Yearly Archives: 2012

कल देखा था मैंने उसे  वहीँ उस कोने में  बैठा था चुपचाप मुस्काया मुझे देख  सोचा होगा उसने  कुछ तो करुँगी  बहलाऊँगी ,मनाऊंगी  फिर उठा लुंगी अहिस्ता से  हमेशा ही होता है ऐसे. वो जब तब रूठ कर बैठ जाता है  थोडा ठुनकता है, यहाँ वहां दुबकता है  फिर मान जाता है. पर इस बार जैसे  कुछ अलग है  नहीं है हिम्मत मनाने की …

आज मेरी इस तूफ़ान का जन्म दिन है .यह कविता मैंने तब लिखी थी जब इसे अक्षर पढने तो क्या बोलने भी नहीं आते थे. फिर जब बोलने- समझने लगी तो एक बार मैंने इसे यह पढ़कर सुनाई.पर आखिरकार कुछ समय पहले इसने खुद इसे पढ़ा और कहा की आज जन्म दिन के उपहार स्वरुप मैं उसे यही कविता दे दूं.यानि…

“आज मैंने घर में मंचूरियन बनाया बहुत अच्छा बना है.सबने बहुत तारीफ़ की।” “कल हम घूमने जा रहे हैं, बहुत दिनों बाद.बहुत मजा आएगा।” “किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है, आ जा पूरी छोलों के साथ प्याज भी है।” …….(सभार राजीव तनेजा ) वाह वाह वाह… क्या लगता है आपको  सहेलियां बात कर रही हैं ? या कोई…

न नाते देखता है न रस्में सोचता है रहता है जिन दरों पे न घर सोचता है हर हद से पार गुजर जाता है आदमी दो रोटी के लिए कितना गिर जाता है आदमी *************** यूँ तो गिरना उठना तेरा  रोज़ की कहानी है  पर इस बार जो गिरा तो  फिर ऊपर नहीं उठा है. ****************** बेहतर होता जो तनिक …

  निर्मल हास्य के लिए जनहित में जारी 🙂 सफलता – कहते हैं ऐसी चीज होती है जिसे मिलती है तो नशा ऐसे सिर चढ़ता है कि उतरने का नाम नहीं लेता. कुछ लोग इसके दंभ में अपनी जमीं तो छोड़ देते  हैं. अब क्योंकि ये तो गुरुत्वाकर्षण का नियम है कि जो ऊपर गया है वह नीचे भी जरुर आएगा या…

लोकार्पण  सुश्री संगीता बहादुर ( डारेक्टर नेहरु सेंटर) १४ मार्च बुधवार की शाम को लन्दन स्थित नेहरु सेंटर में  पुस्तक ” स्मृतियों में रूस ” का विमोचन  हुआ .समारोह में सम्मानित अतिथि  सुश्री संगीता बहादुर ने सर्प्रथम सभी का स्वागत करते हुए लेखिका को बधाई देते हुए अपनी बात शुरू की. श्री कैलाश बुधवार (पूर्व बी बी सी प्रमुख )ने पुस्तक…

  पिछले दिनों गिरीश पंकज जी की एक ग़ज़ल पढ़कर कुछ यूँ ख़याल आये. ये संघर्ष हद से गुजर न जाये देखना औरत टूट कर बिखर न जाये देखना.  बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर  वो पत्थर ही बन न जाये देखना  रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत  एक दिन अकड़ ही न जाये देखना. नज़रों में छुपाये हैं हर आँख का…

लन्दन के एक मंदिर में त्यौहारों पर लगती लम्बी भीड़ त्यौहार पर मंदिर में लगती लम्बी भीड़, रंग बिरंगे कपड़े, बाजारों में, स्कूल के कार्यक्रमों में बजते हिंदी फ़िल्मी गीत,बसों पर लगे हिंदी फिल्म और सीरियलों के पोस्टर.और कोने कोने से आती देसी मसालों  की सुगंध .क्या लगता है आपको किसी भारतीय शहर की बात हो रही है.है ना? जी नहीं यहाँ भारत के किसी शहर की नहीं…

भावनाऐं हिंदी कविता की  किताब हो गईं हैं जो  ढेरों उपजती हैं  पर पढीं नहीं जातीं. ****** भावनाऐं  प्रेशर कुकर भी हैं  जब बढ़ता है दबाब तो मचाती हैं शोर  चाहती है सुने कोई कि पक चुकी हैं. बंद की जाये आंच अब.  ********* भावनाओं का ज्वर जब चढ़ता   है  तो चाहिए होता है स्पर्श  माथे पर ठंडी पट्टी सा  दो  चम्मच मधुर…

 नवभारत में प्रकाशित  क्या पुरुष प्रधान समाज में, पुरुषों के साथ काम करने के लिए,उनसे मित्रवत  सम्बन्ध बनाने के लिए स्त्री का पुरुष बन जाना आवश्यक है ?.आखिर क्यों यदि एक स्त्री स्त्रियोचित व्यवहार करे तो उसे कमजोर, ढोंगी या नाटकीय करार दे दिया जाता है और यही  पुरुषों की तरह व्यवहार करे तो बोल्ड, बिंदास और आधुनिक या फिर चरित्र हीन .यूँ मैं कोई नारी वादी…