रो रो के धो डाले हमने, जितने दिल में अरमान थे। 
हम वहाँ घर बसाने चले, जहाँ बस खाली मकान थे। 

यूँ तो दिल लगाने की, हमारी भी थी आरज़ू, 

ढूँढा प्यार का कुआँ वहाँ, जहाँ लंबे रेगिस्तान थे। 
हम तो यूँ ही बेठे थे तसव्वुर में किसी के,
बिखरे टूट के शीशे की तरह कितने हम नादान थे। 
एक अदद इंसान की चाह में, बरसों बिताए तन्हा यहाँ 
पर पाते वहाँ इंसान कैसे, जहाँ सिर्फ़ कब्रिस्तान थे.
जला डाली “शिखा” कि हो रौशन उनकी राह मगर 
पर इस नाजुक सी लौ के कहाँ वो कदरदान थे।