अभी कुछ दिन पहले मुझे ये ख्याल आया था कि खाली दिमाग कवि का घर …ये बात कही तो मैंने बहुत ही लाईट मूड में थी. पर फिर हाल ही में ,आजकल के कवियों पर पढी एक पोस्ट से पुख्ता हो गई ..वो क्या है आजकल हम लोगों के पास करने को तो और कुछ होता नहीं ..ना गेहूँ बीनने हैं ? ना पापड़ बड़ियाँ बनानी हैं और हमें तो कमबख्त स्वेटर बुनना भी नहीं आता जो धूप में बैठकर वही काम कर लें ..अब यहाँ तो धूप के दर्शन भी कभी कभार ही होते हैं, तो बैठना तो जरुरी है जब भी निकले. तो क्या करें धूप में बैठकर? चलो जी तथाकथित कविता ही लिख लेते हैं .अब बुना हुआ स्वेटर तो पहना जाये ना जाये..पर कविता लिख गई तो ब्लॉग पर कुछ लोग पढ़ ही लेंगे और कुछ सज्जन लोग सराह भी देंगे. तो अब जब भी धूप चमकती है हम जा बैठते हैं काली कॉफी का बड़ा सा कप लिए और शुरू कर देते हैं यूँ ही कुछ शब्दों से खेलना ..जब धूप आई तो कुछ पंक्तियाँ लिखीं गईं ..फिर धूप गई तो ख्याल भी गए ..फिर धूप चमकी तो फिर कुछ ख्याल…इसी आने जाने में कुछ उबड़ खाबड़ पंक्तियाँ बुन गईं जो आपके सन्मुख हैं .अब क्या करें -खाली समय भी है ,धूप भी है ,और स्वेटर बुनना नहीं आता तो कुछ तो करेंगे ही ना ..((पुरुष,या कामकाजी स्त्रियाँ या उत्तरी ध्रुव -के वासी क्यों कविता लिखते हैं वो हमें नहीं मालूम )
हमारा तो क्या है …
न मिला चाँद तो चिरागों से दोस्ती कर ली , न मिला कुछ और करने को तो बस कविता कर ली ..
इंसान को इंसान की आज चाह नहीं है
आज हमारे सीने में कोई उद्दगार नहीं हैं
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है
राम को पूजने वालों
मुझे सिर्फ इतना बता दो
क्या राम के हाथों उद्धार पाने के लिए
तुम्हारा पत्थर होना जरुरी है?
तराजू के दो पलडों सी हो गई है जिंदगी.
एक में संवेदनाएं है दूसरे में व्यावहारिकता
डालती जाती हूँ वजन व्यावहारिकता पर
कि हो जाये सामान पलड़े तो
जिंदगी पका लूं अपनी
किन्तु
अहसासों का पलड़ा डिगता ही नहीं है
और असंतुलित रह जाती है जिंदगी..
वो जो पंख दीखता है उड़ता हुआ आकाश में
चाहा कि लपक के उसको अपनी बाजु से मैं लगा लूं.
पर फिर उठ जायेंगे ये कदम इस जमीन से
पहले इन पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूँ ..
bahut sundar kavita likh di aapne sikha ji khaali baithe-baithe.
वाह ….यह तो बैठे ठाले गज़ब का लिख दिया …
आज के समय लोगों की संवेदनाएं खत्म हो रही हैं …और तुम्हारा आवाहन कि पत्थर बनना ज़रूरी तो नहीं…बहुत सुन्दर
और व्यावहारिकता …हमेशा ही एहसास ज्यादा होते हैं पर निबाहनी व्यावहारिकता पड़ती है …
अंतिम उड़ने की चाह पर ज़मीन से जुड़े रहना …तुम्हारे व्यक्तित्व को बताता है …बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर रचना
लन्दन .. • ये कहाँ आ गए हम …." मेरी स्विस यात्रा." • आज इन बाहों में • हम ऐसा क्यों करते हैं ? भाग ३ (शांति शब्द का उच्चारण तीन बार ) • हम ऐसा क्यों करते हैं ? भाग २ ( उपवास.) • हम ऐसा क्यों करते हैं ?भाग – १ (दिया ) • करैक्टर लेस गिफ्ट • एक बुत मैडम तुसाद में . • एक दिन एक गाँव में… Powered By Tech Vyom
Friday, 13 August 2010
यूँ ही बैठे ठाले ..
अभी कुछ दिन पहले मुझे ये ख्याल आया था कि खाली दिमाग कवि का घर …ये बात कही तो मैंने बहुत ही लाईट मूड में थी. पर फिर हाल ही में ,आजकल के कवियों पर पढी एक पोस्ट से पुख्ता हो गई ..वो क्या है आजकल हम लोगों के पास करने को तो और कुछ होता नहीं ..ना गेहूँ बीनने हैं ? ना पापड़ बड़ियाँ बनानी हैं और हमें तो कमबख्त स्वेटर बुनना भी नहीं आता जो धूप में बैठकर वही काम कर लें ..अब यहाँ तो धूप के दर्शन भी कभी कभार ही होते हैं, तो बैठना तो जरुरी है जब भी निकले. तो क्या करें धूप में बैठकर? चलो जी तथाकथित कविता ही लिख लेते हैं .अब बुना हुआ स्वेटर तो पहना जाये ना जाये..पर कविता लिख गई तो ब्लॉग पर कुछ लोग पढ़ ही लेंगे और कुछ सज्जन लोग सराह भी देंगे. तो अब जब भी धूप चमकती है हम जा बैठते हैं काली कॉफी का बड़ा सा कप लिए और शुरू कर देते हैं यूँ ही कुछ शब्दों से खेलना ..जब धूप आई तो कुछ पंक्तियाँ लिखीं गईं ..फिर धूप गई तो ख्याल भी गए ..फिर धूप चमकी तो फिर कुछ ख्याल…इसी आने जाने में कुछ उबड़ खाबड़ पंक्तियाँ बुन गईं जो आपके सन्मुख हैं .अब क्या करें -खाली समय भी है ,धूप भी है ,और स्वेटर बुनना नहीं आता तो कुछ तो करेंगे ही ना ..((पुरुष,या कामकाजी स्त्रियाँ या उत्तरी ध्रुव -के वासी क्यों कविता लिखते हैं वो हमें नहीं मालूम )
हमारा तो क्या है …
न मिला चाँद तो चिरागों से दोस्ती कर ली , न मिला कुछ और करने को तो बस कविता कर ली ..
इंसान को इंसान की आज चाह नहीं है
आज हमारे सीने में कोई उद्दगार नहीं हैं
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है
राम को पूजने वालों
मुझे सिर्फ इतना बता दो
क्या राम के हाथों उद्धार पाने के लिए
तुम्हारा पत्थर होना जरुरी है?
तराजू के दो पलडों सी हो गई है जिंदगी.
एक में संवेदनाएं है दूसरे में व्यावहारिकता
डालती जाती हूँ वजन व्यावहारिकता पर
कि हो जाये सामान पलड़े तो
जिंदगी पका लूं अपनी
किन्तु
अहसासों का पलड़ा डिगता ही नहीं है
और असंतुलित रह जाती है जिंदगी..
ज़िन्दगी का सच दिखा दिया………………एक बेहद सशक्त रचना बैठे ठाले बन गयी तो जब मूड बनाकर लिखेंगी तो कयामत ही आयेगी।
अच्छा तो बैठे बैठे इतने आराम से इतनी ज्यादा सुन्दर कविता लिख दी…हम तो आपसे ही ट्रेनिंग लेंगे कविता लिखने का 😛 😛
वैसे कोफ़ी पीने का अब मन हमें भी कर गया…थोड़ी देर में फिर आता हूँ इधर, कोफ़ी पीते पीते फिर से पढ़ता हूँ एक बार 🙂 🙂
ठालू होगा पहला कवि वैठे ठाले लिखी होगी पहली कविता
यूं ही तुम बैठे ठाले रहते हो या कोई कविता का इरादा है
सावधान : बैठे ठाले लोगो पर निगाह रखो वो कोई और नुकसान करे ना करे कविता जरूर लिख सकते है.
वो जो पंख दीखता है उड़ता हुआ आकाश में
चाहा कि लपक के उसको अपनी बाजु से मैं लगा लूं.
पर फिर उठ जायेंगे ये कदम इस जमीन से
पहले इन पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूँ
-यह बैठे ठाले की रचना तो नहीं ही है…ऊँची उड़ान है…बहुत उम्दा!!
जब बैठे ठाले इस तरह के विचार शव्दों में परिवर्तित होते है तब वास्तविक सृजन कैसा होगा ? बधाई
इंसान को इंसान की आज चाह नहीं है
आज हमारे सीने में कोई उद्दगार नहीं हैं
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है
एक से बढ़िया एक ….
बहुत सुन्दर रचनाये है आपकी
इंसान को इंसान की आज चाह नहीं है
आज हमारे सीने में कोई उद्दगार नहीं हैं
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है
क्या बात है !! बहुत खूब!
.हम आपके साथ हैं.
समय हो तो अवश्य पढ़ें.
विभाजन की ६३ वीं बरसी पर आर्तनाद :कलश से यूँ गुज़रकर जब अज़ान हैं पुकारती http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_12.html
अरे वाह स्वेटर के टाईम मे कविता बुन ली चलो कुछ तो बुनना ही है शब्द बुन लिये अच्छी शब्द शिल्पी हो। कविता अच्छी लगी। शुभकामनायें
पता नही आपको कहां से ये राजस्थानी शब्द बैटे ठाले याद आगया? मुझे तो सशक्त रचना लग रही है. अगर आपने बैठे ठाले ये लिख डाली तो जब आप बिना बैठे ठाले लिखेंगी तब तो जबरदस्त रचना लिखी जायेगी. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम
shikha ji,
main to chaahungi ki aap roz yun hin baithi rahein, dhoop na sahi din to 12 baje raat tak rahta wahaan to bas aaj se dhoop nahin bas roshni mein baithiye aur yun hin likhti rahiye. bahut pasand aai rachna aur baithe thaale ki bhoomika…shubhkaamnaayen.
अगर बैठे ठाले ऐसी कविताये लिखी जा सकती है तो , मै भी निठल्ला हूँ, लेकिन मेरी निठल्ली सोच थोड़ी दूर जाती है , फिर खाली हाथ वापस. व्यावहारिकता और संवेदना के बीच संतुलन रखने कि कशमकश बहुत अनूठी रही. बाजू पार पंख लगाने कि चाह और धरातल से जुड़े रहने कि दृढ़ता , अदम्य इच्छा शक्ति प्रदर्शित करती है. बधाई हो इस अद्भुत बैठे ठाले पोस्ट के लिए.
कमाल कि पंक्तियाँ है, बहुत ही सुन्दर सन्देश देती हुई खूबसूरत रचना, ये तथाकथित कविता नहीं है, ये सचमुच बहुत सुन्दर कविता है, शानदार, बेमिशाल, बेहतरीन! अब से आप धूप में बैठ कर ही लिखिएगा!
वो जो पंख दीखता है उड़ता हुआ आकाश में
चाहा कि लपक के उसको अपनी बाजु से मैं लगा लूं.
पर फिर उठ जायेंगे ये कदम इस जमीन से
पहले इन पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूँ
बहुत खूब
@शिखा जी
ठलुआ होना बहुत बड़ी उपलब्धि है ..उस पर कवि तो बस कमाल है
अगर बैठे ठाले इतना सार्थक लिखेंगी …तो हमको सराहना ही पडेगा
न लिखने का मन तो इतना कुछ। लिखने का मन हो गया तो….
पर फिर उठ जायेंगे ये कदम इस जमीन से
पहले इन पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूँ .
अच्छी कविता. ऐसे ही मन बनाती रहिए 🙂
बुझाता है इंट्रोडक्सन त आप मॉडेस्टी में लिख दी हैं..कोनो बिस्वास नहीं करेगा कि ई सब बैठे ठाले का परिनाम है… एतना सुंदर भाव ऐसहीं आ गया है तब त पूरा बिज्ञान कहेगा कि सोलर एनर्जी से कबिता जनम लेता है…प्रमान आप!
अरे ई कौन बता दिया आपको कि हमरे देस में पत्थर पूजे जाते हैं, सचिन, खुस्बू, रजनीकांत आदि का भी पूजा होता है.
प्रभु त पतित पावन हैं..उद्धार के लिए पत्थर नहीं खाली कोमल हृदय का पुकार चाहिए..ऊ बिना पादुका के नंगे पाँव चले आएंगे.
ई संतुलन त हम कभी बना ही नहीं पाए… भगवान भी नहीं… दिमाग अऊर दिल को अलग अलग जगह दिया है सरीर में…
सिखा जी आप निकला कीजिए धूप में…
हर एक रचना अपने आप में बहुत कुछ सिमेट हुए है और अंतस तक छाप छोडती हुई है.. लेकिन जैसा कि हर किसी को अपनी राय देनी होती है तो तीसरी रचना तराजू के पलड़े कुछ ज्यादा ही गहराई तक उतर गई.. मगर इसमें कोई शक नहीं कि आपने बहुत मन से ये ठाले-बैठे पोस्ट डाल दी.. 🙂
बहुत सुंदर लिखा है शिखा जी,
नागपंचमी की बधाई
सार्थक लेखन के लिए शुभकामनाएं-हिन्दी सेवा करते रहें।
नौजवानों की शहादत-पिज्जा बर्गर-बेरोजगारी-भ्रष्टाचार और आजादी की वर्षगाँठ
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है
वाह बहुत खूबसूरत
और फिर अगर यह बैठे ठाले है तो …..
न मिला कुछ और करने को तो बस कविता कर ली …
हम भी तो यही कर रहे हैं …मगर करने को काम तो बहुत है इसके अलावा भी
संवेदनाएं और व्यावहारिकता ….एक साथ मुश्किल है इनका निभाना …
हम तो अव्यवहारिक ही भले …संवेदनाविहीन मनुष्य होने से तो यही अच्छा …!
कॉफ़ी के साथ इतना सुन्दर लिखा जा सकता है हम भी कोशिश करते हैं, कॉफ़ी के साथ कुछ लिखने की.. 🙂
कैंसर के रोगियों के लिये गुयाबानो फ़ल किसी चमत्कार से कम नहीं (CANCER KILLER DISCOVERED Guyabano, The Soupsop Fruit)
खाली दिमाग कवि का घर……. बहुत सही पंक्तियाँ हैं… एकदम यूनिक सा… अपना भी कुछ हाल ऐसा ही है…. कि कुछ नहीं मिला तो कविता कर ली…. वैसे कविता…. आपकी तरह ही …. बहुत सुंदर है….
सच कहा है सबने ये अगर बैठे ठाले की कविता है तो गंभीरता से सोचकर या भावनाओं में डूबकर लिखी गयी कविता क्या होगी… निश्चित ही यह बैठे-ठाले की उपज है, पर संवेदनशील मन में हर समय कुछ ना कुछ पकता रहता है, वही ज़रा सी फुर्सत पाकर उग आता है पन्नों पर. और फिर निकलती हैं ये पंक्तियाँ-
पर फिर उठ जायेंगे ये कदम इस जमीन से
पहले इन पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूँ.
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
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तो फिर ये लीजिए, बैठे'ठाले एक टिप्पणी।
बहुत बढिया।
………….
सपनों का भी मतलब होता है?
साहित्यिक चोरी का निर्लज्ज कारनामा…..
मुझे नहीं लगता है कि आपका दिमाग खाली है और उस पर किसी शैतान का कब्जा है
आप बहुत रचनात्मक है
आपकी खनक और धमक… रचनात्मकता को महत्व देने वाला कोई व्यक्ति ही समझ सकता है.
लगे रहिए यूं ही विस्फोट करते रहिए
इंसान को इंसान की आज चाह नहीं है
आज हमारे सीने में कोई उद्दगार नहीं हैं
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है … kya baat hai shikha, jabardast likha hai
शिखा जी…
इस बार इतनी सुन्दर कवितायेँ लिखीं और हमें खबर तक नहीं की…???
ठीक है हममे वो सुरखाब के पर नहीं हैं पर अगर हम चाँद नहीं तो क्या चराग भी नहीं…
चाँद न मिला तो चरागों से दोस्ती कर ली….
वोही में कहूँ की चाँद के इसरार मान जाने की इतनी हसरत क्यों थी….बादलों के इसरार के बहाने चाँद से मिलने जाना था लगता है….
hahaha….sundar kavitayen aur unki bhoomika….
दीपक….
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यूँ ही बैठे ठाले
jab thale me ye kavita hai to focus karne me kya hoga…….
आज एक इंसान होने के दर्द ही अभिव्यक्ति…
गजब है ये पोस्ट ..
एक एक पंक्ति दिल को छूने वाली ..
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है
राम को पूजने वालों
मुझे सिर्फ इतना बता दो
क्या राम के हाथों उद्धार पाने के लिए
तुम्हारा पत्थर होना जरुरी है?
अहसासों का पलड़ा डिगता ही नहीं है
और असंतुलित रह जाती है जिंदगी..
आपकी भावनाएं इतनी सहज रूप से अभिव्यक्त हो गयी हैं .. इस रचना के लिए आपको बहुत बधाई !!
पत्थर होना ज़रूरी है…सौ सुनार की, एक लुहार (…रिन) की…
धूप पर याद आया…
तुम को देखा तो ये ख्याल आया,
ज़िंदगी धूप, तुम घना साया…
जय हिंद…
समीर जी सही कह रहे हैं।
बहुत सुन्दर रचना है।
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धनयवाद …
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शिखाजी
वैसे बैठे ठाले ही इतनी सशक्त कविता उपजती है|और सच तो ये है की स्वेटर बुनते ,बड़ी पापड़ के साथ ही मन भी आपकी कविता की तरह ही शब्द ढूंढता है |
"राम को पूजने वालों मुझे सिर्फ इतना बता दो क्या राम के हाथों उद्धार पाने के लिए तुम्हारा पत्थर होना जरुरी ह"
बहुत सुन्दर अर्थपूर्ण कविता |
बैठे ठाले का कमाल भी अच्छा है.
बढ़िया प्रस्तुति.
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
स्वतंत्रता दिवस की बधाइयां और शुभकामनाएं।
आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
बैठे-ठाले भी शानदार रचना..बधाई.
स्वतंत्रता दिवस के शुभ अवसर पर हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
तराजू के दो पलडों सी हो गई है जिंदगी.
एक में संवेदनाएं है दूसरे में व्यावहारिकता
डालती जाती हूँ वजन व्यावहारिकता पर
………………..
किन्तु …..अहसासों का पलड़ा डिगता ही नहीं है
और असंतुलित रह जाती है जिंदगी…..
ये कविता के वो भाव हैं,
जहां सिर्फ़ लेखक की प्रशंसा करना ही काफ़ी नहीं होता…
बल्कि उन पर चिंतन-मनन करना भी ज़रूरी हो जाता है…
……शिखा जी,
कामयाब सृजन.
………..बधाई.
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.
स्वाधीनता दिवस पर हार्दिक शुभकामानाएं.
विचारोत्तेजक अभिव्यक्तियाँ -जब सब कुछ सहज अभिराम है तो फिर राम की जरूरत ही कहाँ है ?
सुन्दर रचना.
. मंगलवार 17 अगस्त को आपकी रचना … चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ….आपका इंतज़ार रहेगा ..आपकी अभिव्यक्ति ही हमारी प्रेरणा है … आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
इंसान को इंसान की आज चाह नहीं है
आज हमारे सीने में कोई उद्दगार नहीं हैं
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है
waah kya khoob kahi hai .pathro ka rishta to pathro se hi hoga na sikha ,yaa hum bhi tum jaise ban jaaye ,yaa phir apni aadat par pachhtaye .
haardik badhai aazadi parv par .jai hind .
वैसे भूमिका में उकेरे गये शब्द भी किसी कविता से कम नहीं हैं, मैम… 🙂
हमारा तो क्या है …
न मिला चाँद तो चिरागों से दोस्ती कर ली , न मिला कुछ और करने को तो बस कविता कर ली ..
चलिए यही सही!…. हम कविता लिखकर ही सही…कई दिलों की खुशियां दुगुनी कर सकते है!..यह भी एक नेक कर्म है!…सुंदर आलेख!
बैठे ठाले जब इतना गज़ब लिख डाला…फिर किसी मेहनत की क्या जरूरत..:)
मन उद्वेलित करने वाली कविता है…खासकर ये पंक्तिया…
क्योंकि इस देश में पत्थर पूजे जाते हैं.
धड़कते दिलों की कोई बिसात नहीं है
बस वाह वाह वाह !!!!
अच्छे लगे विचार ।
वो जो पंख दीखता है उड़ता हुआ आकाश में
चाहा कि लपक के उसको अपनी बाजु से मैं लगा लूं.
पर फिर उठ जायेंगे ये कदम इस जमीन से
पहले इन पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूँ ..
शिखा जी … बस इसी जद्दो-जेहद में जीवन बीत जाता है … और न इंसान ठीक से उड़ पाता है ना ज़मीन से टिक पाता है …
वो जो पंख दीखता है उड़ता हुआ आकाश में
चाहा कि लपक के उसको अपनी बाजु से मैं लगा लूं.
पर फिर उठ जायेंगे ये कदम इस जमीन से
पहले इन पैरों को ठोस धरातल पर तो टिका लूँ ..
शिखा जी … बस इसी जद्दो-जेहद में जीवन बीत जाता है … और न इंसान ठीक से उड़ पाता है ना ज़मीन से टिक पाता है …
hamne to bahut koshish kari, baithe baithe, sote sote, ya khade khade likh payen…….kuchh lekin sambhav nahi hua…………
lekin aapki kavita………baithe baithe itni jaandaar…….maan gaye aapko ustad mohtarma…:)
der se aane ke liye sorry worry nahi kahunga…….:D
बैठे ठाले ये हाल है तो फिर हम जैसे तो खिसक लेते हैं. बात बहुत गहरी कही है, मन को छू गयी. इस रचना के लिए बधाई.
baithe baithe hi itni achhi rachna likh daali waah…..
..तराजू के दो पलडों सी हो गई है जिंदगी.
एक में संवेदनाएं है दूसरे में व्यावहारिकता
डालती जाती हूँ वजन व्यावहारिकता पर
कि हो जाये सामान पलड़े तो
जिंदगी पका लूं अपनी..
..ये पंक्तियाँ तो लाज़वाब हैं. बैठे ठाले नहीं…जिंदगी जीने के संघर्ष का दर्द है यह. दृश्य तो एक पल में सामने आता है मगर उस दृश्य को जीने में जिंदगी निकल जाती है.
राम को पूजने वालों
मुझे सिर्फ इतना बता दो
क्या राम के हाथों उद्धार पाने के लिए
तुम्हारा पत्थर होना जरुरी है?
बहुत कुछ मिला आपकी इस पोस्ट में.उधृत पंक्तियों ने खास तौर पर प्रभावित किया.शुभकामनायें.
राम को पूजने वालों
मुझे सिर्फ इतना बता दो
क्या राम के हाथों उद्धार पाने के लिए
तुम्हारा पत्थर होना जरुरी है?
बहुत कुछ मिला आपकी इस पोस्ट में.उधृत पंक्तियों ने खास तौर पर प्रभावित किया.शुभकामनायें.
बहुत खूब! खूब मौज ली और खूब कविता लिखी। आखिरी वाली सच में बढिया बन गयी-बधाई!
स्वेटर वाली कविता का लिंक भी दे दीजिये। न मिले तो मेरी स्वेटर वाली कविता का लिंक ये रहा:
http://hindini.com/fursatiya/archives/1619
वे लिख रहे हैं कवितायें
जैसे जाड़े की गुनगुनी दोपहर में
गोल घेरे में बैठी औरतें
बिनती जाती हैं स्वेटर
आपस में गपियाती हुई
तीन फ़ंदा नीचे, चार फ़ंदा ऊपर*
उतार देती हैं एक पल्ला
दोपहर खतम होते-होते
हंसते,बतियाते,गपियाते हुये।
औरतें अब घेरे में नहीं बैठती,
आपस में बतियाती नहीं,
हंसती,गपियाती नहीं
स्वेटर बिनना तो कब का छोड़ चुकी हैं!
लेकिन वे कवितायें उसी तरह लिखते आ रहे हैं वर्षों से
जैसे औरतें गपियाती हुई स्वेटर बिनतीं थीं
और किसी तरीके से कविता सधती नहीं उनसे।
tuharee to thaluagiri bhi jabardast hai…
आपने बेठे ठाले शब्द बहुत मासूमियत के साथ यूज़ किया है .बहुत सोचा होगा तो कही नज़्म बनी होगी और सब्जेक्ट सूफ़ियाना होने से अहसास की पवित्रता में निखर आने से ही ये अच्छे शेर जन्मे होंगे ऐसा मेरा मानना है.कट्टरवाद के इस कड़वे दौर में कबीरजी के अशीर्वाद की खुशबू मुझे आपके कलाम से आइ है.दीगर कलाम भी अच्छा लिखा है.पढ़वाने का शुक्रिया
शिखा जी आपने बैठे ठाले इन पंक्तियों में जो बात कह दी है , वह बहुत गहरी बात है- राम को पूजने वालों
मुझे सिर्फ इतना बता दो
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तुम्हारा पत्थर होना जरुरी है?
-आप लिखते रहिए ।बहुत सुन्दर !
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