जैसा कि आपने जाना कि अब जीविकोपार्जन के लिए हमने एक छोटी सी कंपनी में ऑफिस एडमिनिस्ट्रेटर /इन्टरप्रेटर की नौकरी कर ली थी .क्योंकि अब क्लासेज़ में जाना उतना जरुरी नहीं रह गया था.अब बारी थी स्वध्ययन की , अब तक जो भी पढ़ाया गया है उन सब को समझने की , समीक्षा करने की, पढाई हुई जानकारी का उपयोग करने की और अपने थीसिस के विषय के बारे में सोचने की. तो नौकरी के चलते हमने क्लासेज़ जाना थोड़ा कम कर दिया था और उसकी जगह मॉस्को की लेनिन लाएब्रेरी ने ली थी .जो एक सागर था जिसमें ना जाने कितने अमूल्य मोती और जवाहरात थे जिन्हें आपने ढूँढ लिया तो बस हो गए आप मालामाल .यह रूस की सबसे बड़ी और विश्व की तीसरी सबसे बड़ी लाएब्रेरी है जहाँ पूरे विश्व से 17.5 मिलियन किताबें उपलब्ध हैं .
लेनिन लाएब्रेरी और उसके आगे बैठे दोस्तोयेव्स्की.
अब जहाँ जिन्दगी आसान हो गई थी वहीँ अब पढाई गंभीरता से करने का समय भी आ गया था. अब तक के ३ साल में हमें लॉजिक से लेकर टी वी टेक्निक तक और फिलॉसफी से लेकर प्राचीन साहित्य तक सब कुछ पढाया जा चुका था और टीचर के आगे “रूसी भाषा ठीक से समझ में नहीं आई” का बहाना भी नहीं चलने वाला था.सो कुछ तकनीकि विषयों के साथ ही साहित्य के लिए अभी भी हम क्लासेज़, टीचर के लेक्चर और सेमीनार पर निर्भर करते थे. उसकी कई वजह थीं एक तो क्लासेज़ में टीचर को आपकी शकल दिखे तो उसे छात्र की नेक नीयति और गंभीरता .का एहसास होता है जो आपकी इमेज के लिए बहुत अच्छा होता है ,दूसरा टीचर के मुँह से निकली पंक्तियाँ अगर एक्ज़ाम्स में बोली जाएँ तो हर टीचर को गर्व और आत्म संतुष्टी की अनुभूति होती है और यह भी आपके लिए बहुत फायदेमंद रहता है. पर सबसे अहम् था हमारा अपना स्वार्थ क्योंकि साहित्य कहीं का भी हो रूसी भाषा में उसे पढना और समझना आसान कहीं से नहीं था . यूँ तो पुश्किन के लिए कहा जाता है कि उसने स्लावोनिक (प्राचीन रूसी भाषा.) से अलग मॉडर्न भाषा को अपनाया और उसे निखारा परन्तु हमारे लिए तो वह कवितायेँ पढना
ऐसा ही था जैसे कि नए नए हिंदी प्रेमी को बिहारी या कबीर पढने और समझने को कह दिया जाये.
या भले ही दोस्तोयेव्स्की को एक उम्दा मनोचिकित्सक की उपाधि दी गई हो कि उनकी रचनाओ में मानवीय स्वभाव को बेहतरीन तरीके से समझा गया. परन्तु हमें उनकी मानसिकता समझने में नानी -दादी सभी याद आ जाते थे.हाँ वही चेखोव को उनकी छोटी कहानियों की वजह से या टॉल्सटॉय को उनके यथार्थवादी अंदाज की वजह से समझना थोडा आसान अवश्य होता था. उसकी एक वजह यह भी थी कि टॉल्सटॉय हिन्दू धर्म,और अहिंसा से भी बहुत प्रभावित थे और युवा गांधी से भी, जिन्हें उन्होंने कुछ पत्र भी लिखे थे.वे पत्र १९१० के उनके पत्रों में शामिल हैं . .वैसे भी टॉल्सटॉय पर शेक्सपीयर का और बाकी योरोपियन लेखकों का भी बहुत प्रभाव था .( जैसे शेक्सपियर ही बड़ा समझ में आता था हमें 🙂 ).तो इसलिए सभी महान साहित्यकारों और उनकी महान कृतियों को समझने के लिए क्लास में जाना ही बेहतर समझते थे जहाँ अपने नाम के अनुरूप ही बहुत प्यारी सी हमारी साहित्य की अध्यापिका “गालूश्का “पूरी तन्मयता से हर कृति की व्याख्या किया करती थी. परन्तु सबसे ज्यादा आनंद हमें आता था प्राचीन ग्रीस का साहित्य सुनने में फिर वह चाहे “होमर ” का ओडेसी” हो या फिर कोई और उनकी भी हर प्राचीन रचना हमारे प्राचीन भारतीय साहित्य की तरह किंवदंतियों और लोककथाओं पर आधारित होती थीं लगभग हर कहानी में ही, हीरो का युद्ध के लिए अपनी नव प्रेमिका या पत्नी को छोड़कर चले जाना ,विछोह ,फिर युद्ध में लापता हो जाना उधर घर पर उसका बेटा या बेटी होना , फिर २० साल बाद एक जंगल में उनका मिलना और सच्चाई से अनजान अपने बेटी या बेटे से ही प्यार कर बैठना .फिर सच्चाई का पता चलना और फिर वही बिछोह की पीड़ा ..पता ही नहीं चलता था कि कौन किसका पिता और कौन किसका बेटा और ये सब बहुत ही जज़्बात और हावभाव के साथ हमारी प्यारी गालूश्का सुनाया करती थी और हम सब तब मुँह दबा कर हँसते हुए अपनी प्राचीन रचनाओं को भूल जाते थे जहाँ कभी किसी घड़े में से बालिका का जन्म हो जाता है. तो कहीं तालाब में नहाने गई नायिका सूर्य की किरणों से गर्भवती हो जाती है. कहीं माँ के कहने पर ५ भाई बड़ी ही दरियादिली से एक दुल्हन आपस में बाँट लेते हैं. खैर आज जो कुछ भी थोड़ी बहुत विश्व साहित्य की हमें समझ है सब हमारी उस अध्यापिका की बदौलत है. तब तो तुर्गेनेव, क्रम्जिन, दोस्तोयेव्स्की आदि आदि पर बहुत गुस्सा आता था.परन्तु आज जब यहाँ पुस्कालय में इन्हें ढूढने निकलती हूँ और हताशा मिलती है तो लगता है काश उस समय का थोडा और सदुपयोग कर लिया होता
क्योंकि मुझे लगता है कि किसी भी साहित्य को उसकी मूल भाषा में ही पढ़ा जाना चाहिए तभी साहित्य का मजा लिया जा सकता है .और यही वजह है कि बँगला साहित्य के प्रति गहरा आकर्षण होते हुए भी रविन्द्र ठाकुर की गीतांजली आज तक मैंने पढने की हिम्मत नहीं की. क्योंकि ज्यादातर अनुवादों में शिल्प और व्याकरण के चलते भावों से समझौता कर लिया जाता है.और इससे उस कृति की आत्मा ही नष्ट हो जाती है.
यह है गोर्की का गाँव
खैर यहाँ बात मेरी नहीं साहित्यकारों की हो रही थी वैसे बाकी जगह ( खासकर यूरोप में )भारत से इतर मैंने एक बात बहुत नोट की.कि वहां इन महान लेखकों और कवियों के जन्मस्थल को मूल रूप में ही संरक्षित करने की कोशिश कि गई है और उन्हें दर्शकों के ज्ञान वर्धन के लिए संघ्रालय सा बनाकर रखा गया है. इसी तरह रूस में भी सभी महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध रचना कारों के निवास स्थानों को बहुत खूबसूरती से संरक्षित किया गया है .जिसमें से पुश्किन और गोर्की के गाँवों की सैर हमने भी की .हालाँकि जाने क्यों गोर्की के उपन्यास मुझे बिलकुल भी आकर्षित नहीं करते परन्तु उनके गाँव को देखकर अजीब सी खुमारी महसूस की मैंने शायद वहां की स्वच्छ निर्मल हवा का असर था या फिर गाँव की पृष्ट भूमि और उसके प्रति मेरा असीमित लगाव .मेरे एक एल्बम में गोर्की टाउन का एक चित्र देखकर अभी कुछ दिन पहले एक मित्र ने एक चुटकी भी ली थी कि “कोई तो गोर्की को बोर कह रहा था “जो कि उनसे बातचीत के दौरान मैंने कहा भी था 🙂 .पर फिर मैंने यही कहा कि अब यह तो कोई जरुरी नहीं कि अगर कोई हमें बोर लगे तो उसके खूबसूरत घर हम चाय पीने भी नहीं जा सकते.:) क्या पता वहां का माहौल देखकर हमारा नजरिया कुछ बदल जाता .वैसे वहां जाने के बाद गोर्की की छोटी कहानियां मुझे अच्छी लगने लगी थी .अब चाय का क़र्ज़ भी तो निभाना होता है ना .:) बाकी चाय ब्रेक के बाद …:)
शिखा जी
लेनिन लाइब्रेरी और गोर्की के गांव की तस्वीरें भी अच्छी लगीं… बचपन से रूसी साहित्य पढ़ते आए हैं… एक अजीब-सा अपनापन लगा पोस्ट पढ़कर…आभार…
tumko padhte hue lagta hai gyaankosh se awgat ho rahi hun… sahi tarika hai, bahut saaree baaton se awgat karane ka
एक ही पोस्ट में इतनी बातें…और आपने इतनी किताबें पढ़ी हैं….जय हो.. 🙂
आपसे मैं रुसी भाषा सीखने वाला हूँ…जब भी आप वापस आयें 🙂
एकदम मस्त..मजेदार पोस्ट…
सच में आपके ज्ञान के आगे नतमस्तक हूँ…
बहुत सारा ज्ञान हमसे भी बाँटा, उसके लिए शुक्रिया…
Ek hi post mein aapne sixer mar diya. Bharat mein rahate hue bhi GORKI ka library aur gaon sab kuchh dekh liya.Mere liye yah saubhagya ki bat hai. Kas! mujhe aapke sath rahne ka awsar milta to bahut kuchh sikhne ko mil jata.Very informative post.mera dusara sansamaran EK PAL KA PAGALPAN Apke samipya -vodh ke liye intajar kar raha hai.Thanks.
एक बात तो है… कि आप संस्मरण एक्सपर्ट हैं…. क्या आप मोबाइल इनसाइक्लोपीडिया हैं? या फिर बीयुटी विद ब्रेन वाले लोग ऐसा ही लिखते हैं? कुछ तो है ज़रूर आप में….
रसप्रद वृतांत, नई जानकारियां अथाह भंडार!!
यह नन्हा दिमाग है तब तो उः हाल है ..एक से एक बढ़ कर संस्मरण लिख रही हो ….
बहुत सारी जानकारी देता लेख …पढाई के दिन पूरे उत्सव के साथ बिताये हैं ….गोर्की की छोटी कहानियां पसंद कर चाय का कर्जा तो उतार ही दिया …..
बहुत बढ़िया पोस्ट …लेखन शैली बहुत अच्छी लगी
रोचक एवं ज्ञानवर्धक संस्मरण . गोर्की और टालस्टाय की कुछ कहानिया तो पढ़ी है लेकिन आपके इस आलेख ने उनको और पढने के प्रति प्रेरित किया है . एक बात और की आप अपने विषयवस्तु में रोचकता का पुट ऐसे शामिल करती है की एक बार शुरू होने पर सामने पड़ी चाय कब ठंडी हो गयी पता नहीं चलता .ये भी सत्य है की लेखक की भावनाओ से केवल उसके मूल भाषा में लिखी पुस्तक से ही परिचय हो पाता है . यूनान की प्राचीन सभ्यता और आदि कवि होमर की ओडेसी एक दुसरे का पर्याय है .पढ़ते हुए हम मंत्रमुग्ध हुए .आभार .
बहुत अच्छी यादें संजोयीं हैं ।
महफूज़ की बातों से भी सहमत हूँ ।
उन बीते पलों को तन्मयता से जीते हुए लिखने में सचमुच आनंद आ रहा होगा…बहुत ही सुन्दर तरीके से लिखा संस्मरण.
मैने भी पढ़ा था…किसी ने किसी की कही बात दुहराई थी कि 'गोर्की' बोरिंग हैं…तभी मेरा मन हुआ था कि 'गोर्की' की पुस्तक 'मदर' के बारे में लिखूं…क्यूंकि वो मेरी बहुत ही पसंदीदा पुस्तकों में से एक है…और उसे कभी भी बोरिंग नहीं कहा जा सकता…जल्दी ही लिखती हूँ उसपर…कुछ पेंडिंग विषय पूरे हो जाएँ. ,पहले…वैसे अनुवाद अगर बहुत कुशलता से किया गया हो तो फर्क नहीं पड़ता.
दूरदर्शन की कृपा से चेखोव की कई कहानियो को देखा है काफी अच्छी लगी थी | उन्हें देख कर नहीं लगा की ये किसी भारतीय ने नहीं रुसी ने लिखा है | और अपने साहित्यकारों के जन्म स्थली का क्या हाल हम करते है बस पूछिये मत देखा कर रोना आयेगा | कबीर से लेकर भारतेंदु जी और प्रेमचंद्र तक न जाने कितने साहित्यकार बनारस से और उसके आस पास के ही है अब उनके बारे में क्या बताऊ |
अपना ज्ञान व भम्रण बाँटने के लिए धन्यवाद
मुझे मेरा बचपन याद आ गया. हमने भी बहुत सारी रूसी साहित्य पढ़ा है और उस देश को जान्ने की कोशिश की थी. उन दिनों सोसलिस्म का नशा चढ़ा हुआ था. सुन्दरआलेख. आभार.
बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
साहित्य पढ़ने का आनन्द मूल भाषा में ही है, अच्छा अनुवाद पर बयार तो अवश्य दे जाता है।
बहुत संजीदा ढंग से अन्जोया है आपने अपनी यादों को , दोस्तोव्य्हसकी तो कमाल के लेखक हैं ….बहुत जानकर पूर्ण संस्मरण …शुक्रिया
बड़ा ही सारगर्भित आलेख लिखा है आपने। पूरा विश्व साहित्य ही समेट लिया है अपने संस्मरण में। बीच-बीच में जो उपदेश देती गईं हैं उससे इस रचना का महत्व कई गुना बढ गया है। सच है कि साहित्य को उसकी भाषा में ही पढना चाहिए। पर कुछ अनुवाद मूल साहित्य से भी अच्छा लगने लगता है। और एक और संदेश बड़े काम का है कि हमेसा समय का सदुपयोग करना चाहिए वरना बाद में पछतावा होता है।
Ek hee post me itnee saaree baton se wabasta ho jatee hun,ki kya kahun!!Behad dilkash hai andaze bayan!
बहुत खूब। लगता है आपकी साहित्य की अध्यापिका "गालूश्का" की आत्मा आपके लेखन में उतर आती है। बहुत अच्छे और रोचक संस्मरण लिखे। आगे और लिखिये।
बहुत सी जानकारी समेटे है यह पोस्ट….. आभार साझा करने के लिए……
विमुग्ध हूँ आपकी लेखनी और अर्जित ज्ञान को सुन्दर तरीके बाँटने पर | वैसे तो सभी महिला ब्लागर बहुत अच्छा लिखती है और बड़े ही स्पष्ट विचार होते है रश्मिजी,शिखाजी ,वाणीजी ,दिव्याजी , अन्शुमालाजी ,मोनिकाजी बहुत अच्छा लगता है आप सबको पढना |एक ख़ुशी सी होती है |
लिखती रहे और हमे तृप्त करती रहे |
शिखा जी, संसमरन किसी भी व्यक्ति के क्यूँ न हों, पढने वाले को किसी न किसी मोड़ पर उसकी कहानी होने का आभास कराते हैं. रेडियो पर नाटकों की परम्परा को दूरदर्शन ने आगे बढ़ाया और चेखोव का नाम शायद इनमें अग्रगणी रहा. आपने फ्योदोर दोस्तोव्स्की, गोर्की, पुश्किन और प्रपितामह टॉल्स्टोय की चर्चा कर इस पूरे संसमरण को साहित्यिक बना दिया.
आपकी एक बात आज अपनी सी लगी कि बिना भाषा जाने वहाँ का साहित्य नहीं समझा जा सकता. मैंने बांगला भाषा लिखना पढ़ना सीखी ही इसीलिए वहाँ कि फिल्में और साहित्य को समझ सकूँ. सत्यजीत रे ने शतरंज के खिलाड़ी बनाने के बाद कहा था कि हिंदी में फिल्मनहीं बनाएँगे क्योंकि यह भाषा उनकोनहीं आती. लिखने लगा तो पोस्ट बन जाएगी. लिहाज़ा टिप्पणी को टिप्पणी ही रहने देता हूँ.
इसे रविवासरीय चर्चामंच पर लिया गया है … कृपया हौसला-आफ़ज़ाई करें।
अमूल्य,ज्ञानवर्धक संस्मरण।
एक बात बिलकुल सही कही आपने दी …किसी भी साहित्य को उसकी अपनी भाषा में पढ़ने का आनंद ही अलग है ..आपने नाम भी लिया तो गीतांजली का … गुलज़ार साब गीतांजलि को बंगला मे ही पढ़ना चाहते थे ..पर उन्हें बांगला आती ही नहीं थी …तब हृषी दा ने याँ शायद बिमल दा ने उनके लिए एक टीचर अपोइंट किया ..'राखी' और फिर गुलज़ार सब ने लाइफ की सबसे बड़ी गीतांजली पढ़ ली…. हेहेहे
गोर्की बोर नहीं है… मैंने गोर्की की कुछ कहानियां और 'मदर' पढ़ा है ..ज्ञान का भंडार हैं…
बहुत उम्दा पोस्ट है दी …लव्ड इत
… sundar va bhaavpoorn post !!!
मेरे ब्लॉग पर
पहचान कौन चित्र पहेली …
अच्छी जानकारी , अच्छा विवरण ,मेक्सीम गोर्की के गांव की फ़िज़ा आपके साहित्यिक लगन को हमेशा महकाती रहेगी।
मुझे तो गोर्की ही पसंद है ..सबसे अधिक …बढ़िया पोस्ट …
kaljai lekhkon ke bare me jankari dene ke liye aabhar with regards
सस्मरण दिलचस्प लगा जी…….
रुसी लेखकों ख़ासकर करके गोर्की, चेखोव जैसे लेखकों की कहानिया अनुवाद के माध्यम से हिंदी में उपलब्ध है और सभी बहुत ही अच्छी है. आपका बहुत ही अच्छा संस्मरण जारी है.
किसी भी लेखक की रचना को उसकी मूल भाषा में पढने का आनंद कुछ और ही है। अगर उस भाषा की समझ हो तो।
शिखा जी सुंदर संस्मरण के लिए आभार
बहुत सुन्दर संस्मरण्…………अच्छा लगा पढकर्।
नई जानकारियां अथाह भंडार,आभार!
मुझे लगता है कि किसी भी साहित्य को उसकी मूल भाषा में ही पढ़ा जाना चाहिए तभी साहित्य का मजा लिया जा सकता है
बहुत सही. मुझे भी ऐसा ही लगता है. लेकिन मजबूरी में हिन्दी या अंग्रेज़ी अनुवाद पढने ही पड़ते हैं. हमेशा की तरह सुन्दर संस्मरण.
हमारे लिए तो आपकी पोस्ट जानकारियों का भण्डार लगी!
shikha ji,
bahut saari jaakaari mili, bhraman kee aur aapke sansmaran padhi. bahut rochak tarah se aapne likha hai, shubhkaamnaayen.
रोचक संस्मरण………… अच्छा लगा पढकर्।
सहमत हूँ आपकी इस बात से कि साहित्य को मूल भाषा में ही पढ़ा जाना चाहिए … साहित्य की आत्मा भाषा में छुपी होती है … आपका संस्मरण बहुत दिलचस्प है … जान कर आश्चर्य होता है १७.५ मिलियन किताबें है लेनिन लाइब्रेरी में …
बहुत सारी बाते टिप्पणियों में आ चुकी है। बस संस्मरण रोचक भी था और ज्ञानवर्द्धक भी।
रोचक संस्मरण!
आभार!
बहुत बढ़िया पोस्ट
बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
सारगर्भित आलेख, लेनिन लाइब्रेरी और गोर्की के गांव की तस्वीरें अच्छी लगीं.ज्ञानवर्धक संस्मरण।
बहुत अच्छा संस्मरण है …उस पर आपकी शैली वाकई बहुत अच्छी है..अच्छा लगा पढ़कर
तुम्हरी पोस्ट पर बाद में लिखूंगी …पहले शोभना जी की तारीफ को एन्जॉय कर लूं …:):
सचमुच तुम्हरे संस्मरण इतनी सहजता से लिखे होतेहैं कि हम मूढ़ मतियों का का भला हो जाता है …साहित्य जैसे नीरस (मुझे नहीं लगता है भाई , मैं दूसरों की बात कह रही हूँ ) विषय को बहुत दिलचस्प लिखा …
ओरिजनल भाषा में ही पढने की इच्छा रखे तब तो हम पढ़ लिए , क्यूंकि अपने अकेले एक देश की इतनी भाषाओँ का इतना समृद्ध साहित्य है कि कितना भी पढ़े , सागर की एक बूँद जैसा ही लगता है …रुसी संस्कृति से मेरा परिचय सोवियत नारी और सोवियत रूस पत्रिकाओं के मध्यम से बहुत बचपन से रहा है,ऐसे में तुम्हरे मार्फ़त विदेशी साहित्यकारों और सहित्य के बारे में जानना बहुत अच्छा लगा ..
kya khoob sansmaran hai….aapke likhne ki stye to kamaal hai…
अपके संस्मरण पडःाते हुये पता ही नही चलता कब समाप्त हो गया। रोचकता के लिये बधाई। गोर्की के गाँव की तस्वीरें बहुत अच्छी लगी। शुभकामनायें।
शिखा ,
बहुत बेहतर ढंग से अपने संस्मरण प्रस्तुत कर रही हो. इससे हम भी बहुत सी दूर देश की बातों से परिचित हो रहे हैं. अनुदित रचनाओं में यही होता है की शायद वे शब्द जो हमें उस भाषा में अंतर को छू रहे हो हम उन तक पहुँच ही न पायें क्योंकि अनुवादक और लेखक दोनों में साम्य हो ये जरूरी नहीं है.
बेहतरीन संस्मरण..आनन्द आ गया…तस्वीरें भी पसंद आई..इसी बहाने लेनिन लाइब्रेरी देख ली.
आपका रोचक संस्मरण जानकारियों का खज़ाना है !
अगले अंक की प्रतीक्षा है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
वैसे मेरा मन था कि इसे पढ़ के चुपचाप निकल जाऊं…क्यूँकि सबने इतना कह दिया है…एक और "बहुत अच्छा" क्या कर लेगा?
लेकिन, आप जब-जब रूस ले जाती हैं…शुक्रिया कहना तो बनता है..:)
कॉलेज में एक रूसी आता था, जो कोलकाता में रहता था, बहुत बांग्ला और रूसी (कुछ रूसी में भी) किताबें लीं मैंने हमेशा…ये जरुर है कि रूसी में लिखी अब तक पढ़ नहीं पाया हूँ.
पर ये तो सही है कि हर चीज अपने मूल में ही सबसे ज्यादा फबती है…
चेखोव और गोर्की के जरा और नजदीक ले जाने का…फिर से शुक्रिया 🙂
yadon ke panno se itihaas ke panno ka rasaswadan bahut achha laga,
likhte rahiye
shikha ke sansmaran…..socha ek baar fir se pakna parega……khud to M. GORKI ke ghar chai pee kar aa gaee, aur hame cup tak nahi dikhaya…..:P
apart from joke, ek baar fir puri post ek baar me padh gaya, aur bahut kuchh naya hi jana……..ham jaise samanya log kahan russian literature ke baare me padhte……….thanx…
jaandar-shandar post..
ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आपका बहुत शुक्रिया. आपका अंदाज भी पसंद आया . शुभकामना
शिखा जी, रोचक…ज्ञानवर्धक संस्मरण है…
और आपका प्रस्तुतिकरण बहुत शानदार है.
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वाओ….!!एकदम मस्त पोस्ट….शिखा….. अपने अंदाज़े-बयान,जानकारी और इतिहास से पुष्ट…..सचमुच स्पंदित किया है इसने मुझे ….बढ़िया है…इसी तरह लिखती रहो….और हम शब्दों के भुक्खड़ों की क्षुधा शांत करती रहो…..!!!आमीन…..!!
आपके संस्मरण अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब हैं ! शुभकामनायें स्वीकारें विदुषी शिखा !
जिन बड़े-बड़े लेखकों के बारे में सिर्फ पढ़ते सुनते आये हैं उनको आपने उनके गृह देश-प्रदेश-नगर में जाकर समझने की कोशिश की…. हवाओं की महक जरूर कहती होगी कि ''यहाँ कभी गोर्की/ टॉलस्टोय/ दोस्तोयेव्स्की रहे थे..'' जलन हो रही है थोड़ी सी.. 🙂
aapka aalekh padhkar bahut saari baate jinse abhi tak anbhigy thi jaan saki .aapne itne vistrit dhang se ise
samjhaya hai ki ab aage bhi aapse bhut kuchh seekhne v jaankaari lene ki jigysa badh gai hai..bahut hi behtareen avam prabhavpurn aalekh.
badhai
poonam
Nice post .
औरत की बदहाली और उसके तमाम कारणों को बयान करने के लिए एक टिप्पणी तो क्या, पूरा एक लेख भी नाकाफ़ी है। उसमें केवल सूक्ष्म संकेत ही आ पाते हैं। ये दोनों टिप्पणियां भी समस्या के दो अलग कोण पाठक के सामने रखती हैं।
मैं बहन रेखा जी की टिप्पणी से सहमत हूं और मुझे उम्मीद है वे भी मेरे लेख की भावना और सुझाव से सहमत होंगी और उनके जैसी मेरी दूसरी बहनें भी।
औरत सरापा मुहब्बत है। वह सबको मुहब्बत देती है और बदले में भी फ़क़त वही चाहती है जो कि वह देती है। क्या मर्द औरत को वह तक भी लौटाने में असमर्थ है जो कि वह औरत से हमेशा पाता आया है और भरपूर पाता आया है ?
आपकी याददास्त की दाद देती हूँ ….
इतने सालों की बातें आप यूँ उतारती हैं जैसे क़ल का ही किस्सा हो …..शानदार लेखन …..!!
आगे दीपक मशाल जी की टिपण्णी को हमारी समझें …..!!
wakai padhakar aanad ki anubhuti hui aur kaphi kuch jaanane ko mila…thanks…
एक ब्लॉग है "पुश्किन के देश में" वो भी पढ़ा करें…
आपने अनजाने ही इन दो महान साहित्यकारों के उपन्यास वार एण्ड पीस एवं मदर की याद दिला दी। आगे की कडी की भी प्रतीक्षा रहेगी।
———
त्रिया चरित्र : मीनू खरे
संगीत ने तोड़ दी भाषा की ज़ंजीरें।
aapka blog padhkar hum to aapke fan hi ho gaye hai.
dhanyvaad
main blogger par naya hoon lekin thoda bahut likhne ki gustaakhi kar leta hoo.
so plz aap mere blogs par apni nazar jaroor daalein aur apne comment dekar mujhe aage likhte rahne ke liye prerit karein .
my blogs are:- samratonlyfor.blogspot.co
reportergovind.blogspot.com
thanx
चेखोव की कहानियाँ गूगल पर सर्च करते करते आपके ब्लॉग पर पहुँच गया। बचपन से रूसी किताबें पढ़ते आए हैं और रूस मुझे अपना दूसरा घर ही लगता है। शहरों के नाम, लोग, इतिहास सब अपने से लगते हैं। अभी अभी टोल्स्तोय का युद्ध और शांति समाप्त किया है। 17 वर्ष पूर्व खरीदा था लेकिन पढ़ाई, कैरियर और ज़िंदगी की जद्दोजहद में कभी चार किताबों में फैले इस महाकाय उपन्यास को नहीं पढ़ा। आज जब जिंदगी का ढर्रा निश्चित हो गया है तो फिर उठाया और पढ़ा। अद्भुत। हम तो अनुवाद भोजी ही हैं और यह सही है की साहित्य मूल भाषा में अधिक सारस होता है लेकिन यदि अनुवादक अच्छा हो तो यह कमी पूरी हो जाती है। आप अच्छा लिखतीं हैं।
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