मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी
अभी तक आपने पढ़ा कि कैसे हमारा वेरोनिश से मॉस्को जाना तय हो गया था और हम हंसी ख़ुशी तैयारियों में लग गये थे कि चलो अब कम से कम इंडिया की टिकट के लिए मॉस्को के चक्कर लगाना तो बचेगा..पर नहीं जी अगर इतना आसान सब हो जाये तो भगवान को पूछेगा ही कौन ? असली तूफान आना अभी बाकी था. मॉस्को तो हम एक सह्रदय सीनियर की मेहरबानी से पहुँच गए परन्तु वहाँ जाकर पता चला कि रशिया की बदलती इकोनॉमी के चलते हमारे बैच के सभी छात्रों की मुफ्त पढाई ख़तम कर दी गई है.रूबल का मूल्य अचानक 17 से गिरकर 5oo पर आ गया था ५०० रूबल की एक ब्रेड आती थी .इन परिवर्तनों के चलते बिना फीस दिए दाखिला देने से मना कर दिया गया है .अब अगर दाखिला नहीं तो होस्टल भी नहीं और होस्टल नहीं तो रहने की कोई जगह नहीं ..कुछ लोगों के वहाँ कुछ जान पहचान के लोग थे, वो वहाँ टिक लिए और कुछ ने अपना जुगाड़ कहीं ना कहीं पेइंग गेस्ट के तौर पर कर लिया था .पर हम ४-५ लोगों को कहीं पनाह नहीं मिली और कोई चारा ना देख हमने अपना सामान ट्रेन स्टेशन के लॉकर रूम में रख दिया .और वहीँ स्टेशन की बैंच पर डेरा डाल दिया . अब रोज़ सुबह उठते वहीँ स्टेशन पर हाथ मुँह धोते और निकल जाते अपने ओर्ग्नाइजर्स से मिलने, दिन भर वहीँ भटकते स्ट्रॉबरी और चेरी खाते ( शुकर है गर्मी के दिन थे और कम से कम ये वहाँ मिलता था ) और दिन ढलते अपने बैंच पर आ जाते .ये वो दौर था जब रशिया के घरों में ” मेरा जूता है जापानी ” और ” आई ऍम ए डिस्को डांसर” बजा करता था लोग अपने नेता को जानते हो ना हों पर राज कपूर को जानते थे ..और उसी का फायदा हिन्दुस्तानियों को मिल जाता था ..मकान मालिक कोई उम्रदराज़ महिला हुई तो हम लोग बाबूश्का ( दादी माँ ) कह कर प्यार से उसे मना लेते थे ..क्योंकि उनके पोता -पोती तो शायद ही कभी उनसे प्यार से बतियाते… तो २-३ दिन स्टेशन के ही मेहमान बनने के बाद हमें भी एक जगह पेइंग गेस्ट के तौर पर जगह मिल गई और फिर शुरू हुआ संघर्ष का दौर .
.हमने ये ठान लिया था कि पैसे देकर हम यहाँ नहीं पढेंगे.. उस पर १ साल में घर वाले भी हमें याद करके हलकान हो रहे थे. उन्होंने भी कह दिया कि बेटा वापस आ जाओ यही समझ लो घूम लिया रशिया और एक भाषा सीख ली.सो हमने सोचा कि जब तक जेब में पैसे हैं कोशिश करते हैं नहीं तो वापस चले जायेंगे ..पर आपका दाना पानी जहाँ जब तक बंधा है उससे कोई पार नहीं पा सकता तो हमें कुछ और दिनों की मशक्कत के बाद मॉस्को यूनिवर्सिटी द्वारा अपना लिया गया शायद हमें अपने विषय की अकेली छात्रा होने का लाभ मिला ..बाकी सब को फीस भर कर पढाई पूरी करनी पड़ी और कुछ लोग जो ऐसा नहीं चाहते थे वापस भी चले गए .
हमारा होस्टल “DAS.”
दाखिला मिलने के साथ ही हमें होस्टल में जगह मिल गई और हमारी जिन्दगी कुछ ढर्रे पर आई .और हम जिस कारण के लिए वहाँ गए थे तो उसे पूरा करने में लग गए. नियम से कॉलेज जाते …जो हमारे होस्टल से करीब १ घंटा लगता था पहले ट्राम और फिर मेट्रो से, और फिर होस्टल आकर शब्दकोष लेकर गोर्की की “माँ ” या दोस्तोयेव्स्की के “idiot ” को समझने बैठ जाते
दाखिला मिलने के साथ ही हमें होस्टल में जगह मिल गई और हमारी जिन्दगी कुछ ढर्रे पर आई .और हम जिस कारण के लिए वहाँ गए थे तो उसे पूरा करने में लग गए. नियम से कॉलेज जाते …जो हमारे होस्टल से करीब १ घंटा लगता था पहले ट्राम और फिर मेट्रो से, और फिर होस्टल आकर शब्दकोष लेकर गोर्की की “माँ ” या दोस्तोयेव्स्की के “idiot ” को समझने बैठ जाते
..हमारे अलावा वहां और भी कई हिन्दुस्तानी थे जिन्हें हम किसी एलियन से कम नहीं लगते थे..उन्हें समझ नहीं आता था पहले साल में इतनी गंभीरता से पढाई करने का क्या मतलब ?…पर भला हो हमारी सद् बुद्धि का .. वो पहले साल का पढ़ा हुआ हमारे बहुत काम आया और बाद में दोस्तों के साथ रात को २ बजे तक मस्ती और सुबह की क्लासेज़ मिस करने के बाबजूद हम अपना लक्ष्य पाने में कामयाब रहे. कहते हैं ना नींव मजबूत हो जाये तो इमारत आराम से खड़ी हो जाती है .और पहला इम्प्रेशन अच्छा पड़ जाये तो बाकी की जिन्दगी भी आसान हो जाती है.वैसे भी बदलते हालातों में स्कॉलरशिप तो नाम की मिलती थी जिससे महीने की ब्रेड ही खाई जा सकती थी इसलिए फैकल्टी जाने के अलावा कभी कभी हम पार्ट टाइम जॉब भी कर लेते थे जैसे अनुवादक का , और इसी के तहत एक बार मॉस्को रेडियो में भी ब्रॉडकास्टर का काम किया. वैसे हमारे होस्टल के बहुत से मित्र कॉलेज “आई टोनिक” लेने भी चले जाया करते थे और सारा दिन वहां सीड़ियों के पास खड़े होकर प्रेम से बिता दिया करते थे.
वो महान सीडियां जहाँ आइटोनिक मिलता था .
“जर्नलिज्म फैकल्टी ” मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी की ऑरिजनल और सबसे पहली बिल्डिंग
हमारे होस्टल में और भी बहुत हिन्दुस्तानी थे बहुत अच्छे दोस्त भी बन गए थे .फिर भी हम अपने होस्टल में कम और पास के मेडिकल वालों के होस्टल में ज्यादा रहा करते थे ..उसकी वजह थे दो मॉन्स्टर्स….मेरी दो सहेलियां
वो महान सीडियां जहाँ आइटोनिक मिलता था .
“जर्नलिज्म फैकल्टी ” मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी की ऑरिजनल और सबसे पहली बिल्डिंग
हमारे होस्टल में और भी बहुत हिन्दुस्तानी थे बहुत अच्छे दोस्त भी बन गए थे .फिर भी हम अपने होस्टल में कम और पास के मेडिकल वालों के होस्टल में ज्यादा रहा करते थे ..उसकी वजह थे दो मॉन्स्टर्स….मेरी दो सहेलियां
जो बहाने- बहाने से हर दूसरे दिन मुझे बुला लिया करती थीं और अपने मेडिकल के लेसन सुना सुना कर पकाया करती थीं . मुझसे बिना पूछे उनके हर आयोजन -समारोह में मुझे शामिल कर लिया जाता था और फरमान आ जाता था तू नहीं आएगी तो हम भी नहीं जायेंगे बस…मरता क्या ना करता जाना पड़ता था मुझे, उस बदबूदार होस्टल में, जहाँ बाथरूम और टॉयलेट दोनों कॉमन थे. जबकि हमारा होस्टल किसी होटल से कम नहीं था एक कमरे में बेशक ३ लोग थे पर अलग टॉयलेट और बाथरूम था अटैच …पर दोस्ती की खातिर क्या नहीं करना पड़ता.. कई बार मैं उनकी प्रेक्टिकल क्लास में भी चली जाती थी और वहां उन्हें किसी के हाथ या किसी के घुटने से खेलते देख मुझे बड़ा मजा आता था.. उनकी बकवास सुन सुन कर पूरा या आधा नहीं तो चौथाई डॉक्टर तो मैं भी बन ही गई थी.
बहुत मस्ती भरे दिन थे रात रात भर पार्टी करना.. नाचना गाना और फिर दिन भर सोना ..और फिर क्लास में जाकर रोना 🙂 -३०- -३५ डिग्री की जमाऊ ठण्ड में जब नाक का पानी तक जम कर कड़ कड़ करने लगता था ..ऐसे में में लद फद के कॉलेज जाना और जरा सा सूरज चमकते ही दांत फाड़कर दिखाना कि दांतों के लिए बिटामिन डी बहुत जरुरी है .
दिवाली हो या न्यू इयर एक जैसा सेलेब्रेशन …डांस और खाना ..खाने में भी ..चिकेन ,चावल, ब्रेड और स्तालीच्नी सलाद (रशियन सलाद ) और कभी कोई लायक मेम्बर मिल जाये तो गुलाबजामुन.. सेट मेन्यु हुआ करता था …एक बार तो न्यू इयर पर हम तीन सहेलियां ३ दिन तक नाचती रहीं ..नाचते , खाते , सो जाते फिर उठते, खाते और नाचने लग जाते ..वहां लोगों को हमारे बिन पिए इस स्टेमिना पर बहुत आश्चर्य होता था ,वैसे इस पीने – पिलाने की वजह से कई बार बहुत मुश्किल खड़ी हो जाती थी.वहां तो हर मर्ज़ का इलाज़ बस वोदका था..जुखाम हो गया ..एक ढक्कन वोदका ले लो,…बुखार हो गया वोदका पी लो,…एक्जाम में नंबर . कम आये वोदका है …और किसी की ख़ुशी में जाकर वोदका का टोस्ट नहीं किया तो वो नाराज़ ..ऐसे में हिन्दुस्तानी दोस्त तो समझते थे पर रशियन मित्रों को समझना संभव नहीं होता था और ऐसे ही समय काम आते थे अपने भारतीय मित्र जिनके ग्लासों में बड़ी चतुराई से उलट दिया करते थे हम अपनी वोदका .
वैसे ये बात मानने वाली है कि जुगाड़ में और हालातों से लड़ने के मामले में हिन्दुस्तानियों का कोई सानी नहीं होता .उस समय भारत में मेक्डोनल्स या ऐसी कोई भी जगह नहीं थी ..और मोस्को में भी गिन कर एक “मैक डी” था जहाँ कड़कती ठण्ड में भी २ घंटे की लाइन लगा करती थी ..पर मजाल है कोई भारतीय कभी लाइन में लगा हो. बड़े प्यार के साथ कोई एक प्रवाह के साथ आगे घुस जाता था और फिर उसके पीछे सारा ग्रुप 🙂 और वहां जाकर बड़े गर्व से फ़रमाया जाता “बिग मैक बिना मीट का” …बेचारे वहां काम करने वाले परेशान हो जाते थे कि मीट नहीं तो क्या डालें उसमें ..और हम “बिग मैक” के पैसों में बस बन में पत्ते और सौस डाल कर बड़े चाव से खाया करते 🙂 हालाँकि ये शुरू शुरू की ही बात थी थोड़े समय बाद ज्यादातर हर कोई मांसाहारी हो ही जाता था.हाँ छुट्टी पर भारत से आने वाले के हाथ ,मूली ,गोभी के परांठे जरुर मंगाए जाते थे और ये कहने की जरुरत नहीं कि उनपर लाने वाले का कोई हक़ नहीं होता था.
इससे आगे की कुछ बातें और हमारी पढाई पूरी करने की दास्तान आप ” यहाँ “पढ़ सकते हैं .
और इस तरह कभी ठण्ड में सिकुड़ते कभी गर्मियों में सिकते ,कभी रात भर नाचते तो कभी इम्तिहान में रोते …हमारे पोस्ट ग्रेजुएशन के वो ५ साल तो ख़तम हो गए.और हम स्वर्ण अक्षरों से युक्त अपनी डिग्री लेकर सकुशल भारत लौट गए..
पर नहीं ख़तम हुई वो सुनहरी यादें ,वो मस्ती के दिनों की कसक ,वो थोड़े में ही खुश रहने का जज़्बा और अपनों से दूर गैरों को अपनाने की ख्वाहिश …रूसियों को चाहे कोई कुछ भी कहे आज, पर हमारे दिलों में वे एक भावपूर्ण ,संवेदनशील और अपनेपन से लबरेज़ कौम है जो प्यार के दो शब्दों से पिघल जाया करती है …क्या कभी भूलेंगे हम उन बाबूश्काओं को ?जो हमें होस्टल के कैफे से प्लेट चुराते देखने के वावजूद नजरअंदाज कर दिया करती थीं और बाद में प्यार से धमकी दिया करती थी अगली बार ऐसा किया तो ज़ुर्माना लगेगा. जो कभी नहीं लगता था .ना जाने कितनी ही बार सिर्फ भारतीय होने के कारण टैक्सी वाला हमसे पैसे नहीं लेता था और सारा रास्ता “मेरा जूता है जापानी” सुनाता जाता था.हमारे होस्टल की रूसी लडकियां जो अपना काम छोड़ कर हमारी मदद किया करती थीं और हमारी पार्टियों में बड़े शौक से साड़ी पहनने की ख्वाहिश करती थीं :).कितनी ही खुशनुमा यादें हैं जिन्हें चाहूँ भी तो कभी पूरा नहीं लिख पाऊँगी.. इसलिए मैं बस इन पंक्तियों के साथ समेटती हूँ –
पर नहीं ख़तम हुई वो सुनहरी यादें ,वो मस्ती के दिनों की कसक ,वो थोड़े में ही खुश रहने का जज़्बा और अपनों से दूर गैरों को अपनाने की ख्वाहिश …रूसियों को चाहे कोई कुछ भी कहे आज, पर हमारे दिलों में वे एक भावपूर्ण ,संवेदनशील और अपनेपन से लबरेज़ कौम है जो प्यार के दो शब्दों से पिघल जाया करती है …क्या कभी भूलेंगे हम उन बाबूश्काओं को ?जो हमें होस्टल के कैफे से प्लेट चुराते देखने के वावजूद नजरअंदाज कर दिया करती थीं और बाद में प्यार से धमकी दिया करती थी अगली बार ऐसा किया तो ज़ुर्माना लगेगा. जो कभी नहीं लगता था .ना जाने कितनी ही बार सिर्फ भारतीय होने के कारण टैक्सी वाला हमसे पैसे नहीं लेता था और सारा रास्ता “मेरा जूता है जापानी” सुनाता जाता था.हमारे होस्टल की रूसी लडकियां जो अपना काम छोड़ कर हमारी मदद किया करती थीं और हमारी पार्टियों में बड़े शौक से साड़ी पहनने की ख्वाहिश करती थीं :).कितनी ही खुशनुमा यादें हैं जिन्हें चाहूँ भी तो कभी पूरा नहीं लिख पाऊँगी.. इसलिए मैं बस इन पंक्तियों के साथ समेटती हूँ –
यादों कि सतह पर चढ़ गई हैं
वक़्त की कितनी ही परतें
फिर भी कहीं ना कहीं से निकलकर
दस्तक दे जाती हैं यादें
और मैं मजबूर हो जाती हूँ
खोलने को कपाट मन के
फिर निकल पड़ते हैं उदगार
और बिखर जाते हैं कागज़ पे
सच है
गुज़रा वक़्त लौट कर नहीं आता
गुज़रा वक़्त लौट कर नहीं आता
पर क्या कभी भूला भी जाता है ?
सस्मरण तो हमेशा की सी ही रोचकता बनाये रखे था… भारतीयों के लिए रूसी भाइयों के दिल में सम्मान जान खुशी हुई.. लेकिन सबसे ज्यादा पसंद आई आज कि कविता..
सच कहा और सही कहा …………………।यादें ऐसी ही होती हैं कितना भी वक्त के पर्दे मे दब जाये मगर जुदा कभी नही होतीं………………बेहद सुन्दर संस्मरण्।
बहुत मस्ती भरा संस्मरण है ,और आपकी लेखनी हमको भी साथ जीने का मौक़ा दे रही है ….
एक मिनट रुक जाइए..मैं मॉस्को से हिंदुस्तान वापस आ जाऊँ तो कुछ लिखूँ… स्ट्रगल की गल सुनकर तो मन बैठ गया… लेकिन आज उसका अंजाम देखकर ख़ुशी होती होगी आपको भी… राज कपूर जी की बात से एक वाक़या याद आ गया कि मशहूर अंतरिक्ष यात्री यूरी गगरीन जब राज कपूर से मिले तो उन्होंने कहाथा “आवारा हूँ!”
बहुत अच्छा लगा!!
गुज़रे वक़्त को पल पल जिया है तभी संजो पायी हो
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सुन्दर संस्मरण, ऐसा लगा जैसे चित्र आँखों के सामने से गुजर गए. आपका स्टेशन पर ३ दिन बिताना, एक साहसिक निर्णय और प्रेरक लगा कुछ कर गुजरने के लिए. पेरेस्त्रोइका के बाद या दुसरे शब्दों में पूर्व सोवियत संघ के बिखरने के बाद , भारत और रूस के संबंधो में ठहराव आ गया , उसका कारण उनका साम्यवाद की लीक से हटना या फिर भारत की नीतियों में पश्चिम का महत्व हो सकता है. सचमुच यादो पर समय की कितनी भी मोटी धूल की पर्त पड़ी हो, वो गाहे बगाहे मन के कपाट पर दस्तक दे ही जाती है.
शिखा दी, भींगा दिया आपने आज यादों की बारिशों में…कविता तो बहुत प्यारी है :)…
ये तो सुना ही था की रशिया में राजकपूर एक लिजेंड हैं, ये भी पता था की हिंदुस्तानिओं की इज्जत भी की जाती है, आज आपके पोस्ट से अच्छे से पता चला 🙂
मैक डी वाली बात मस्त कही 😛 और आपका होस्टल तो शानदार दिख रहा है…काश हमारा होस्टल भी ऐसा ही होता 😉
कितनी बातें बता दी आपने एक ही पोस्ट में, एक बार फिर से पढ़ने जा रहा हूँ ये पोस्ट 🙂
बाई द वे, आई टोनिक मतलब?? 😛 Explain plzz 😛
और स्टेशन पे तीन दिन बिताना…daring काम है, लेकिन ऐसे चीज़ों का अलग ,मजा है, ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी हुआ है, कभी बताऊंगा ब्लॉग पे 🙂
Kavita ne aankhon me nami laa dee..behad sundar rachana..
sansmaran ne meri bahut priy saheli Madhu Sharma( Rakesh Sharma kee patnee) kee yaad dila dee…kuchh saal poorv unhen Moscow me nimantrit kiya tha…usse maine wahan kee sthiti suni thi..
Abhi!…तुम्हें सच में नहीं पता आई टोनिक ? च च च …मतलब वहां सीडियों से फेकल्टी की हरयाली दीखती थी ,जो आँखों के लिए टोनिक का काम करती थी .समझ गए ? 🙂
संस्मरण पढ़ कर मैं तो अभी तक बैंच पर ही अटकी हुई हूँ ….कैसे बिताये होंगे वो दिन ?..
यादों को बहुत सुन्दर तरीके से संजोया है …और चित्रों ने और सुन्दर बना दिया है लेख को …
जो भी हो कॉलेज की यादें भुलाए नहीं भूलतीं …
संक्रमण के समय जीवन और अध्ययन को निभा ले जाना बहुत साहस का कार्य है। अच्छा लगा पढ़कर।
शिखा जी
बेहद रोचक संस्मरण रहा। मैं यही सोंच रहा हूं कि अगर रशिया में ब्रेड नहीं होती तो क्या आपका जर्नलिजम पुरा हो पाता ?
स्टेशन पर बिताये दिन वो भी मस्ती से आईसक्रीम खाते हुए बाकई काफी रोमांचक रहें होगें .
बड़ा ही सुंदर चित्रॊं से सजे इस संस्मरण को पढते हुए आपके साथ जीवन के हर पल का आनंद मिला है। गहरे विचारों से परिपूर्ण यह संस्मरण मन को स्फूर्तिमय बना गया।
देसिल बयना-खाने को लाई नहीं, मुँह पोछने को मिठाई!, “मनोज” पर, … रोचक, मज़ेदार,…!
आज यादों के सुमन खिले,
अनुभव का है खुला आगार।
संस्मरण पढके आनंदित हुए,
सुन्दर शब्दों की हूई बौछार।
राम राम
मस्त रहा यह संस्मरण. मन लगा कर लिखा है…
बहुत ही सुन्दर पोस्ट है शिखा जी आपकी.
वो परेशानियाँ, वो आपकी बोल्डनेस और सबसे बड़ी बात आपका " लक " जिसने आपका साथ दिया और आप डिग्री-धारी बन कर शान से घर लौटीं उन खूबसूरत यादों के साथ जिन्हें पढ़कर हम भी खुश हो रहे हैं.
बधाई.
– विजय तिवारी " किसलय "
वाह क्या संस्मरण रहा, बस में बैठे बैठे मोबाईल पर पढ़ा आज मजा आ गया, टिप्पणी देने के लिये घर तक आने का इंतजार करना पड़ा।
ये स्टेशन की बेंच और विद्यार्थियों का रिश्ता लगता है हर जगह और हर समय रहता है..मेरे भाई ने भी अपने दोस्तों के साथ पूरे एक महीने स्टेशन की बेंचों पर बिताए थे,वह भी इंजीनियरिंग कॉलेज के हॉस्टल में कमरा मिल जाने के बाद, सिर्फ रैगिंग के खौफ से. फ्रेशर पार्टी के बाद उनका यह निर्वासन ख़त्म हुआ था.
बहुत ही खूबसूरती से यादों के मोतियों को पिरो यह संस्मरण माला तैयार की है…बहुत ही आनंद आया पढ़कर .
बेहद दिनों बाद आपका पूरा ब्लॉग पढ़ा। मन कर रहा था कि पढ़ते ही जाएं। आपके चंद शब्द डायरी में नोट कर लिए हैं :-
वो जो पंख दिखता है उड़ता हुआ आकाश में
चाहा कि लपक के उसको अपनी बाजु से मैं लगा लूं
पर फिर उठ जाएंगे ये कदम इस जमीन से
पहले इन पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूं
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।
काव्य प्रयोजन (भाग-७)कला कला के लिए, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
बेहतरीन लेखन के बधाई
356 दिन
ब्लाग4वार्ता पर-पधारें
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रोचक, मस्त-मस्त संस्मरण…
आनंद आया पढ़ कर…
आभार आपका!
…
संघर्ष से निकला कुन्दन। राजकपूर ने एक परंपरा शुरू की सब कुछ ठीक रहा लेकिन ये दिल नहीं रहा
अरे ये आइ टॉनिक नहीं जानता 🙂
सुपर पोस्ट ,बधाई .
Hi…
Sundar sansmaran…
Kitab likhne ki sochiye aap…India main chahe kam bike, Russia main khoob bikegi…
filhal etne se kaam chalayiye…vistruat comment baad main deta hunnn…
Deepak…
feel gud to read
मन को छू गई आपकी बातें।
………….
गणेशोत्सव: क्या आप तैयार हैं?
यादों के झरोखे से झाँक कर एक बार फिर बीते सुनहरे दिनों को देखना बहुत अच्छा लगा. डूब कर लिखा आपने और पूरी शिद्दत से यादों को सहेजा.. परदेस में पढ़ना और बढना सचमुच कोई आसान नहीं है मगर शिखा आपने यह भी दिया दिखा. बधाई. तस्वीरें उम्दा और सजीव है| उस टॉनिक की तस्वीर की कमी के बावजूद बहरहाल संस्मरण का पार्ट २ बहुत भावप्रवण है|
बहुत रोचक संस्मरण …. स्टेशन की बैंच पर डेरा इतने दीनो तक …. कमाल की जुझारू प्रवृति है आपकी …. -३५ डिग्री मेईएन भी क्लास जाना … कमाल है … गुलबज़ामुन और वोड्का का मज़ा … पता चल रहा है कितने दिलचस्प रहे होंगे आपकी दिन …
सच ही लिखा है … वादें मरती नही … किसी न किसी कोने से दस्तक दे ही जाती हैं …
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सुन्दर संस्मरण !
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गुजरा हुआ जमाना, आता नही दुबारा, हाफिज़ खुदा तुम्हारा
यादों के झरोके से, तुमने खूब ये महफ़िल सजाई है
हमें ये संस्मरण पढ़कर , तुम्हारी बहुत याद आई हे
यू आर डी बेस्ट इन सच टाइप ऑफ़ अर्तिक्ले
सुंदर चित्रों के साथ बहुत ही रोचक संस्मरण, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
वाह क्या सुन्दर यादें हैं! बहुत रोचक वर्णन किया है|
घुघूती बासूती
शिखा जी…
आदि से अंत तक आपका संस्मरण दो सभ्यताओं को ले कर चलता है….जिसमे एक और हिन्दुस्तानी संस्कृति है और दूसरी तरफ रशिया की संस्कृति….एक तरफ हर मौके पर वोदका पीने वाले तथा दूसरी ओर मांसाहार से भी परहेज करने वाले आप से लोग…और इन सबके बीच सबको जोड़ता "मेरा जूता है जापानी…." गीत जो हर रशिया निवासी की जुबान पर बसता था…. सच में स्वर्गीय राज कपूर ने भारतीयों के लिए रशिया निवासियों के दिल में जो जगह बनाई वो कोई भी विदेश नीति अथवा कूटनीति नहीं बना सकती….और इसकी प्रत्यक्षदर्शी आप बनीं और आपके आलेख को पढ़ कर हम आज भी उसी आनंद का अनुभव कर रहे हैं जो आपने तब किया होगा….और इस से ऊपर बबुश्काओं का वो प्यार जो आपने अनुभव किया….आज हम भी उस प्रेम से दो चार हुए….माँ कहीं भी हो…किसी भी देश में हो, किसी भी संप्रदाय की हो, माँ का हर बच्चे से जो प्रेम होता है वो अतुलनीय होता है….तभी आपके जरा सा प्रेम दिखाते ही बाबुश्का आपकी ही हो उठती थीं….उन्हें आपमें अपनी बेटियां दिखाई देती होंगी….
आपके संस्मरण में रूस के बदलते आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक हालत की जानकारी भी मिलती है…तभी मैंने आपसे अपनी टिपण्णी में कहा था की आप इसी संस्मरण को विस्तृत रूप प्रदान करके यदि लिखें तो एक किताब का रूप दे सकती हैं और निसंदेह वो किताब हिंदी में रूस के बदलते परिवेशों और हालातों का प्रमाणिक दस्तावेज माना जायेगा….आप कोशिश कीजिये….लेखन आपकी कला है….बस उसे व्र्हद्द रूप देना है….हमारी शुभकामनायें आपके साथ हैं…
बहुत ही सुन्दर और प्रशंसनीय आलेख….
दीपक…
संस्मरण बहुत ज्ञानवर्धक और रोचक है!
वोल्गा वोदका और गंगा तक का जीवंत संस्मरण -न जाने क्यों मुझे रूसी लोग बहुत अच्छे लगते हैं
इसलिए की वे बहुत निहछल होते हैं —-भारतीय को पसंद करते हैं -राजकपूर तो जैसे एक सांस्कृतिक परम्परा के सूत्र
छोड़ आये वहां -जिसे आप सरीखे कई हिन्दुस्तानियों ने अक्षुण रखा है -यह संस्मरण यादगार है !
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आह! थक गया उठक बैठक लगा के … कान भी दर्द कर रहा है… दरअसल आजकल टाइम ही नहीं मिल पा रहा है… नेट पर आने का… ऊपर से गोरखपुर जाना पड़ा सो अलग… आई टॉनिक से याद आया… हमने भी बहुत आई टॉनिक ली हैं… अपने स्टूडेंट डेज़ में… और इस यात्रा संसमरण से साबित कर दिया की सुंदर लोग वाकई में सुंदर विचारों के भी होते हैं…
शुरुआत से संस्मरण एक लिक्विड की मानिंद आगे बढता है.. और आखिरी पैरा तक आते आते हम डूब चुके होते हैं ज़िंदगी के उस वेरी यूज्ड टू शब्द में जिसे बुद्धिजीवी ’स्ट्रगल’ कहते हैं.. इसको चीरने, विजयी होने की कहानियां हमेशा कुछ दे जाती हैं.. ये समय हमें ज़िंदगी की हर ऊंचाई पर हमें हमारी जमीन दिखाता रहता है और उसपर टिकाये भी रहता है…
आखिरी पैरा में बिखरी फ़िलोसोफ़ी बेहद पसंद आयी.. छू गयी ये पोस्ट आपकी..
..और हाँ दोस्तोवस्की ये याद आया कि अगर आपने उनपर कुछ लिखा हो तो लिंक जरूर शेयर करे.. अगर नहीं लिखा तो कुछ लिखें। आपने वहाँ का समाज करीब से देखा है.. हो सके तो एक सीरीज शुरु करें.. और चेखव, दोस्तोवस्की, टॉलस्टाय के लेखन के बारे में हमें भी कुछ बतायें।
संस्मरण सदा साथ ही रहता है …बहुत बहुत बधाई !!
kya aaj bhi russia mei
"Raj Kapoor Sahab" famous hain, hum hindustaniyo ne to bhula hee diya hai unhe.
बहुत सुन्दर संस्मरण शिखा जी, महीनो पहले एक लेख रूस से सम्बंधित आपका वो पहले दिन कॉलेज तक पहुचने वाला प्रसंग ( गाइड टीटी और वह रूसी लडकी जिसने आपकी मदद की थी ) कहीं दिल को छू गया था !
….कविता सुंदर भावार्थ लिए हुए है!…संस्मरण की प्रस्तुति अद्भूत और ज्ञानवर्धक है!
सुन्दर संस्मरण।
यहाँ भी पधारें :-
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शिखा बहुत मजा आ गया ये अंतिम कड़ी पढ़ कर, इमानदारी पिछली हालात सुधारने पर पढूंगी , लेकिन ये तो है कि हम भारतीय संघर्ष करने में और मुकाम हासिल करने के लिए विश्व में छा गए हैं. जहाँ भी हम हैं अलग पहचान है.
इस पर तो एक पूरी फिल्म बनायीं जा सकती है.. टाईटल क्या होगा ये आप डीसाईड कर लीजिये.. 🙂
bahut sundar sansmaran hai badhai
कुश! आइडिया बुरा नहीं है 🙂 "ऑल इडियट" कैसा रहेगा ? हाहाहा
शिखा जी, आपकी लेखन शैली लाजवाब है…
…पर नहीं ख़त्म हुई वो सुनहरी यादें ,वो मस्ती के दिनों की कसक ,वो थोड़े में ही खुश रहने का जज़्बा और अपनों से दूर गैरों को अपनाने की ख्वाहिश …
संस्मरण में कितनी बड़ी शिक्षा दे रही हैं आप!
बधाई…ईद का पर्व आपके और परिवार के लिए ढेर सारी खुशियां लेकर आए (आमीन).
बात मानने वाली है कि जुगाड़ में और हालातों से लड़ने के मामले में हिन्दुस्तानियों का कोई सानी नहीं होता ….एकदम सही कहा आपने
..गुज़रा वक़्त लौट कर नहीं आता पर क्या कभी भूला भी जाता है ?कहीं किसी मोड़ पर मिल ही जाता है….
सच में गुजरा वक्त कभी नहीं लौटता ..
बहुत सुन्दर ढंग से आपने बीतें लम्हों को सहजता पूर्वक प्रस्तुत कर समां बांध दिया …
आलेख बहुत अच्छा लगा….
ईद व गणेश चतुर्थी की अग्रिम हार्दिक शुभ कामनाएँ
थोड़ी पढ़ी है फिर आती हूँ |आज हरतालिका तीज है न ?
कितना सुखद लगता है बीते दिनों को याद करना।ाइसे लगा जैसे सामने ही सब कुछ घट रहा हो। सुन्दर संस्मरण। बधाई।
सुनहरी यादेमन में उथल पुथल मचाती ही रहती है और समय मिलने पर बहर आकर अनुशासन में आ जाती है बहुत सुन्दर और रोचक संस्मरण |
अभी और पढना चाह रही थी 🙁 संस्मरण लिखने में माहिर हैं आप, बहुत ही जीवंत लिखती हैं. बधाई.
पता नहीं कि क्यों आज तक नहीं आया यहां? आज आया..पढ़ा – च्छा लगा, अब पुरानी पोस्टें भी पढ़ कर देखता हूं…
गणपति चतुर्थी की शुभकामनाएं
गुज़रा वक़्त लौट कर नहीं आता
पर क्या कभी भूला भी जाता है ?
कहीं किसी मोड़ पर मिल ही जाता है.
Sach fir mil jata hai gujra waqt
shikha ji aj dekha to pata chalaa ki hamaar commentva to dikhai nahee rahaa hai.
eye tonic ka matlab hame sb jaake samajh aa yaa ki koi tonic hotaa hogaa jo eye drop kee tarah aankho ko laabh detaa hogaa hame kyaa pataa ki वहां सीडियों से फेकल्टी की हरयाली दीखती थी ,जो आँखों के लिए टोनिक का काम करती थी.
aapane sachmuch sangharch bahut kiyaa russia jaakar padhaai karne mai
vaise ek sujhaab hai un dino russia kee jo raajneetik uthal puthal thee us par seriously apne notes likhiye. vo bahut praamaanik honge.
असली शक्ल तो अब दिखाई है ….वाह क्या दिन थे ..हैं न ? फोटो उस ज़माने की गज़ब ढा रही है :):)
मनमोहक पोस्ट. सम्मोहित करता हुआ.
शिखा जी ,
आपने बहुत आकर्षक और रोचक ढंग से अपने संघर्ष को लिखा है. इसे पढ़ते हुए लगा रहा था की हम भी
आपके साथ मास्को में हैं. सुन्दर पोस्ट.
पूनम
बहुत सुन्दर संस्मरण! इसके साथ और तमाम पोस्टें भी पढ़ ली आपकी। रूस में बिताये दिनों के बारे में और संस्मरण भी लिखने चाहिये आपको। फ़िल्म भले न बने लेकिन संस्मरण सीरीज तो बन ही सकती है। नाम रख ही चुकी हैं -ऑल ईडियट!
संस्मरण सदा साथ ही रहता है
यादें ऐसी ही होती हैं कितना भी वक्त के पर्दे मे दब जाये मगर जुदा कभी नही होतीं…
बहुत अच्छा लगा!!
सुन्दर संस्मरण……
बहुत प्यारी है कविता भी……..
आपकी सुन्दर यादों को अपके लेखन ने और भी सुन्दर बना दिया।
यादों को सहेजना वाकई कठिन काम है.
..सुंदर संस्मरण, प्यारी कविता।
पढ़े आपके ये स्वर्णिम दिन ….ता -उम्र की धरोहर हैं ये ….बेहद खूबसूरत तसवीरें …..आपकी यूनिवर्सिटी …और आपकी ये पोस्ट …..
सबसे बड़ी बात की आपको एक एक शब्द याद है …कैसे …..?
शिखा …क्या संस्मरण लिखा है …कायल हो गए तुम्हारी लेखनी के ….इस पर अब तो फिल्म बन ही जाए |
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