यकीन मानिये मैं जब भी यश चोपड़ा  की कोई फिल्म देखती थी उसके मनोरम दृश्यों को देख यही ख्याल आता था “अरे क्या है ऐसा स्विट्ज़रलैंड में जो हमारे यहाँ नहीं मिलता इन्हें ..क्या भारत में बर्फ नहीं पड़ती? या यहाँ हसीं वादियाँ और पहाड़ नहीं हैं ?गायों और झरनों की कोई कमी है क्या भारत में? और वो बैल की घंटी ?…..जितनी चाहो मिल जाये फिर क्यों ये  दौड़े  छूटे बस पहुँच जाते हैं वहीँ ?
अब ये  तो समझ में तभी  आया जब हमने कार्यक्रम बना ही डाला स्विट्ज़रलैंड घूमने का, कि आखिर देखें तो  ऐसा क्या है वहां कि जनता बावली  हुई जाती है. पर यकीन मानिये स्विस धरती पर कदम रखते ही सब समझ आने लगा हमें. सबसे पहले बात करुँगी वहाँ के लोगों की.इतने संतुष्ट और मददगार लोग मैने नहीं देखे कहीं. एक मोहतरमा ने हमारे लिए, अपनी मंगाई टैक्सी तक छोड़ दी,कि आप लोग मेहमान है आप ले लीजिये मैं दूसरी मँगा लूंगी.  यूरोप में ऐसी दरियादिली ..? जी मन बाग़ बाग़ हो गया .

फिर पहुंचे हम इंटरलेकन के अपने होटल में.हालाँकि होटल हमने नेट से ही बुक कराया था और बहुत डर रहे थे कि फ़्रांस की तरह यहाँ भी चित्र कुछ और असलियत कुछ और ना निकले.पर सुखद अहसास हुआ.चित्र से भी ज्यादा सुन्दर था होटल, कोजी सा पेड़ों से ढका और सामने बहता छोटा सा झरना टाइप कनाल.
अब हमारे तो हर घर के आगे ऐसे नाले होते हैं. पर उसमें भरी होती है कीचड़ और पोलीथिन के थैले. अब उन्हें निकालने लगेंगे तो हड़ताल कौन करेगा? भारत बंद  कौन करेगा? 
खैर गज़ब की खुमारी थी वातावरण में. हम नहा धो कर निकले घूमने.फिर पता चला जो मुख्य अन्तर था भारत और स्विट्ज़रलैंड में.वो थी वहां की आरामदायक सुविधाएँ. बेशक आप कहीं से भी आये हों,भाषा आती हो या नहीं, परन्तु आपको कहीं भी जाने में,घूमने में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं आ सकती.इतने तरीके से सब कुछ बनाया गया है कि,बस आप ट्रैवल पास लीजिये १ दिन का या १ हफ्ते का,वो भी आप नेट से ले सकते हैं.फिर जहाँ मर्जी जिस मर्जी साधन से जाइये.बस से लेकर शिप तक सब कवर है उसमें.इतने व्यवस्थित यातायात के साधन आपको दुनिया में और कहीं नहीं मिलेंगे।अपने समय से १ सेकेंड की भी देरी से नहीं चलती ट्रेन और बस वहां की.
अब आप भारत के पर्यटन स्थल लीजिये। बेचारे टूरिस्ट के टिकेट खरीदने में पसीने छूट जाएँ और बची खुची जान ट्रेन या बस का इंतज़ार करने में.ना उसके आने का समय निश्चित है ना जाने का। तो अगर आपने अपनी यात्रा प्लान की  हुई है तो हो गया बंटाधार.


खैर वहां से हम बैठे जौन्ग्फ्रौ की छोटी ट्रेन में. बर्फीले पहाड़ों के बीच से गुजर कर ये ट्रेन यूरोप के सबसे ऊँचे पॉइंट तक जाती है जहाँ बर्फ का धुंआ इस कदर होता है कि नंगी आँखों से आपको आपके सामने वाला भी दिखाई ना दे.पर एक बात बड़े आश्चर्य की थी कि इतनी बर्फ के बाद भी सर्दी का अहसास नहीं हो रहा था.शायद बर्फ पिघलती ही नहीं इसलिए(आइस नहीं बनती) बस रुई की तरह बिछी रहती है ..
और वहीँ है हमारे बॉलीवुड की शान बघारता बालीवुड इंडियन  रेस्टोरेंट। जिसके पैसे तो बॉलीवुड जैसे हैं परन्तु खाना गोलीवुड  जैसा। समझ गए ना आप:).परन्तु वहां की खूबसूरती के आगे खाने की किसको पड़ी है ?  
वैसे पूरी यात्रा के बीच में जो छोटे छोटे गाँव पड़ते हैं उनकी छटा भी निराली है। और वहां की चॉकलेट  की दुकाने,आह …देखने  में  ऐसी कि मुँह में डालने में कलेजा पिघले 
वैसे खाने का असली मजा तो हमें माउंट टिटलिस से उतर कर आया।टिटलिस में बर्फ के गलेशियर की गुफा में कलाकृति देख और वहां अपने सारे बॉलीवुड के सितारों के पोस्टर्स के दर्शन करके जब हम नीचे उतरे तो दिखा एक बड़ा- पाव और मसाले वाली चाय का ठेला। कसम बड़े पावों  की इतने स्वादिस्ट बड़ा पाव मैने महाराष्ट्र में भी नहीं खाए। और उस पर मसाला चाय ..जौन्ग्फ्रौ के बॉलीवुड में दिए सारे पैसे वहां वसूल हो गए.
यूँ तो तो स्विट्ज़रलैंड में बहुत से शहर हैं जिनेवा,बर्न,बासेल पर हमें सबसे मनोहारी लगा ल्यूज़र्न।अब क्यों लगा खूबसूरत, ये मत पूछियेगा क्योंकि वो मैं शब्दों में बता ही नहीं पाऊँगी .

हालाँकि  कहने को ऐसा कुछ भी नहीं है स्विस शहरों में कि उनकी व्याख्या की जाये. पर कुछ तो है, इतना खूबसूरत कि फिजाओं में जैसे फूल खिल जाएँ, हर हवा झोंके के साथ जैसे महक दिल -दिमाग में छा  जाये, इतना स्वच्छ और इतनी  पवित्र सी प्रकृति कि हाथ लगाते डर लगे कि मैली ना हो जाये.
मतलब ये कि अपनी एक हफ्ते की छुट्टियाँ ख़तम होते होते हमें समझ में आ गया कि यहाँ के लोग क्यों इतने शांत और संतुष्ट रहते हैं। यहाँ की हवाओं में ही कोई खूबसूरत जादू है। जो आपके दिल दिमाग को एक सुकून सा पहुंचता है। कि सुबह ७ बजे से रात १२ बजे तक पहाड़ों में घूम कर भी हमें तनिक भी थकान का अहसास 
तक नहीं होता था.बल्कि हर समय एक खूबसूरत सा अहसास होता रहता था.


अब हमारी समझ में आ गया था कि भारत के इतने मनोरम स्थानों को छोड़कर हमारे फिल्मकार वहां क्यों जाते हैं। क्योंकि अपने ही देश में काम करने में जितनी परेशानियों का सामना उन्हें करना पड़ता है,स्विस धरती पर बहुत ही आसानी से और ज्यादा लगन से वो अपने काम को अंजाम दे पाते हैं. और बरबस ही ये गीत गुनगुना उठते हैं – ” ये कहाँ आ गए हम ……
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