पिछले दिनों गिरीश पंकज जी की एक ग़ज़ल पढ़कर कुछ यूँ ख़याल आये. ये संघर्ष हद से गुजर न जाये देखना औरत टूट कर बिखर न जाये देखना. बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर वो पत्थर ही बन न जाये देखना रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत एक दिन अकड़ ही न जाये देखना. नज़रों में छुपाये हैं हर आँख का…









