काव्य

काव्य का सिन्धु अनंत है शब्द सीप तल में बहुत हैं। चुनू मैं मोती गहरे उतर कर ऊहापोह में ये कवि मन है। देख मुझे यूँ ध्यान मगन पूछे मुझसे मेरा अंतर्मन, मग्न खुद में काव्य पथिक तुम जा रहे हो कौन पथ पर तलवार कर सके न जो पराक्रम कवि सृजन यूँ सबल समर्थ हो भटकों को लाये सत्य…

आँखों से गिरते अश्क को बूँद शबनम की कहे जाते हैं जब्त ए ग़म की आदत है हम यूँ ही जिए जाते हैं । गर न मिले सर रखने को शाना,बहाने का अश्क फिर क्या मजा। रख हाथ गेरों के शाने पर, हम यूँ ही थिरकते जाते हैं जब्त ए ग़म की आदत है, हम यूँ ही जिए जाते हैं। होटों पे…

तू समझे न समझे दीवानगी मेरी, तेरे आगोश में मेरे मर्ज़ की दवा रक्खी है। दिल आजकल कुछ भारी- भारी लगता है, उसपर तेरी याद की परत जो चढ़ा रक्खी है। आखों से लुढ़कते आँसू भी पी हम जाते हैं कि, बह न जाये वो तस्वीर जो उनमें बसा रक्खी है। नहीं धोया वर्षों से वो गुलाबी आँचल हमने, उसमें…

दुनिया का एक सर्वोच्च गणराज्य है उसके हम आजाद बाशिंदे हैं पर क्या वाकई हम आजाद हैं? रीति रिवाजों के नाम पर कुरीतियों को ढोते हैं , धर्म ,आस्था की आड़ में साम्प्रदायिकता के बीज बोते हैं। कभी तोड़ते हैं मंदिर मस्जिद कभी जातिवाद पर दंगे करते हैं। क्योंकि हम आजाद हैं…. कन्या के पैदा होने पर जहाँ माँ का…

होली के सच्चे रंग नही अब यहाँ खून की है बोछर दीवाली पर फूल अनार नही अब मानव बम की गूँजे आवाज़ ईद पर गले मिलते नही क्यों गले काटते हैं अब लोग क्रिसमस पर अब पेड़ नही लाशों का ढेर सजाते हैं क्यों लोग हो लोडी,ओडम या तीज़,बैशाखी अब बजते हैं बस द्वेष राग सस्ती राज़नीति मैं बिक गये…

माँ!आज़ ज्यों ही मैं तेरे गर्भ की गर्माहट में निश्चिंत हो सोने लगी मेने सुना तू जो पापा से कह रही थी। और मेरी मूंदी आँखें भर आईं खारे पानी से। क्यों माँ! क्यों नही तू चाहती की मैं दुनिया में आऊँ ? तेरे ममता मयी आँचल में थोड़ा स्थान मैं भी पाऊँ ? भैया को तेरी गोद में मचलते…

धागे जिंदगी के कभी कभी उलझ जाते हैं इस तरह की चाह कर फिर उन्हें सुलझा नही पाते हैं हम. कोशिश खोलने की गाँठे जितनी भी हम कर लें मगर उतने ही उसमें बार बार फिर उलझते जाते हैं हम. धागों को ज़ोर से खीचते भी कुछ भय सा लगने लगता है वो धागे ही टूट ना जाएँ कहीं यूँ…

काली अँधेरी रात से हो सकता है  डर लगता हो तुमको  मैं तो अब भी स्याह रात में  तेरी याद का दिया जलाती हूँ। ये दिन तो गुजर जाता है  दुनिया के रस्मो रिवाजों में रात के आगोश में अब भी,  मैं गीत तेरे गुनगुनाती हूँ। दिन के शोर शराबे में  सुन नहीं सकता आहें मेरी इसलिए रात के संन्नाटे…

सुबह की चाय की प्याली और रफ़ी के बजते गीतों के साथ एक हुड़क आज़ भी दिल में हिलकोरे सी लेती है दिल करता है छोड़ छाड़ कर ये बेगाना देश और ये लोग ऊड जाएँ इसी पल थाम कर अपनो के प्रेम की कोई डोर। मन पंछी उड़ान भर रहा था उसके अपने ख़यालों में कि हक़ीक़त ने ली अंगड़ाई…

कुछ थे रंगबिरंगे सपने, कुछ मासूम से थे अरमान कुछ खवाबों ने ली अंगड़ाई कुछ थीं अनोखी सी दास्तान फिर चले जगाने इस संमाज को मिले हाथ से कुछ और हाथ बढ़ चले कदम कुछ यूँ पाने को अपने हिस्से का एक कतरा आसमान…… तपती धूप में नीमछांव सा, निर्जन वन में प्रीत गान सा स्वाती नक्षत्र की एक बूँद के…