Yearly Archives: 2012

सपने भी कितनी करवट बदलते हैं न .आज ये तो कल वो कभी वक्त का तकाज़ा तो कभी हालात की मजबूरी और हमारे सपने हैं कि बदल जाते हैं. इस वीकेंड पर  एक पुरानी मॉस्को  में साथ पढ़ी हुई एक सहेली से मुलाकात हुई . १५ साल बाद साथ बैठे तो ज्यादातर बातें अब अपने अपने बच्चों के कैरियर की होती रहीं.  मुझे एहसास हुआ  कि कितना समय बदल गया.. एक वो दिन थे…

विशुद्ध साहित्य हमारा कुछ  उस एलिट खेल की तरह हैजिसमें कुछ  सुसज्जित लोग खेलते हैं अपने ही खेमे में बजाते हैं तालीएक दूसरे  के लिए ही पीछे चलते हैं कुछ  अर्दली थामे उनके खेल का सामान इस उम्मीद से शायद  कि इन महानुभावों की बदौलत उन्हें भी मौका मिल जायेगा कभी एक – आध  शॉट  मारने  का और वह  कह सकेंगे  हाँ वासी हैं वे भी उस  तथाकथित  पॉश  दुनिया के  जिसका — बाहरी दुनिया…

 मैं मानती हूँ कि लिखा दिमाग से कम और दिल से अधिक जाता है, क्योंकि हर लिखने वाला खास होता है, क्योंकि लिखना हर किसी के बस की बात नहीं होती और क्योंकि हर एक लिखने वाले के लिए पढने वाला जरुरी होता है और जिसे ये मिल जाये तो “अंधे को क्या चाहिए  दो आँखें” उसे जैसे सबकुछ मिल जाता है.और इसीलिए…

इस पार से उस पार  जो राह सरकती है जैसे तेरे मेरे बीच से  होकर निकलती है एक एक छोर पर खड़े अपना “मैं “सोचते बड़े एक राह के राही भी कहाँ  “हम” देखते हैं. निगाहें भिन्न भिन्न हों दृश्य फिर अनेक हों हो सपना एक ,फिर भी कहाँ संग देखते हैं रात भले घिरी रहे या चाँदनी खिली रहे तारों…

लन्दन में इस बार बसंत का आगमन ऐसा नहीं हुआ जैसा कि हुआ करता था. आरम्भ में ही सूखा पड़ने की आशंका की घोषणा कर दी गई. और  फिर लगा जैसे  बेचारे बादल  भी डर गए कि नहीं बरसे तो उन्हें भी कोई बड़ा जुर्माना ना कर दिया जाये और फिर उन्हें तगड़ी ब्याज दर के साथ ना जाने कब…

हमारे समाज को रोने की और रोते रहने की आदत पढ़ गई है . हम उसकी बुराइयों को लेकर सिर्फ बातें करना जानते हैं, उनके लिए हर दूसरे इंसान पर उंगली उठा सकते हैं परन्तु उसे सुधारने की कोशिश भी करना नहीं चाहते .और यदि कोई एक कदम उठाये भी तो हम पिल पड़ते हैं लाठी बल्लम लेकर उसके पीछे…

यूँ सुना था तथाकथित अमीर और विकसित देशों में सड़कों पर जानवर नहीं घूमते. उनके लिए अलग दुनिया है. बच्चों को गाय, बकरी, सूअर जैसे पालतू जानवर दिखाने के लिए भी चिड़िया घर ले जाना पड़ता है. और जो वहां ना जा पायें उन्हें शायद पूरी जिन्दगी वे देखने को ना मिले.ये तो हमारा ही देश है जहाँ न  चाहते हुए भी हर…

ये मेरा दुर्भाग्य ही है कि अधिकांशत: भारत से बाहर रहने के कारण,आधुनिक हिंदी साहित्य को पढने का मौका मुझे बहुत कम मिला.बारहवीं में हिंदी साहित्य विषय के अंतर्गत  जितना पढ़ सके वह एक विषय तक ही सीमित  रह जाया करता था.उस अवस्था में मुझे प्रेमचंद और अज्ञेय  की कहानियाँ सर्वाधिक पसंद थीं परन्तु और भी बहुत नाम सुनने में आते रहते थे या पत्र…

आज निकली है धूप  बहुत अरसे बाद  सोचती हूँ  निकलूँ बाहर  समेट लूं जल्दी जल्दी  कर लूं कोटा पूरा  मन के विटामिन डी का  इससे पहले कि  फिर पलट आयें बादल  और ढक लें  मेरी उम्मीदों के सूरज को. ******** यूँ धुंधलका शाम का भी बुरा नहीं  सिमटी होती है उसमें भी  लालिमा दिन भर की  जिसे ओढ़कर सो जाता…

बचपन से राजा महाराजाओं ,राजघरानो के किस्से सुनते आये हैं.उनके वैभव, राजसी ठाट बाट, जो कभी भी किसी भी हालत में कम नहीं होते थे. बेशक जनता के घर खाली हो जाएँ पर राजा का खजाना कभी खाली नहीं होता था.. राज परिवार में से किसी की  भी सवारी नगर से निकलती तो सड़क के दोनों और जनता उमड़ पड़ती.बच्चे ,बूढ़े, स्त्रियाँ सभी करबद्ध खड़े…