कविता

जीवन की रेला-पेली है. कुछ चलती है, कुछ ठहरी है. जब मौन प्रखर हो व्यक्त हुआ कहा वक्त ने हो गई देरी है. अब भावों में उन्माद नहीं क्यों शब्दों में परवाज़ नहीं साँसे कुछ अपनी हैं बोझिल या चिंता कोई आ घेरी है जब मौन प्रखर हो व्यक्त हुआ कहा वक्त ने ,हो गई देरी है. थे स्वप्न अभी…

हथेली की रेखाओं में कभी सीधी कभी आड़ी सी पगडंडी पर लुढ़कती कभी बगीचों में टहलती बारिश बन बरसती कभी धूप में तपती नर्म ओस सी बिछती तो कभी शूल बन चुभती झरने सी झरती कभी नदिया सी बहती रहती मेज पे रखे प्याले से कभी चाय सी छलकती. ग़ज़ल सी कहती कभी कभी गीतों पे थिरकती . रातों के…

अपनी कोठरी के छोटे से झरोखे से देखती हूँ दूर, बहुत दूर तक जाते हुए उन रास्तों को. पक्की कंक्रीट की बनी साफ़ सुथरी सड़कें खुद ही फिसलती जातीं सी क्षितिज तक जैसे और उन पर रेले से चलते जा रहे लोग अनगिनत, सजीले, होनहार,महान लोग. मैं भी चाहती हूँ चलना इसी सड़क पर और चाहती हूँ पहुंचना उस क्षितिज…

जब भी कभी होती थी संवेदनाओं की आंच तीव्र तो उसपर  अंतर्मन की कढाही चढ़ा कलछी से कुछ शब्दों को  हिला हिला कर भावों का हलवा सा  बना लिया करती थी और फिर परोस दिया करती थी अपनों के सम्मुख और वे भी उसे  सराह दिया करते थे शायद  मिठास से  अभिभूत हो कर , पर अब उसी कढाही में …

नादान आँखें. बडीं मनचली हैं  तुम्हारी ये नादान आँखें  जरा मूँदी नहीं कि  झट कोई नया सपना देख लेंगी.  इनका तो कुछ नहीं जाता  हमें जुट जाना पड़ता है  उनकी तामील में  करना पड़ता है ओवर टाइम .  अपने दिल और दिमाग की  इस शिकायत पर  आज रात खुली आँखों मे गुजार दी है मैने.  न नौ मन तेल होगा न राधा…

रात के साये में कुछ पल मन के किसी कोने में झिलमिलाते हैं सुबह होते ही वे पल , कहीं खो से जाते हैं  कभी लिहाफ के अन्दर , कभी बाजू के तकिये पर कभी चादर की सिलवट पर  वो पल सिकुड़े मिलते हैं. भर अंजुली में उनको , रख देती हूँ सिरहाने की दराजों में  कल जो न समेट पाई तो ,…

सूनसान सी पगडण्डी पर  जो हौले हौले चलता है. शायद मेरा वजूद है. जो करता है हठ,  चलने की पैंया पैंया   बिना थामे  उंगली किसी की.  डर है मुझे  फिर ना गिर जाये कहीं  ठोकर खाकर. नामुराद  जिद्दी कहीं का. …

तेरी मेरी जिन्दगी  उस रसीली जलेबी की तरह है जिसे देख ललचाता है हर कोई कि काश ये मेरे पास होती नहीं देख पाता वो उसके  गोल गोल चक्करों को  उस घी की तपन को  जिसमें तप कर वो निकली है. ************************* कभी कोई लिखने बैठे  कहानी तेरी मेरी  तो वो दुनिया की  सबसे छोटी कहानी होगी जिसमें सिर्फ एक…

मनोज जी ने अपने ब्लॉग पर प्रवासी पंछियों पर एक श्रंखला शुरू की है. जो मुझे बेहद पसंद है .क्योंकि उसमें मुझे अपने बचपन के बहुत से सवालों के जबाब मिल जाते हैं.ये कुछ पंक्तियाँ उन्हीं आलेखों से प्रेरित हैं. कहते हैं उड़ान परों से नहीं हौसलों से होती है पर क्या हौसला ही काफी है. हौसले के साथ तो …

यूँ ही कभी कभी ठन्डे पड़ जाते हैं मेरे हाथ. तितलियाँ सी यूँ ही मडराने लगती हैं पेट में. ऊंगलियाँ करने लगती हैं अठखेलियाँ यूँ ही एक दूसरे से . पलकें स्वत: ही हो जाती हैं बंद. और वहाँ बिना किसी जुगत के ही कुछ बूंदे निकल आती हैं धीरे से. काश कि तेरे पोर उठा लें और  कह दें उन्हें मोती. या…