अब तक के २ साल आपने यहाँ पढ़े.
तीसरे साल में पहुँचते पहुँचते मेरे लेख अमरउजाला, आज, और दैनिक जागरण जैसे समाचार पत्रों में छपने लगे थे जिन्हें मैं डाक से भारत भेजा करती थी ,यूँ तो स्कूल के दिनों से ही मेरी अधकचरी कवितायेँ स्थानीय पत्रिकाओं में जगह पा जाती थीं पर स्थापित पत्रों में फोटो और परिचय के साथ छपे लेख अलग ही रोमांच का अहसास दिलाया करते थे. न जाने वह आत्म मुग्धता थी या कच्ची उम्र का उत्साह , कि छपे हुए लेखों की कतरने मैं अपने घरवालों से पत्रों के माध्यम से मंगाया करती थी और मैं और मेरे दोस्त उन लेखों के नीचे लिखे मेरे नाम के साथ फोटो और “मॉस्को से ” टैग को बड़े गर्व से निहारा करते थे.उन्हें देख कर और कुछ हुआ हो या नहीं पर इतना सुकून हमें आ गया था कि जीवन में सफलता कितनी मिलेगी वह तो पता नहीं परन्तु एक छपने वाले पत्रकार तो हम बन ही रहे थे.
इस समय तक हम उस टुकड़ों में टूटते देश की परिस्थितियों में काफी हद तक अपने आप को ढाल चुके थे ,बहुत कुछ बदल रहा था जैसे सोवियत संघ के जिन हिस्सों में पहले बिना किसी औपचारिकता के बेधड़क जाया जा सकता था अब वहाँ जाने के लिए अचानक से वीजा की जरुरत पड़ने लगी थी. परन्तु बदलाव इतनी त्वरित गति से हो रहे थे कि कुछ भी सही ढंग से हो पाना मुश्किल होता था .जहाँ समर जॉब के आदी लोग हर साल देश के बाहर जाया करते थे, छुट्टी मनाया करते थे अब आर्थिक परेशानियों और राजनैतिक मुश्किलों की वजह से अपने इलाके में ही सीमित होकर रह जाते थे.पर फिर भी छात्रों का बिना वीजा – आस पड़ोस जैसे पोलेंड,ग्रीस की सीमायें पार करके घूमने जाना भी सुनाई देता था . अचानक परिवर्तन से स्तंभित लोग बहुत बार इन चीज़ों को नजरअंदाज कर दिया करते थे कि शायद अब तक उन्हें इस बारे में पता ना चला हो.और इसी तरह एक बार हमने भी रिस्क लेने का सोचा और तालिन ( एस्टोनिया की राजधानी ) घूमने का कार्यक्रम बनाया. हम कुल मिलाकर पांच लोग थे जिसमें से एक कपल था और तीन हम सहेलियां. ट्रेन से जाना था और वीजा लेने में बहुत झंझट था सो हमने टिकट खरीदा और निकल पड़े .ट्रेन में पहुँच कर पता चला कि दूसरे ही डिब्बे में हमारे और तीन मित्र भी हैं इन्हीं हालातों में. खैर हम अपने कूपे में आये और तय किया गया कि बोर्डर पर ट्रेन रात करीब ११ बजे पहुँचती है और उस वक़्त सबको अपनी सीट पर जाकर सोने का नाटक करना होगा हमने सुन रखा था कि ज्यादातर लड़कियों पर सख्ती नहीं की जाती और उन्हें बिना वीजा के भी कई बार इजाजत मिल जाती है. हमारे साथ के एकलौते पुरुष ने हमें हिदायतें दीं कि कोई भी अपनी रूसी का ज्ञान नहीं बघारेगा और चुपचाप सोया रहेगा और कुछ पूछा जाये तो टूटी फूटी रूसी में जबाब देगा तो जी हम चुपचाप राजा बेटा की तरह जाकर अपनी सीट पर सो गए .सही समय पर चैकर आया और टिकट और वीजा दिखाने को कहा हमारे उस मित्र ने बड़ी मासूमियत से पाँचों टिकट दिखा दीं अब उसने पूछा वीजा? तो वो बड़ी बड़ी आँखें फाड़ कर उसे ऐसे घूरने लगा जैसे किसी दुसरे ग्रह के प्राणी का नाम ले लिया हो हम भी अपनी चादरों से मुँह निकाल कर उसे घूरने लगे, कि वो क्या होता है हमें तो किसी ने बताया ही नहीं कि वह भी चाहिए होता है. वह भी माशाल्लाह रूसी में .बेचारा चैकर हमारी रूसी पर तरस खाने लगा और ४-४ लड़कियों को देखकर उसने हमें समझाया कि इतनी रात को मैं तुम लोगों को नीचे नहीं उतारना चाहता .और बदलते नियम अनुसार वीजा की जरुरत को समझाता हुआ चला गया, और हम सब बैठकर अन्ताक्षरी खेलने लगे तभी ट्रेन चल पडी और खिड़की से कुछ हाथ हमें हिलते हुए दिखे .समझ में आया की दूसरे डिब्बे के उन तीन लडको को नहीं बक्शा गया था और आधी रात में सामान सहित उन्हें वहीँ उतार दिया गया था.उस दिन अपने लडकी होने पर हमें और भी अभिमान हो आया और सारे रास्ते हम उस पुरुष मित्र पर एहसान जताते गए कि हमारी वजह से बच गया वह , नहीं तो उन तीन के साथ वह भी प्लैटफार्म पर होता .अब वह बेचारा ४ लड़कियों के आगे बोलता भी क्या .खैर तालिन की वह यात्रा बहुत ही सुखद रही.वैसे अपने लडकी होने का ये आखिरी फायदा हमने उठाया हो ऐसा भी नहीं था.रूसी लोग लड़कियों का बहुत ख्याल रखते हैं .वैसे रिवाज़ तो ये बाकी जगह भी है पर लागू कितना होता है ये अलग बात है .
२६ न०.ट्राम जिससे हम होस्टल से यूनिवर्सिटी जाते थे .
वहां की ट्राम में आते जाते हमें तब बड़ा गुस्सा आता था जब हम बैठे हुए होते थे और कोई मोटी रूसी महिला खरीदारी के थैले पकडे आ खड़ी होती थी और कहती थी “मोजना पसिदित ? या उस्ताला ओचिन “(क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ ? बहुत थक गई हूँ )और हम मन मार कर सीट से उठ जाते थे कि “हद है क्यों करती हैं इतनी खरीददारी जब नहीं झेला जाता तो”, हम भी तो सारा दिन यूनिवर्सिटी के चक्कर काट कर थक जाते हैं ” पर बस भुनभुनाते रह जाते थे, कर कुछ नहीं पाते थे .इसी क्रम में एक दिन हम कुछ सहेलियां ट्राम में जा रहे थे तभी एक रूसी लड़का और एक लडकी बस में घुसे, आते ही सामने वाली सीट पर बैठी एक औरत से उस लड़के ने कहा ” अना व्रेमन्नाया बुदिते द्विगात्स्या ने मनोश्का पजालुस्ता ” (यह गर्भ से है कृपया थोडा खिसकेंगी ) और वह महिला पज़लुस्ता पज़लुस्ता (प्लीज़ )करती खड़ी हो गई और बड़े प्यार से उस लडकी को बैठाया ..हमारे सब के दिमाग में १०० वाट का बल्ब जल चुका था और आँखें चमकने लगीं थीं . उसके बाद हममे से कोई भी अगर बहुत थका होता था तो उसे कभी भी अपनी जगह से नहीं उठाना पड़ता था…पर वाकई अगर कोई जरूरतमंद होता था तो उसे हम अपनी सीट दे दिया करते अब इतने भी बैगेरत नहीं थे..
हम अपने पाठ्यक्रम के चौथे वर्ष में आ पहुंचे थे …..बाकी ब्रेक के बाद 🙂
bakai aapki kahani majedar he,
russian language bhi seekhne ko mili rahi he, jigyaa badhr ahi he ki aage kya he,
really interesting,
keep writing
शिखा जी रूस के बारे में कामरेड तिरलोक सिंह ने खूब बताया मैं और सुलभा जी बस रूस को सुनते थी किताबें खरीदता था सारा शहर कामरेड से हां मेरे बचपन में बाल-स्पुतनिक नामकी पत्रिका मुझे नंदन चम्पक से ज़्यादा लुभाती थी अब शायद वैसा रूस तो न होगा किंतु रूस भव्य इमारतों वाला रूस है
मिसफ़िट पर ताज़ातरीन
तुम्हारे संस्मरणों को पढ़ने का अपना ही आनंद है ….
बहुत बढ़िया संस्मरण लगे …. आभार
जल्दी ब्रेक लग गया 🙂
आपका यह संस्मरण भी बहुत बढ़िया रहा!
—
इस रोचक संस्मरण की तो बात ही अलग है!
तुम्हारे संस्मरण ऐसे होते हैं कि लगता है हम भी उसी वक्त के हिस्सा बन गए हैं ….बहुत प्रवाहमयी लेखन …और सीट पाने का बहुत नायाब तरीका ढूँढ लिया :):)
रोचक प्रस्तुतिकरण
बहोत अच्छा किया जो पोस्ट लिख दिया..मैं हद बोर हो रहा था..अभी जैसे ही फेसबुक खोला आपके पोस्ट पे नज़र पड़ गयी 🙂
दिल दिमाग एकदम रिफ्रेश हो गया..
दोनों किस्से एकदम ए-वन क्लास थे..मुझे तो लगता है की उस समय आप लोगों के दिमाग में ४४० वोल्ट का बल्ब जल गया होगा…१०० वाट तो कम होता है 🙂
"… तो वो बड़ी बड़ी आँखें फाड़ कर उसे ऐसे घूरने लगा जैसे किसी दुसरे ग्रह के प्राणी का नाम ले लिया हो हम भी अपनी चादरों से मुँह निकाल कर उसे घूरने लगे, कि वो क्या होता है हमें तो किसी ने बताया ही नहीं कि वह भी चाहिए होता है… "
— मैंने बहुत अच्छे से विश़ूअलाइज़ कर लिया उस समय कैसा एक्सप्रेसन होगा आप सब के चेहरे पे..
थैंक्स फॉर दिस पोस्ट..नेक्स्ट पार्ट प्लीज 🙂
राहुल जी का यात्रा विवरण ज्यादा तो नहीं पढ़ा है लेकिन इतना कह सकता हूँ की आपके संस्मरणों में कलात्मकता और नाटकीयता के साथ भरपूर मनोरंजक पुट होता है , बस पढ़ते जाने का मन करता है , समाप्त होने पर लगता है इतनी जल्दी क्यू समाप्त हो गया . वैसे आपने पूर्व सोविएत संघ की सामाजिक और आर्थिक संरचनाओ पर अपने संस्मरण में अच्छा प्रकाश डाला है .शुक्रिया इस संस्मरण को हमसे साझा करने के लिए .आगे इंतजार रहेगा .
रोचकता बढती ही जा रही है। किसी उपन्यास जैसी कहानी। धन्यवाद
।
काफी दिलचस्प होता जा रहा है आपका जर्नलिज्म कोर्स…अब तक तो खूब मस्ती दिख रही है. मगर चौथे पार्ट मे तो पड़ना पड़ा होगा.
सारा विवरण एक फिल्म की तरह मजेदार लग रहा है ।
जारी रखिये शिखा जी ।
आपके दोनों संस्मरण पढ़े। अच्छे लगे। हमारी यही इच्छा है कि आप विस्तार से लिखें। तात्कालिक रूस के सामाजिक जीवन को और बारीकी से बरतें तो बेहतर। आपकी पिछली पोस्ट के संदर्भ में कहना चाहुंगा कि ईमानदारी से लिखा गया संस्मरण किसी भी उपन्यास जितना ही महत्वपूर्ण होता है।
अलबरूनी हो या वीएस नायपाल हों या विलियम डालरिम्पल या ऐसे ही कई और लेखक, सभी ने संस्मरण को एक उच्च विधा के रूप स्थापित किया है। हिन्दी में इस विद्या में पर्याप्त लेखन नहीं हुआ है इसलिए आपका यह प्रयास हिन्दी को जरूर समृद्ध करेगा।
बहुत ही रोचक लगा, संस्मरण का यह भाग…लेखनी खुल रही है धीरे-धीरे…और आनंद आ रहा है पढने में.
सीट पाने की बड़ी नायाब तरकीब थी वो तो …:)
पर यहाँ अब तो बड़े -छोटे सब कानो में हेडफोन लगाए आँखें बंद किए बैठे रहते हैं….ना तो देखेंगे ना ही जगह देने की नौबत आएगी.
अच्छा चल रहा है, संस्मरण…जारी रखो, लिखना…इंतजार रहेगा
Shikaji…badaa hee aanand aa raha hai padhne me! Bina visa ke….!!Aap me daring bhee hai!
बहुत ही रोचक संस्मरण है,…
प्रेमरस.कॉम पर:
खबर इंडिया पर व्यंग्य – जैसे लोग वैसी बातें!
आपके संस्मरण बड़े सजीव होते हैं जो मुझ जैसे पाठकों को बांध कर उस जगह, परिवेश और वातवरण में ले जाकर सैर करा देते हैं।
6.5/10
रोचक & पैसा वसूल पोस्ट
जब किसी प्रवाहमय लेखन के उपरान्त यकायक क्रमशः अथवा किसी तरह का ब्रेक दिखने का पाठक को मलाल हो तो समझिये लिखना सफल हुआ. मुझे और पढने का मन हो रहा था.
ब्लॉग दुनिया में प्रशंसा का कोई भी महत्व नहीं होता … लेकिन इस बार यकीन करने में हर्ज नहीं.
एक मुख्य बात कहना भूल ही गया
अगर आप भाषा की गुणवत्ता भी सुधार लें तो वाकई चार क्या चालीस चाँद एक साथ झिलमिलायेंगे.
Kitana maza aaraha hai padhane me…jaldi break khatm kijiye na 🙂
तुम्हारे सस्मरण से हमारा भी ज्ञान का कुछ दायरा बढ़ रहा है. पुरानी यादों को इस तरह पिरो कर फिर से प्रस्तुत करना एक कठिन काम तो है ही लेकिन रुचिकर है. पहली किश्त नहीं पढ़ी इसलिए उसको बाद में . अगली काइन्तजार.
यह रहा हिंदुस्तानी दिमाग हा हा मजेदार !
यात्रा जारी रहे,आभार
लगे रहो मुन्ना भाई। बिना वीजा के ही निकल लिए? वाह आखिर फायदा उठा ही लिया? बढिया चल रहा है, उत्सुकता बनी हुई है।
सालो पहले एक फिल्म देखी थी DDLJ सब कहने लगे थे की ये तो अच्छा है भारत में बैठ कर ही पूरा यूरोप देख लिया | आज इतने सालो बाद ब्लॉग पर बैठ कर रूस घूम लिया | ये ज्यादा अच्छा था क्योकि फिल्म में हमने यूरोप को बस देख था पर इसे पढ़ कर लगा की जैसे वहा आप नहीं हम ही थे ओर हमने ही वहा की सैर की | अभी पहला भाग नहीं पढ़ा था अब पढ़ लेती हु कही कोई जगह छुट ना जाये |
बहुत ही रोचक संस्मरण है ।
बहुत ही रोचक संस्मरण है, मन में आगे पढने की इच्छा लगातार बनी हुई है… आगे की कड़ियों का इंतज़ार है…. पूरा रूस दिखा ही दें अब आप.. 🙂 मेरे ब्लॉग में इस बार आशा जोगलेकर जी की रचना |
सुनहरी यादें :-4 …
रोचक घटना
अच्छा लगता है रूस के बारे में पढना।
करीबन 25 साल पहले हमारे घर में सोवियत की बहुत किताबें आती थी। शायद बचपन में देखी रुस की सुन्दर सुन्दर तस्वीरों वाली पत्रिकाओं का प्रभाव है।
प्रणाम
Sikha……………..interesting!! sach me aapki lekhan me ek alag tarah ka aakharshan hota hai pathak ke liye…!! aapke through ham aage aur kahan kahan ki yatra karenge…:)
acchi laga aapka yeh sansmaran.
ho agar waqt kabhi to hamare blog par bhi aaiye,
bhule bisre geet ki tarah,yahan bhi khuch sunte jaaiye.
ज्ञानवर्द्धक संस्मरण। अगली कडी की प्रतीक्षा।
———
मिलिए तंत्र मंत्र वाले गुरूजी से।
भेदभाव करते हैं वे ही जिनकी पूजा कम है।
.
बढ़िया चल रहा है संस्मरण । ज्ञानवर्धक भी है।
.
इस सुन्दर संस्मरण की चर्चा
आज के चर्चा मंच पर भी है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/11/337.html
कई अच्छी और महत्वपूर्ण जानकारी
आपका लेखन बांधकर रखने वाला है.
सीट दे देने के पुण्य का पूरा लाभ मिलेगा जीवन में आपको।
bahut hee badhiya sansmaran…padhte huye laga jaise padh nahee balkee dekh raha hun…badhayi
रोचक संस्मरण साझा करने के लिए आभार. अगली किस्त का बेसब्री से इंतजार रहेगा.
सादर,
डोरोथी.
भारत में बैठ कर ही पूरा यूरोप देख लिया
बहुत बढ़िया संस्मरण
रोचक प्रस्तुतिकरण
दिल दिमाग एकदम रिफ्रेश हो गया…………………………….
संस्मरण लिखना भी एक कला है … रोचकता को बरकरार रखना आसान नहीं होता … प्रवास ले लाजवाब चित्र और दिलचस्प भाषा में आपके प्रवास का मज़ा ले रहा हूँ …
शिखाजी
बहुत अच्छा लग रहा है आपके साथ रूस में घूमना |अपने को बचाने के लिए अच्छे तरीके बताये है हाहाह
शिखाजी, पहली बार आपका संस्मरण पढ़ा और काफी जानकारियाँ भी मिली, बहुत अच्छा लिखा है।
रोचक और खूबसूरत संस्मरण….बधाई.
_________________
'शब्द-शिखर' पर पढ़िए भारत की प्रथम महिला बैरिस्टर के बारे में…
आपका सस्स्मरण रोचक ही नहीं , वरन् ज्ञानवर्धक भी है । अगले अंक की प्रतीक्षा रहेगी ।
रामेश्वर काम्बोज
shiha ji aapke sansmaran ko padhne ke saath bahut kuchh seekhne ko bhi mil raha hai. aage ki jigysa badhti hi ja rahi hai.bahit hibadhiya.
poonam
.तीसरे साल में पहुँचते पहुँचते मेरे लेख अमरउजाला, आज, और दैनिक जागरण जैसे समाचार पत्रों में छपने लगे थे …..
बधाइयां …..!!
जानती हूँ इसकी ख़ुशी …..
आज भी ढेरों कटिंग्स पड़ी हैं फाइल में …..
वो बड़ी बड़ी आँखें फाड़ कर उसे ऐसे घूरने लगा जैसे किसी दुसरे ग्रह के प्राणी का नाम ले लिया हो हम भी अपनी चादरों से मुँह निकाल कर उसे घूरने लगे,….
हा…हा…हा….बहुत खूब ……!!
आगे इन्तजार है ….!!
लेखन के प्रवाह ने संस्मरण को सजीव बना दिया है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
http://www.marmagya.blogspot.com
होरोशो बोत होरोशो….
हमेशा की तरह एक और शानदार, जीवन्त कड़ी.
बहुत बढ़िया संस्मरण
Hey there, I think your blog might be having browser compatibility issues. When I look at your blog site in Chrome, it looks fine but when opening in Internet Explorer, it has some overlapping. I just wanted to give you a quick heads up! Other then that, great blog!
Very interesting topic, regards for posting. “Time flies like an arrow. Fruit flies like a banana.” by Lisa Grossman.