सपने भी कितनी करवट बदलते हैं न .आज ये तो कल वो कभी वक्त का तकाज़ा तो कभी हालात की मजबूरी और हमारे सपने हैं कि बदल जाते हैं. इस वीकेंड पर एक पुरानी मॉस्को में साथ पढ़ी हुई एक सहेली से मुलाकात हुई . १५ साल बाद साथ बैठे तो ज्यादातर बातें अब अपने अपने बच्चों के कैरियर की होती रहीं. मुझे एहसास हुआ कि कितना समय बदल गया.. एक वो दिन थे…
विशुद्ध साहित्य हमारा कुछ उस एलिट खेल की तरह हैजिसमें कुछ सुसज्जित लोग खेलते हैं अपने ही खेमे में बजाते हैं तालीएक दूसरे के लिए ही पीछे चलते हैं कुछ अर्दली थामे उनके खेल का सामान इस उम्मीद से शायद कि इन महानुभावों की बदौलत उन्हें भी मौका मिल जायेगा कभी एक – आध शॉट मारने का और वह कह सकेंगे हाँ वासी हैं वे भी उस तथाकथित पॉश दुनिया के जिसका — बाहरी दुनिया…
ये मेरा दुर्भाग्य ही है कि अधिकांशत: भारत से बाहर रहने के कारण,आधुनिक हिंदी साहित्य को पढने का मौका मुझे बहुत कम मिला.बारहवीं में हिंदी साहित्य विषय के अंतर्गत जितना पढ़ सके वह एक विषय तक ही सीमित रह जाया करता था.उस अवस्था में मुझे प्रेमचंद और अज्ञेय की कहानियाँ सर्वाधिक पसंद थीं परन्तु और भी बहुत नाम सुनने में आते रहते थे या पत्र…
बचपन से राजा महाराजाओं ,राजघरानो के किस्से सुनते आये हैं.उनके वैभव, राजसी ठाट बाट, जो कभी भी किसी भी हालत में कम नहीं होते थे. बेशक जनता के घर खाली हो जाएँ पर राजा का खजाना कभी खाली नहीं होता था.. राज परिवार में से किसी की भी सवारी नगर से निकलती तो सड़क के दोनों और जनता उमड़ पड़ती.बच्चे ,बूढ़े, स्त्रियाँ सभी करबद्ध खड़े…






