सूनसान सी पगडण्डी पर
जो हौले हौले चलता है.
शायद मेरा वजूद है.
जो करता है हठ,
चलने की पैंया पैंया
बिना थामे
उंगली किसी की.
डर है मुझे
फिर ना गिर जाये कहीं
ठोकर खाकर.
नामुराद
जिद्दी कहीं का.
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अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन फिर भी अब यहाँ कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा न. तो सुनिए. मैं एक जर्नलिस्ट हूँ मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी से गोल्ड मैडल के साथ टीवी जर्नलिज्म में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया, हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेज़ी,और रूसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.अब लन्दन में निवास है और लिखने का जुनून है.
गिरकर उठने का जज्बा ही सफ़लता की ओर ले जाता है। मंजिल तक पहुंचाता है।
गिरकर उठना,उठकर गिरना
जीवन की रीत पुरानी है।
आभार
जिद्दी कहीं का. ….
.
बेहतरीन!!!
अच्छे से पता है , आप कितनी जिद्दी हैं 🙂
tumhara jiddi wajood….tumhe auron se alag karta hai..aur yahi khasiyat hai, yahi pahchaan hai …isko banaye rakhna…safalta ki har sidhhi pe sirf upar ki aur jana…neeche ka to sawal hi nahi:)
god bless you dost:)
jo ladate hain, vahi hain jeetate
girate ve chalate hain .
ye jiddipan bhee jajbaa hai
unheen se log jalate hain .
behatar post , badhai
जो करता है हठ,
चलने की पैंया पैंया
बिना थामे
उंगली किसी की.
वजूद बना उसी का
जिसने खुद
कुछ बनने की ठानी
बिना संबल लिए
बनती है नयी कहानी …
बहुत खूबसूरत भाव लिए नन्ही सी रचना ..पर बहुत गहराई है ..
आपको पढना हमेशा अच्छा लगा है. समय हो तो युवतर कवयित्री संध्या की कवितायें. हमज़बान पर पढ़ें.अपनी राय देकर रचनाकार का उत्साह बढ़ाना हरगिज़ न भूलें.
http://hamzabaan.blogspot.com/2011/07/blog-post_06.html
जो करता है हठ,
चलने की पैंया पैंया
बिना थामे
उंगली किसी की.
bahut sunder bhav पैंया पैंया shbdon ka prayog bahut madhur laga .
rachana
वजूद बचाने की मुहीम में ठोकर लगते रहते है .. संबल विहीन होकर भी, निज आत्मबल के सहारे दुर्धर्ष पाषाणों की पद दलित कर आगे बढ़ते जाना मनुष्य को श्रेष्ठ बनाता है
ठोकर खाकर ही संभलते हैं .
यही ज़िद तो अस्तित्व की पहचान बने…
एहसासातों की खुशबू मिले भावों में…
जो एक बात बनाए,
एक संवाद भी…
जो चले वही गिरे-उठे.
बहुत खूब …
नामुराद
जिद्दी कहीं का.
बेहतरीन……….!!
डर है मुझे
फिर ना गिर जाये कहीं
ठोकर खाकर.
ठोकरें तो इन्सान को मिलती हैं ….लेकिन जो ठोकरों से हार जाता है वह इंसान ही क्या ? हार कर उठाना और एक मुकाम पाना ही जिन्दगी है …..!
यही जिद ही नये पंथ निर्माण करती है।
choti si par bahut hi pyari.
अच्छा है
bahut hathi, bahut ziddi…per bahut pyaara
सों स्वीट!!
गिरने दीजिए उस "नामुराद" को (मेरी तो जुबां से भी ना निकलता ये लफ्ज़, आपका ही है)..
गिरते हैं शह सवार ही मैदाने जंग में… वैसे आपकी कविता से तो वो "तिफ्ल" (बच्चा) ही मालूम पडता है!!
बढ़िया ज़िद है …बनी रहे ….शुभकामनायें…!!
गिरेगा और फिर उठेगा तभी तो चलना सीखेगा |
जिद्दी कहीं का. ….
बहुत खूब…बहुत उम्दा रचना
शायद मेरा वजूद है.
जो करता है हठ,
—————–
फिर ना गिर जाये कहीं
ठोकर खाकर.
नामुराद
जिद्दी कहीं का. ..
सुंदर भावाभिव्यक्ति,आभार.
Beautifully expressed .Loved it .
🙂
गिरकर चलने की जिद ही तो हमें मंज़िल तक पहुंचाती है। आपकी इस बेहतरीन प्रस्तुति अर एक शे’र अर्ज़ है …
हो इरादों में हक़ीक़त,
हौसलों में ज़लज़ला।
आसमां झुककर तुम्हारे पांव तक आ जायेगा,
देख लेना क़िनारा, नाव तक आ जायेगा।
पैंया पैंया और जिद्दी कहीं का -शब्द प्रयोग ने सौंदर्य वृद्धि कर दी.अति-सुंदर.
यह जिद ही है जो वजूद को बनाए रखती है, वरना दुनिया तो ज़ालिम है.
अस्तित्व (वज़ूद) बड़ा कोमल होता है। वह गिरता है या नहीं समझ में नहीं आया। लेकिन आपका जिद्दी वज़ूद अच्छा लगा। आभार।
जिद है तो ज़िंदगी है…
वरना मुर्दादिल क्या ख़ाक जीते हैं…
जय हिंद…
इक क्यूट सी कविता
गिरकर संभलेगा तो बिना डरे चलना सीख लेगा …
अपने वजूद के लिए अकेला चलना रिस्की मगर जरुरी भी !
यह ’ज़िद’ ही तो सारी ’जदें’ पार कराती है ।
बहुत खूब …
बढ़िया कविता… बहुत सुन्दर..
बहुत प्यारी है यह जिद।
——
जादुई चिकित्सा !
ब्लॉग समीक्षा की 23वीं कड़ी…।
सूनसान सी पगडण्डी पर
जो हौले हौले चलता है.
शायद मेरा वजूद है.
जो करता है हठ,
चलने की पैंया पैंया
बिना थामे
उंगली किसी की.
कोमल भावनाओं में रची-बसी खूबसूरत रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
Itna jididi hona bhi theek nhi,
aao thoda sa falexble ho liya jaye!
nice creation! small but deep thought!
badhai !
नामुराद
जिद्दी कहीं का.
बेहतरीन……….!!
वाह … बहुत खूब कहा आपने ।
girte hain shay savaar hi maidane jang me chahe vo jiddi hi hon.bahut pyara likha hai Shikha.
कमाल, क्यूट…कुहू-कुहू सा करने लगा कलेजा मेरा…बधाई, असरदार रचना के लिए…!
Hmmmmmmmmmm, new way to gud thought
किसी की उंगली थामे बिना चलने की जिद सबका वजूद कहाँ करता है….
बनी रहे यह जिद….भले राह में कितनी भी ठोकरें मिले…हिम्मत न टूटे कभी…
जिद्दी कहीं का!
—
अद्भुत रचना!
यही जिद तो आदमी को खास बनाती है ….
insan ki jidd hi to sab karvati hai..bahut khoob
नामुराद
जिद्दी कहीं का
बहुत खूब
नामुराद
जिद्दी कहीं का
…………….कोमल भावों की सुन्दर रचना
जिद्दी कौन है? 🙂
गिरते हैं शहसवार ही ,मैदाने जंग में …..
ये ज़िद बहुत प्यारी लगी …
जिद्दी बनाती रचना,बहुत सुन्दर
सच है इंसान जो होता है उससे बदल कर होना बहुत मुश्किल होता है … वजूद सच में जिद्दी होता है …
kabhi kabhi zidd achchi hoti hai !!
Visiting after a long time as I was disconnected from web.
डर है मुझे
फिर ना गिर जाये कहीं
ठोकर खाकर.
नामुराद
जिद्दी कहीं का.
…यह जिद ही तो जिंदादिल भी बनती है कभी-कभी.
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शब्द-शिखर / विश्व जनसंख्या दिवस : बेटियों की टूटती 'आस्था'
शिखा जी, आज दुबारा पढी कविता। मुझे लगता है कि यह आपकी श्रेष्ठटम रचनाओं में से एक है। एक एक शब्द गूंथा हुआ, स्वयं को सार्थक करता हुआ।
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शायद मेरा वजूद है.
जो करता है हठ,
चलने की पैंया पैंया
बिना थामे
उंगली किसी की.
खूबसूरत रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
अस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
जिद्दी कहीं का
beautiful poem
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 14-07- 2011 को यहाँ भी है
नयी पुरानी हल चल में आज- दर्द जब कागज़ पर उतर आएगा –
kya hua jo chalte-chalte lagi thokar.
bharosa hain hame apne kadmo par.
bahut accha likha aapne.
पय्याँ पय्याँ. अतीत में पहुंचा दिया आपने. बहुत सुन्दर.
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