जिन्दगी कब किस मोड़ से गुजरेगी ,या किस राह पर छोड़ेगी काश देख पाते हम. जिन्दगी को बहुत सी उपमाएं दी जाती हैं मसलन – जिन्दगी एक जुआ है , जिन्दगी एक सफ़र है , जिन्दगी भूलभुलैया है आदि आदि .पर पिछले दिनों एक मेट्रो में सफ़र करते हुए सामने की सीट पर कुछ अलग -अलग रूप में नजर आई…
वैसे तो हमारे देश में घोटालों की कोई एक परिभाषा नहीं ,कोई सीमा नहीं है. हमेशा नए नए और अनोखे से नाम कानो में पड़ जाते हैं. परन्तु पिछले दिनों कुछ इसतरह के मामले सुनने में आये कि लोकतंत्र से ही विरक्ति सी होने लगी है .लोकतंत्र के सबसे मजबूत खम्भे पर बैठे लोग हों या हाथ में कलम की…
पहले जब वो होती थी एक खुमारी सी छा जाती थी पुतलियाँ आँखों की स्वत ही चमक सी जाती थीं आरक्त हो जाते थे कपोल और सिहर सी जाती थी साँसें गुलाब ,बेला चमेली यूँ ही उग आते थे चारों तरफ. पर अब वह होती है तो कुछ भी नहीं होता ना राग बजते हैं ना फूल खिलते हैं ना हवा…
भूखे नंगों का देश है भारत, खोखली महाशक्ति है , कश्मीर से अलग हो जाना चाहिए उसे .और भी ना जाने क्या क्या विष वमन…पर क्या ये विष वमन अपने ही नागरिक द्वारा भारत के अलावा कोई और देश बर्दाश्त करता ? क्या भारत जैसे लोकतंत्र को गाली देने वाले कहीं भी किसी भी और लोकतंत्र में रहकर उसी को गालियाँ…
ना जाने कितने मौसम से होकर गुजरती है जिन्दगी झडती है पतझड़ सी भीगती है बारिश में हो जाती है गीली फिर कुछ किरणे चमकती हैं सूरज की तो हम सुखा लेते हैं जिन्दगी अपनी और वो हो जाती है फिर से चलने लायक कभी सील भी जाती है जब कम पड़ जाती है गर्माहट फिर भी टांगे रहते हैं हम उसे …
रहे बैठे यूँ चुप चुप पलकों को इस कदर भींचे कि थोडा सा भी गर खोला ख्वाब गिरकर खो न जाएँ . थे कुछ बचे -खुचे सपने नफासत से उठा के मैने सहेज लिया था इन पलकों में जो खोला एक दिन कि अब निहार लूं मैं जरा सा उनको तो पाया मैंने ये कि सील गए थे सपने आँखों के खारे पानी से …
बच्चों की छुट्टियाँ ख़त्म होने को आ गईं हैं और उनका सब्र भी …ऐलान कर दिया है उन्होंने कि आपलोगों को हमारी कोई परवाह नहीं बस अपने काम से काम है. हम सड़ रहे हैं घर पर .बात सच्ची थी तो गहरा असर कर गई .इसलिए हम जा रहे हैं एक हफ्ते की छुट्टी पर बच्चों को घुमाने . तब…
चाँद हमेशा से कल्पनाशील लोगों की मानो धरोहर रहा है खूबसूरत महबूबा से लेकर पति की लम्बी उम्र तक की सारी तुलनाये जैसे चाँद से ही शुरू होकर चाँद पर ही ख़तम हो जाती हैं.और फिर कवि मन की तो कोई सीमा ही नहीं है उसने चाँद के साथ क्या क्या प्रयोग नहीं किये…बहुत कहा वैज्ञानिकों ने कि चाँद की…
आज मुस्कुराता सा एक टुकडा बादल का मेरे कमरे की खिड़की से झांक रहा था कर रहा हो वो इसरार कुछ जैसे जाने उसके मन में क्या मचल रहा था देखता हो ज्यूँ चंचलता से कोई मुझे अपनी उंगली वो थमा रहा था कह रहा हो जैसे आ ले उडूं तुझे मैं बस पाँव निकाल देहरी से बाहर जरा सा.…
रक्तिम लाली आज सूर्य की यूं तन मेरा आरक्त किये है. तिमिर निशा का होले होले मन से ज्यूँ निकास लिए है. उजास सुबह का फैला ऐसा जैसे उमंग कोई जीवन की आज समर्पित मेरे मन ने सारे निरर्थक भाव किये हैं लो फैला दी मैने बाहें इन्द्रधनुष अब होगा इनमे बस उजली ही किरणों का अब आलिंगन होगा इनमें …