वेरोनेश युनिवेर्सिटी.
अब तक आप ये तो यहाँ  पढ़ ही चुके हैं कि कैसे हम गिरते पड़ते अपना रुसी भाषा का फाउन्डेशन कोर्स करने अपनी पहली मंजिल वोरोनेश तक पहुंचे थे | अब शुरू होता है उसके आगे का सफ़र. १९९०-९१  का वो समय  रशिया में पेरोस्त्रोइका  का था बहुत से बदलाव आ रहे थे | बाहरी दुनिया से रशिया का परिचय करने की कोशिश गोर्वचौब कर रहे थे और ऐसे ही हालातों में हमारी  जिन्दगी भी बदल रही थी| वेरोनिश में बिताया वो एक साल हमारी  जिन्दगी का टर्निंग  पॉइंट था …मखमली बिस्तर से उठा कर जैसे किसी ने टाट पर दे मारा था .उस समय रशिया में हर चीज़ की राशनिंग थी. उस पर हम तब शाकाहारी थे. उस समय चावल, नमक,चीनी  से लेकर सेनेटरी नैपकिन तक  लेने के लिए भी घंटों लाइन में खड़ा रहना पड़ता था वो भी पता चल जाये कि दुकान  में सामान  आ गया है तो, वर्ना जैसे चाहो  गुजारा  करो ,अगली बार तक ,बहुत मुश्किल था पता करना भी, कहीं किसी को क्लू  मिलता था तो  पुराने समय की तरह ढिंढोरा पीटा जाता था .”चीनी आ गई है…………………आज चावल मिलेगा …………..”.और सब अपना सब कुछ भूल कर दौड़ पड़ते थे .

मीट की दूकान के बाहर लगी कतार.
खाना पीना तो चलो फिर भी कैफे   से काम चल जाता था परन्तु रोज़मर्रा की बाकी जरूरतों के लिए नाकों   चने चबाने पड़ते थे उसपर भाषा की अज्ञानता और इस वजह से सीनियर बहुत भाव खाते  थे क्योंकि उनकी मदद के बिना शौपिंग तो बहुत दूर घर एक चिट्ठी तक नहीं डाली जा सकती थी. (उस समय रशिया का बाजार हमारे किसी पिछड़े हुए गाँव से कम नहीं था अच्छे  कपड़े तो दूर टूथपेस्ट भी स्लेटी रंग का बदबूदार मिलता था , नो आर्टिफिशियल  कलर और फ्लेवर .सिर्फ एक ही ब्रांड का सामान मिलता था कोई चॉईस नहीं.. कोई वैराइटी नहीं .रूबल का दाम कुछ १७ रूबल था (एक डॉलर में )| यह वो समय था कि जब हमारे पास पैसे होते थे पर खरीदने को कुछ नहीं मिलता था| स्कॉलरशिप  के १२५ रूबल मिलते थे और उसमें से खाना पीना निकाल कर भी इतने बच जाते थे कि साल में एक इंडिया का टिकट  आ जाये . 
ऐसे में लड़कों के लिए काम आसान होते थे पढाई में हेल्प चाहिए हो या राशन खरीदना  हो. उनकी  रशियन  गर्ल फ्रेंड कर दिया करती थीं,  जिन्हें वो १ आधा टी शर्ट में ही पटा लिया करते थे   और ये काम इंडियन लड़कों  से अच्छा कोई कर भी नहीं सकता क्योंकि वहां के लड़के भले ही ब्रह्माण्ड में खुद घूमते रहते हों पर वहां से चाँद –  तारे तोड़ कर अपनी प्रियतमा  को देने के वादे सिर्फ भारतीय  पुरुषों को ही करने आते हैं और फिर लड़कियां तो होती ही इमोशनल फूल  हैं फिर दुनिया में चाहे कहीं की भी हों . फिर क्लास में टीचर की रूसी समझ आये ना आये  प्रेम में भाषा कहीं बाधा नहीं बनती .तो जी उनके काफी काम हो जाते थे |परेशानी हम जैसी लड़कियों की थी जिन्हें सारे काम खुद ही करने का शौक था और नाक इतनी लम्बी कि किसी से मदद की गुहार करना अपनी शान के खिलाफ लगता था ..हाँ कुछ खुशनसीब लड़कियां थीं जिनके माँ बाप ने इंडिया से ही उनके जोड़े बनाकर भेजे थे ये अलग बात है कि वहां पहुँच कर उनमें से ज्यादातर अपने जोड़े से राखी  बंधवाकर उसकी सहेली के साथ हो लिए थे और इस तरह कई ग्रुप बन गए थे पर हमारी हालत उन सबमें सबसे ख़राब थी .एक तो उन सब मेडिकल,  इंजिनियर  के छात्रों  के बीच में हम एक अकेले जर्नलिज्म  के थे तो हमें अपनी क्लास में कोई भी इंडियन नहीं मिला था .क्लास में  अलग – अलग देशों के ७ महारथी और हम अकेली कन्या .दूसरा हमारी रूम  मेट को किसी बीमारी की आशंका  से हॉस्पिटल में डाल दिया गया था और बाद में उसे इंडिया वापस भेज दिया गया तो अपने कमरे में भी हम अकेले ,उस पर अकडू स्वाभाव और बोल्ड इमेज … कोई अपने आप हमारी मदद  के लिए आगे आने की हिम्मत नहीं करता था .जिससे हम खुश भी थे क्योंकि अपने काम कराने  के लिए दोस्ती करने की आदत से हमें बचपन से सख्त  परहेज है . तो राशन लाने  से लेकर अपने कमरे में फ्रिज शिफ्ट करने तक के सारे काम हमें खुद ही करने पड़ते थे उस  समय हमारी हालत सांप – छछूंदर से भी बद्तर  होती थी बहुत याद आती थी घर की, घर से आये पत्र लेकर घंटों रोते रहते थे कमरे में ,पर बाहर आकर उन लोगों के थोबडों  पर ठहाके लगाया  करते थे जो पंकज उधास की ग़ज़ल  “चिठ्ठी आई है” पूरे जोरों पर बजाते थे और उसे सुन कर टेसुए बहाया करते थे.

पर इन समस्यायों से जूझते हुए एक फायदा  हमें हुआ था कि रूसी भाषा पर हमारा अधिकार बाकी सब से  अधिक हो गया था और अपने कवितायेँ लिखने के कीड़े के चलते रशियन में भी कभी कभार साहित्यिक वाक्य विन्यास बना लिया करते थे जिससे हमारी रशियन की टीचर हमसे बहुत प्रभावित  थी और इसी वजह से भूगोल के खूसट टीचर के नकारत्मक विचारों के वावजूद ( ये भूगोल का गोला आजतक मेरी समझ में नहीं आता.) उन्होंने हमें क्लास का बेस्ट स्टुडेंट घोषित कर दिया था जिस वजह से हमें रशिया की सर्वश्रेष्ट यूनिवर्सिटी  ” मॉस्को  स्टेट यूनिवर्सिटी में आगे की पढाई के लिए भेजा जाना तय हुआ .इस बात से कुछ लोगों को घोर आश्चर्य भी हुआ क्योंकि उस समय हमारे मार्क्स इतने अच्छे भी नहीं थे  शायद उन्हें लगता था कि जरुर मेरा कोई बड़ा जुगाड़ है जिस वजह से मुझे मॉस्को  यूनिवर्सिटी मिली थी.अब उन्हें ये कौन समझाता कि जिसका कोई नहीं उसका खुदा है यारों  .
खैर इस तरह कुछ खट्टे कुछ मीठे अनुभवों के बीच हमारा एक साल कटता रहा .बहुत मस्ती भरे दिन थे नया माहौल  ,नई भाषा ,नई संस्कृति , नए दोस्त बहुत ही एक्साइटिंग था सबकुछ और हाँ.. वहां का एकदम प्योर दूध ,दही ,स्मेताना ( सौर क्रीम ) आइस क्रीम और मायोनीज ..ऐसा स्वाद दुनिया में और कहीं नहीं मिला आजतक. सब्जी- फल के नाम पर तो कद्दू के साइज का पत्ता गोभी और सेब मिला करते थे बस, तो यही सब काली ब्रेड पर लगा कर एक साल खाया और ख़ुशी ख़ुशी वेरोनिश से मोस्को के लिए रवाना हो गए .
इससे आगे की कहानी अगली बार ..पिक्चर अभी बाकी है :)……..


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