़े राष्ट्रीय दल की नेता सब महिलाएं हैं, उनहोंने जीवन में बड़े-बड़े मुकाम हासिल किए।
इस पोस्ट के माध्यम से मैं एक प्रश्न करना चाहती हूँ …
आज कल बदलाव आया है और स्त्रियां भी नौकरी करने लगीं हैं … मान लीजिए कि एक परिवार में पति – पत्नि दोनों नौकरी करते हैं …दोनों एक दूसरे की सहायता भी करते हैं ..बच्चों की ज़िम्मेदारी भी मिल कर उठाते हैं …खुश हैं …
लेकिन इन दोनों परिश्थिति में क्या होगा ?
१ – पति को नौकरी करते हुए ऑफ़र आया कि दो साल विदेश जा कर काम करना है … लौटने पर पदोन्नति और अच्छा वेतन ..( पति क्या करेगा )
२– पत्नि को नौकरी करते हुए ऑफ़र आया कि दो साल विदेश जा कर काम करना है … लौटने पर पदोन्नति और अच्छा वेतन ..( पत्नि क्या करेगी )
ईमानदारी से जवाब दीजियेगा … और बताइयेगा कि विवाह किसके कैरियर में बाधक है या सहायक है ..
मनोज जी ! शीर्षक से आपकी असहमति हो सकती है.परन्तु तुलना आम परिपेक्ष्य में सटीक है. औरत अपने चेहरे या व्यवहार से कभी जाहिर नहीं होने देती कि उसे क्या पीड़ा है.और लोगों का क्या है ले जाने को तो कुछ भी कहीं भी ले जा सकते हैं.
.दूसरी बात – आप नाराज न हों मैंने पहले ही कहा कि जो लोग अपनी गृहस्थी में संतुलन रख खुश हैं बहुत अच्छी बात है.यहाँ बात एक जनरल स्वरुप में रखी गई है.बात कुछ उदाहरणों की नहीं है.जरा अंशुमाला की टिप्पणी पर ध्यान दीजिए.
बाकी तो चोइस अपनी अपनी विचार अपने अपने .
अब दौर बदल रहा है।
महिलाएं किसी मामले में पुरूषों से पीछे नहीं हैं। बल्कि उनसे ज्यादा योग्य साबित हो रही हैं।
🙂 मोमोज़ की फ़ोटो अच्छी है (हालांकि कभी खाने की हिम्मत नहीं जुटी)
prabhavit karati panktiyan…. Momos se tulana achchi lagi…. Baki ti bahut kuchh paristhitiyan hi tay karati hain….
अब शीर्षक से कोई असहमति नहीं लेकिन मेरे मन में भी वही बात आई जो मनोज कुमार ने लिखी।
मोमोस के बारे में बच्चों से सुनते थे, खाये भी थे लेकिन यही होता है मोमोस यह आज पता चला। 🙂
बाकी नारी-पुरुष के बारे में तो पढ़ना मजेदार ही रहा।
मोमोज देखके लगा कुछ स्वाद की बातें होंगी, पर यहाँ तो पूरी ज़िन्दगी का सच पढ़ा और स्वीकार में सर हिलाया –
कोमल से आवरण में
बहुत कुछ भरा हुआ.
पलपल ताप में पकती
पर बिना ताप का रंग लिए.
उसी कोमल आवरण में दिखती
औरत मोमोस हो गई है
प्रभावपूर्ण लेख…..
इतने भारी भारी विषयों पर चर्चा और फिर उसका आंकलन … मरे समझ में तो अभी भी विषय पर और समय देने की आवश्यकता है …
बाकी मोमोस की याद क्यों दिला डी आने … हमारे दुबई में तो ये भारतीय टेस्ट के नहीं मिलते … बहुत फीके फीके होते हैं …
शिखा दी आजकल ऐसा कोई नहीं सोचता
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 15 -09 – 2011 को यहाँ भी है
…नयी पुरानी हलचल में … आईनों के शहर का वो शख्स था
इस विषय पर काफी कुछ लिखा जा चूका है और विचार-विमर्श भी बहुत हुआ है ब्लॉग दुनिया में…
और मेरे ख्याल से सबसे बेहतरीन बात यही है कि दोनों एक दूसरे के काम को गौण न समझें..
घर का काम भी उतना ही मुश्किल है जितना की बाहर का.. दोनों में तन और मन दोनों को थकान होती है इसलिए दोनों ही अपनी-अपनी जगह बहुत ही महत्वपूर्ण हैं..
जब दोनों एक दूसरे को अपने काम के लिए सम्मान देने लगेंगे तो कोई काम छोटा नहीं रहेगा…
और रही बात करियर की तो मुझे यह लगता है कि विवाह कुछ हद तक तो बाधक बनता ही है.. और वो केवल भारत में ही नहीं परन्तु दुनिया में हर जगह हो रहा है..
आदमी का जीवन केवल अपना करियर बनाने के लिए ही नहीं है.. एक परिवार में खुश रहने के लिए बना है.. करियर का सबसे मतवपूर्ण योगदान पैसा है जिससे आपका घर चलता है..
अगर स्त्रियाँ करियर के मायाजाल में फंस कर जीवन का अनमोल सुख, "परिवार" को खो देना चाहती हैं तो मेरे ख्याल से एक सोच-विचार वाला फैसला नहीं होगा..
और स्त्रियाँ ही क्यों… कुछ दिनों पहले पढ़ा था कि कुछ पुरुष घर पर रहते हैं और घर संभालते हैं.. उनकी पत्नियां पैसे कमा के लाती हैं.. पुरुष घर पर रहकर अपनी रुचियों को भी समय देता है..
अगर पुरुष घर का काम संभालते हुए अपनी रुचियों के काम कर सकता है तो महिलाएं क्यों नहीं? शायद बातों में समय ज्यादा व्यतीत करने के कारण..
खैर यह मसला ऐसा है जो कि घंटों चल सकता है.. विश्राम!
मोमोज ……शीर्षक पढ़ते ही नैनीताल के उस होटल में पहुँच गया जहाँ पहली बार मोमो खाते हुये रुमाल से आँखें और नाक पोछते हुये भी प्लेट हटाने का मन नहीं हो रहा था। हम्म्म्म ! तो मुझे लगता है कि ज़िन्दगी वह मोमो है जो तीखी तो है पर खाये बिना चैन नहीं। सुलझे हुये परिवारों में विवाह विकास में बाधक नहीं साधक है, पर ऐसे सुलझे हुये परिवार कितने हैं? अधिसंख्य परिवारों में विवास के बाद स्त्री और पुरुष की ज़िम्मेदारियाँ साझा न होकर भिन्न-भिन्न क्षेत्र में विभक्त हो जाती हैं,और यहीं से प्रारम्भ होती है स्त्री की त्रासदी, पुरुष के लिये एक स्त्री मोमो से अधिक कुछ नहीं रह जाती तब,तमाम आधुनिकता के बाद भी यह सत्य अभी भी अपने अस्तित्व में है ही। स्त्री और पुरुष ये दो दृष्टिकोण न जाने कबसे बहस के विषय बन हुये हैं ….इस दृष्टिकोण में जब तक मनुष्यता नहीं होगी …बहस चलती रहेगी। और विवाह से परे भी दामिनियाँ मोमो बनती रहेंगी। मोमो …जिसे मधुरता का सम्मान तो नहीं किंतु तीखेपन के बाद भी लोगों की लोलुपता की परिधि में समायी हुयी।
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