कविता

लरजती सी टहनी पर झूल रही है एक कली सिमटी,शरमाई सी थोड़ी चंचल भरमाई सी   टिक जाती है हर एक की नज़र हाथ बढा देते हैं सब उसे पाने को  पर वो नहीं खिलती इंतज़ार करती है  बहार के आने का कि जब बहार आए तो कसमसा कर  खिल उठेगी वह  आती है बहार भी  खिलती है वो कली भी…

मैं नहीं चाहती लिखूं वो पल  तैरते हैं जो  आँखों के दरिया में  थम गए हैं जो  माथे पे पड़ी लकीरों के बीच  लरजते हैं जो हर उठते रुकते कदम पर  हाँ नहीं चाहती मैं उन्हें लिखना क्योंकि लिखने से पहले  जीना होगा उन पलों को फिर से  उखाड़ना होगा गड़े मुर्दों को  कुरेदने होंगे कुछ पपड़ी जमे ज़ख्म  और फिर उनकी दुर्गन्ध …

रौशन  और  खुली, निरापद राहों से इतर  कई बार अँधेरे मोड़ पर  मुड़ जाने को दिल करता है. जहाँ ना हो मंजिल की तलाश , ना हो राह खो जाने का भय ना चौंधियाएं रौशनी से आँखें. ना हो जरुरत उन्हें मूंदने की टटोलने के लिए खुद को, पाने को अपना आपा. जहाँ छोड़ सकूँ खुद को बहते पानी सा,…

विशुद्ध साहित्य हमारा कुछ  उस एलिट खेल की तरह हैजिसमें कुछ  सुसज्जित लोग खेलते हैं अपने ही खेमे में बजाते हैं तालीएक दूसरे  के लिए ही पीछे चलते हैं कुछ  अर्दली थामे उनके खेल का सामान इस उम्मीद से शायद  कि इन महानुभावों की बदौलत उन्हें भी मौका मिल जायेगा कभी एक – आध  शॉट  मारने  का और वह  कह सकेंगे  हाँ वासी हैं वे भी उस  तथाकथित  पॉश  दुनिया के  जिसका — बाहरी दुनिया…

इस पार से उस पार  जो राह सरकती है जैसे तेरे मेरे बीच से  होकर निकलती है एक एक छोर पर खड़े अपना “मैं “सोचते बड़े एक राह के राही भी कहाँ  “हम” देखते हैं. निगाहें भिन्न भिन्न हों दृश्य फिर अनेक हों हो सपना एक ,फिर भी कहाँ संग देखते हैं रात भले घिरी रहे या चाँदनी खिली रहे तारों…

आज निकली है धूप  बहुत अरसे बाद  सोचती हूँ  निकलूँ बाहर  समेट लूं जल्दी जल्दी  कर लूं कोटा पूरा  मन के विटामिन डी का  इससे पहले कि  फिर पलट आयें बादल  और ढक लें  मेरी उम्मीदों के सूरज को. ******** यूँ धुंधलका शाम का भी बुरा नहीं  सिमटी होती है उसमें भी  लालिमा दिन भर की  जिसे ओढ़कर सो जाता…

कल देखा था मैंने उसे  वहीँ उस कोने में  बैठा था चुपचाप मुस्काया मुझे देख  सोचा होगा उसने  कुछ तो करुँगी  बहलाऊँगी ,मनाऊंगी  फिर उठा लुंगी अहिस्ता से  हमेशा ही होता है ऐसे. वो जब तब रूठ कर बैठ जाता है  थोडा ठुनकता है, यहाँ वहां दुबकता है  फिर मान जाता है. पर इस बार जैसे  कुछ अलग है  नहीं है हिम्मत मनाने की …

आज मेरी इस तूफ़ान का जन्म दिन है .यह कविता मैंने तब लिखी थी जब इसे अक्षर पढने तो क्या बोलने भी नहीं आते थे. फिर जब बोलने- समझने लगी तो एक बार मैंने इसे यह पढ़कर सुनाई.पर आखिरकार कुछ समय पहले इसने खुद इसे पढ़ा और कहा की आज जन्म दिन के उपहार स्वरुप मैं उसे यही कविता दे दूं.यानि…

  पिछले दिनों गिरीश पंकज जी की एक ग़ज़ल पढ़कर कुछ यूँ ख़याल आये. ये संघर्ष हद से गुजर न जाये देखना औरत टूट कर बिखर न जाये देखना.  बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर  वो पत्थर ही बन न जाये देखना  रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत  एक दिन अकड़ ही न जाये देखना. नज़रों में छुपाये हैं हर आँख का…

क्रिसमस का समय है. बाजारों में ओवर टाइम हो रहा है और स्कूलों में छुट्टी है .तो जाहिर है की घर में भी हमारा ओवर टाइम होने लगा है.ऐसे में कुछ लिखने का मूड बने भी तो अचानक ” भूख लगी है ……..या ..”तू स्टुपिड , नहीं तू स्टुपिड”की आवाजों में ख़याल यूँ गडमड हो जाते हैं जैसे मसालदानी के…