“स्मृतियों में रूस” को प्रकाशित हुए साल हो गया. इस दौरान बहुत से पाठकों ने, दोस्तों ने, इस पर अपनी प्रतिक्रया से मुझे नवाजा. मेरा सौभाग्य है कि अब भी, जिसके हाथों में यह पुस्तक आती है वो मुझतक किसी न किसी रूप में अपनी प्रतिक्रिया अवश्य ही पहुंचा देते हैं.पिछले दिनों दिल्ली के स्वतंत्र पत्रकार शिवानंद द्विवेदी”सहर ने इस पुस्तक की विस्तृत समीक्षा की, जिसके कुछ अंश दैनिक जागरण ने प्रकाशित किये.वही समीक्षा का सम्पूर्ण स्वरूप में आपकी नजर है.
पन्नों में सिमटा रूस है “स्मृतियों में
रूस”
रूस”
स्मृतियों में रूस हमेशा पाठक की स्मृतियों में
उसी तरह बनी रहेगी जिस तरह मानो उसे भूलने की कला आती ही नहीं हो,या भूलने की कला
का माहिर खिलाड़ी होते हुए भी हमेशा उसे ना भुल पाने की वजह ढूंढता फिरता हो
! पाठक मन यत्र-तत्र लिखता-पढ़ता हुआ, कुछ खोजता सा, कुछ गढता सा भटकता रह जाता है
कि स्मृतियों में रूस में आखिर ऐसा क्या है कि पाठक की स्मृति में यह संस्मरण
पुस्तक हमेशा बनी रहती है !लन्दन में रह
रहीं लेखिका शिखा वार्ष्णेय जी की संस्मरण पुस्तक “स्मृतियों में रूस” मुझे मेरे
दफ्तर के पते पर पहुचने के दो दिन बाद मिली, क्योंकि मै अवकाश पर था ! पुस्तक
मिलने के उपरान्त एक सरसरी निगाह डालना एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है बेशक पाठक
द्वारा वो विस्तार से बाद में पढ़ी जाय ! मैंने भी दफ्तर में ही सरसरी निगाह से
एकाध पन्ने पलटना शुरू किया, लेकिन एक एक पंक्तियाँ एक के बाद एक कुछ यूँ कड़ियों में जुडती गयीं कि
मेरा पाठक मन पंक्तियो,अवतरणों और अध्यायों के बनाये साहित्य जाल में पूरी तरह
नतमस्तक हो चुका था ! पंक्ति दर पंक्ति आगे बढ़ने और हर
पंक्ति को जल्दी पढ़ लेने की होड़ ने मेरे मन को बिना पूरा पढ़े रुक जाने की इजाजत देने से इनकार कर दिया !
साहित्य और शब्दों की क़ैद में कैदी बन जाने का अनुभव बहुत कम मिलता है, इसलिए मै
उस अवसर को गंवाना नहीं चाहता था ! शब्द बांधे जा रहे थे और मेरा पाठक मन बंधा जा
रहा था !
उसी तरह बनी रहेगी जिस तरह मानो उसे भूलने की कला आती ही नहीं हो,या भूलने की कला
का माहिर खिलाड़ी होते हुए भी हमेशा उसे ना भुल पाने की वजह ढूंढता फिरता हो
! पाठक मन यत्र-तत्र लिखता-पढ़ता हुआ, कुछ खोजता सा, कुछ गढता सा भटकता रह जाता है
कि स्मृतियों में रूस में आखिर ऐसा क्या है कि पाठक की स्मृति में यह संस्मरण
पुस्तक हमेशा बनी रहती है !लन्दन में रह
रहीं लेखिका शिखा वार्ष्णेय जी की संस्मरण पुस्तक “स्मृतियों में रूस” मुझे मेरे
दफ्तर के पते पर पहुचने के दो दिन बाद मिली, क्योंकि मै अवकाश पर था ! पुस्तक
मिलने के उपरान्त एक सरसरी निगाह डालना एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है बेशक पाठक
द्वारा वो विस्तार से बाद में पढ़ी जाय ! मैंने भी दफ्तर में ही सरसरी निगाह से
एकाध पन्ने पलटना शुरू किया, लेकिन एक एक पंक्तियाँ एक के बाद एक कुछ यूँ कड़ियों में जुडती गयीं कि
मेरा पाठक मन पंक्तियो,अवतरणों और अध्यायों के बनाये साहित्य जाल में पूरी तरह
नतमस्तक हो चुका था ! पंक्ति दर पंक्ति आगे बढ़ने और हर
पंक्ति को जल्दी पढ़ लेने की होड़ ने मेरे मन को बिना पूरा पढ़े रुक जाने की इजाजत देने से इनकार कर दिया !
साहित्य और शब्दों की क़ैद में कैदी बन जाने का अनुभव बहुत कम मिलता है, इसलिए मै
उस अवसर को गंवाना नहीं चाहता था ! शब्द बांधे जा रहे थे और मेरा पाठक मन बंधा जा
रहा था !
एक
भारतीय परम्परा और आदर्श संस्कृति में पली बढ़ी लड़की का घर से पराये देश अध्यन करने
हेतु जाते समय उत्पन्न हुई पारिवारिक
मनोदशा एवं परिजनों की चिंता का बड़ा ही व्यवहारिक पक्ष पुस्तक के प्रथम अध्याय
“दोपहर और नई सुबह” में देखने को मिलता है ! माँ की स्वाभाविक चिंताएं और पिता का
पुत्री के प्रति खुद को संतोष दिलाने वाला वो आत्मविश्वास एवं आभासी परिणामों के प्रति परिजनों को होने वाली
चिंताओं का सुंदर समन्वय भी इसी अंश में खुल कर मुखरित हुआ है ! इन्ही चिंताओं को
शब्दों में उकेरते हुए लेखिका लिखती हैं “ अब जब अचानक मेरा चयन रूस जाने के लिए हो
चुका था तो ये समझ नहीं पा रही थी कि खुश होऊं,डरूं या फिर…अजीब मनोदशा !” लेखिका
के ये शब्द एक तरफ जहाँ प्रेम,विछोह और परिजनों की चिंता को बखूबी प्रस्तुत करते
हैं तो वहीँ दूसरी तरफ इन्ही शब्दों में भारतीय परिवारों के रुढियों एवं रुढियों
से लड़ने सहित तमाम मनोभावों के भी दर्शन होते है ! लेखिका के इस डर में एक तरफ जहाँ भारतीय
समाज की रूढियां उभर कर सामने आती हैं तो वहीँ रूस जाने के फैसले पर कायम रहना इन
रुढियों को झुठलाने के साहस को दिखाता है !
भारतीय परम्परा और आदर्श संस्कृति में पली बढ़ी लड़की का घर से पराये देश अध्यन करने
हेतु जाते समय उत्पन्न हुई पारिवारिक
मनोदशा एवं परिजनों की चिंता का बड़ा ही व्यवहारिक पक्ष पुस्तक के प्रथम अध्याय
“दोपहर और नई सुबह” में देखने को मिलता है ! माँ की स्वाभाविक चिंताएं और पिता का
पुत्री के प्रति खुद को संतोष दिलाने वाला वो आत्मविश्वास एवं आभासी परिणामों के प्रति परिजनों को होने वाली
चिंताओं का सुंदर समन्वय भी इसी अंश में खुल कर मुखरित हुआ है ! इन्ही चिंताओं को
शब्दों में उकेरते हुए लेखिका लिखती हैं “ अब जब अचानक मेरा चयन रूस जाने के लिए हो
चुका था तो ये समझ नहीं पा रही थी कि खुश होऊं,डरूं या फिर…अजीब मनोदशा !” लेखिका
के ये शब्द एक तरफ जहाँ प्रेम,विछोह और परिजनों की चिंता को बखूबी प्रस्तुत करते
हैं तो वहीँ दूसरी तरफ इन्ही शब्दों में भारतीय परिवारों के रुढियों एवं रुढियों
से लड़ने सहित तमाम मनोभावों के भी दर्शन होते है ! लेखिका के इस डर में एक तरफ जहाँ भारतीय
समाज की रूढियां उभर कर सामने आती हैं तो वहीँ रूस जाने के फैसले पर कायम रहना इन
रुढियों को झुठलाने के साहस को दिखाता है !
पुस्तक के अगले अध्याय का सबेरा हमें रूस
की चाय के साथ देखने को मिलता है जहाँ भौगोलिक विषमताओं में भाषाई समस्या का बड़ा
ही पुष्ट उदाहरण लेखिका के संस्मरण का हिस्सा बन जाता है ! चाय को रूस में भी चाय
ही बोलते हैं यह बात शायद बहुत कम लोगों को पता हो ! भाषाओं को लेकर हमारे मन में
कोई पूर्वाग्रह का भाव होता है या भाषाई विषमता का असर कि लेखिका एवं उनके मित्रों
द्वारा रूस में चाय को हर उस नाम से माँगा जाता है जिसे रूसी वेटर नहीं समझ पाती !
लेकिन जैसे ही लेखिका के मित्र द्वारा झुंझलाते हुए यह कहा जाता है कि “चाय दे दे
मेरी माँ”……वेटर तुरंत समझ जाती है ! भाषा के दृष्टिकोण से मेरे मन में यहाँ
एक अतिरिक्त सवाल यह उठता है कि चाय शब्द भारत से रूस गया है या रूस से भारत आया ? खैर, इसे तमाम विषमताओं के बीच की भाषाई समानता
ही कह सकते हैं जो कि विश्व के दो अलग-अलग संस्कृतियों को जोड़ने का काम चाय जैसे शब्द द्वारा संभव हो
पाता है !
की चाय के साथ देखने को मिलता है जहाँ भौगोलिक विषमताओं में भाषाई समस्या का बड़ा
ही पुष्ट उदाहरण लेखिका के संस्मरण का हिस्सा बन जाता है ! चाय को रूस में भी चाय
ही बोलते हैं यह बात शायद बहुत कम लोगों को पता हो ! भाषाओं को लेकर हमारे मन में
कोई पूर्वाग्रह का भाव होता है या भाषाई विषमता का असर कि लेखिका एवं उनके मित्रों
द्वारा रूस में चाय को हर उस नाम से माँगा जाता है जिसे रूसी वेटर नहीं समझ पाती !
लेकिन जैसे ही लेखिका के मित्र द्वारा झुंझलाते हुए यह कहा जाता है कि “चाय दे दे
मेरी माँ”……वेटर तुरंत समझ जाती है ! भाषा के दृष्टिकोण से मेरे मन में यहाँ
एक अतिरिक्त सवाल यह उठता है कि चाय शब्द भारत से रूस गया है या रूस से भारत आया ? खैर, इसे तमाम विषमताओं के बीच की भाषाई समानता
ही कह सकते हैं जो कि विश्व के दो अलग-अलग संस्कृतियों को जोड़ने का काम चाय जैसे शब्द द्वारा संभव हो
पाता है !
संस्मरण
की स्मृति यात्रा पर निकलीं लेखिका, रूस के एक शहर वोरोनिश को करीब से टटोलते हुए उसमे अपने गृह नगर कानपुर को तलाश
लेती हैं !व्यावहारिकता का एक सबसे बेहतर चरित्र यह है कि दूर
दराज में जहाँ हमे हमारे अपने कम ही मिलते हैं तो हम तमाम विषमताओं को दरकिनार कर
छोटी-छोटी समानताओं में अपनापन ढूढ लेते है ! इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रूस
जैसे देश में भी लेखिका ने एक कानपुर ढूढ लिया ! प्राथमिक स्तर पर भाषाई विषमता की
समस्या के चलते लेखिका को एक तरफ जहाँ
भाषा की दिक्क्त का सामना करना पड़
रहा था तो वहीँ दुभाषिये की जरुरत कदम कदम पर पड़ रही थी ! शायद अंतर्राष्ट्रीय
भाषा के नाम से जानी जाने वाली अंग्रेजी अभी वहाँ अपना वजूद नहीं बना पाई थी ! हालाकि
लेखिका ने इस पुस्तक में इस बात का जिक्र किया है कि व्यक्ति के नामो का सरलीकरण भारत
जैसे ही रूस में भी कर लिया जाता है ! इसमें कोई दो राय नहीं कि लेखिका के लिए यह शायद मुश्किल भरा किन्तु
एतिहासिक दौर था क्योंकि वो नब्बे का शुरुआती दशक था जब वो जब रूस प्रवास पर थी और
उसी दौरान रूस में आंतरिक हालात भी बहुत बिगडने लगे थे! आर्थिक हालात चरमरा गए थे
,अमेरिकी प्रभाव कायम होने लगा था और सोबियत टूट रहा था ! तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर आज मै यही
कह सकता हूँ कि उन विषम परिस्थितियों का गवाह बनना लेखिका के लिए एक साहसिक ही
नहीं बल्कि ऐतिहासिक स्मृति के रूप में भी
उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा ! लेखिका
द्वारा लिखे गए संस्मरण में तत्कालीन परिस्थितियों में आर्थिक तंगी से जूझते रूस और बदहाल देश का
चित्रण भी बखूबी देखने को मिलता है !रूस के उन तत्कालीन बदलावों को भी लेखिका की
कलम ने बड़ी बारीकी से रेखांकित किया है और लेखिका के इसी रेखांकन ने साहित्य के संस्मरण विधा की इस कृति को अत्यधिक प्रभावशाली बनाता बनाने का काम किया है
! इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें
संस्कार और संस्कृति के साथ-साथ देशकाल और वातावरण तक को लेखिका द्वारा शब्दों में
सहेजने का सफल प्रयास किया गया है और इस बात के प्रति खास ख्याल रखा गया है
कि संस्मरण के हर संभव दृश्य को कागजों पर
बखूबी गढा जा सके !इस पुस्तक के माध्यम से रूस के कल पक्ष पर नजर डालने पर ऐसा
प्रतीत होता है कि फिल्मो के मामले में भारतीय
कलाकारों की फिल्मे उस दौर में भी वहाँ खूब प्रचलित थी और देखी जाती थी ! रूस के
नागरिक शायद हमारी अपेक्षा ज्यादा कलाप्रेमी हैं यही कारण है कि वहाँ हिन्दी
फिल्मे भी प्रचलित रहीं हैं ! पुरे
संस्मरण में कई बार ऐसा भी समय आया जब लेखिका को अपने भारतीय संस्कृति के मूल्यों
से समझौता करने की मजबूरियों का भी प्रस्ताव आया ! शायद इसी अनुभव को साझा करते
हुए लेखिका ने जिक्र किया है कि वहाँ हर मर्ज के इलाज के रूप में वोदका का सुझाव
आम था ! खाने पीने और नाचने में खुशी तलाशने का रुसी फार्मूला अब भारत में भी आम
हो चुका है लेकिन रूस इसे किस नजरिये से समझता है ,यह कहना मुश्किल है ! जिस वोदका
को ना लेने की मजबूरियां भारतीयों को आसानी से समझाई जा सकती थी उन्ही मजबूरियों
और कारणों को रुसी मित्रों को समझाना उतना ही मुश्किल हो जाता था ! मांस वहाँ खूब
प्रचलित था ! रूस में पढ़ाई के साथ-साथ स्वतंत्र लेखन में हाथ लगाने और अखबारों में
प्रकाशित लेखों का जिक्र भी लेखिका के संस्मरण से अछूता नहीं रहा है ! रूस की
राजधानी मास्को की सुंदरता और वहाँ के संसकृति ,संगीत ,संगीत प्रेमियों ,नृत्य कला
आदि को भी लेखिका के कलम की बारीक निगाहों ने करीब से पढ़ा है जो इस पुस्तक को सीधे
रूस से जोडने का काम करती है !लेखिका की कलम रूस के ऐतिहासिक तथ्यों को समझते और
जिक्र करते हुए टालस्टाय और चेखव की कहानियों में भारत दर्शन को भी तलाशती हैं
,जहाँ उन्हें गाँधी और अहिंसा के प्रभाव् का दर्शन होता है !
की स्मृति यात्रा पर निकलीं लेखिका, रूस के एक शहर वोरोनिश को करीब से टटोलते हुए उसमे अपने गृह नगर कानपुर को तलाश
लेती हैं !व्यावहारिकता का एक सबसे बेहतर चरित्र यह है कि दूर
दराज में जहाँ हमे हमारे अपने कम ही मिलते हैं तो हम तमाम विषमताओं को दरकिनार कर
छोटी-छोटी समानताओं में अपनापन ढूढ लेते है ! इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रूस
जैसे देश में भी लेखिका ने एक कानपुर ढूढ लिया ! प्राथमिक स्तर पर भाषाई विषमता की
समस्या के चलते लेखिका को एक तरफ जहाँ
भाषा की दिक्क्त का सामना करना पड़
रहा था तो वहीँ दुभाषिये की जरुरत कदम कदम पर पड़ रही थी ! शायद अंतर्राष्ट्रीय
भाषा के नाम से जानी जाने वाली अंग्रेजी अभी वहाँ अपना वजूद नहीं बना पाई थी ! हालाकि
लेखिका ने इस पुस्तक में इस बात का जिक्र किया है कि व्यक्ति के नामो का सरलीकरण भारत
जैसे ही रूस में भी कर लिया जाता है ! इसमें कोई दो राय नहीं कि लेखिका के लिए यह शायद मुश्किल भरा किन्तु
एतिहासिक दौर था क्योंकि वो नब्बे का शुरुआती दशक था जब वो जब रूस प्रवास पर थी और
उसी दौरान रूस में आंतरिक हालात भी बहुत बिगडने लगे थे! आर्थिक हालात चरमरा गए थे
,अमेरिकी प्रभाव कायम होने लगा था और सोबियत टूट रहा था ! तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर आज मै यही
कह सकता हूँ कि उन विषम परिस्थितियों का गवाह बनना लेखिका के लिए एक साहसिक ही
नहीं बल्कि ऐतिहासिक स्मृति के रूप में भी
उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा ! लेखिका
द्वारा लिखे गए संस्मरण में तत्कालीन परिस्थितियों में आर्थिक तंगी से जूझते रूस और बदहाल देश का
चित्रण भी बखूबी देखने को मिलता है !रूस के उन तत्कालीन बदलावों को भी लेखिका की
कलम ने बड़ी बारीकी से रेखांकित किया है और लेखिका के इसी रेखांकन ने साहित्य के संस्मरण विधा की इस कृति को अत्यधिक प्रभावशाली बनाता बनाने का काम किया है
! इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें
संस्कार और संस्कृति के साथ-साथ देशकाल और वातावरण तक को लेखिका द्वारा शब्दों में
सहेजने का सफल प्रयास किया गया है और इस बात के प्रति खास ख्याल रखा गया है
कि संस्मरण के हर संभव दृश्य को कागजों पर
बखूबी गढा जा सके !इस पुस्तक के माध्यम से रूस के कल पक्ष पर नजर डालने पर ऐसा
प्रतीत होता है कि फिल्मो के मामले में भारतीय
कलाकारों की फिल्मे उस दौर में भी वहाँ खूब प्रचलित थी और देखी जाती थी ! रूस के
नागरिक शायद हमारी अपेक्षा ज्यादा कलाप्रेमी हैं यही कारण है कि वहाँ हिन्दी
फिल्मे भी प्रचलित रहीं हैं ! पुरे
संस्मरण में कई बार ऐसा भी समय आया जब लेखिका को अपने भारतीय संस्कृति के मूल्यों
से समझौता करने की मजबूरियों का भी प्रस्ताव आया ! शायद इसी अनुभव को साझा करते
हुए लेखिका ने जिक्र किया है कि वहाँ हर मर्ज के इलाज के रूप में वोदका का सुझाव
आम था ! खाने पीने और नाचने में खुशी तलाशने का रुसी फार्मूला अब भारत में भी आम
हो चुका है लेकिन रूस इसे किस नजरिये से समझता है ,यह कहना मुश्किल है ! जिस वोदका
को ना लेने की मजबूरियां भारतीयों को आसानी से समझाई जा सकती थी उन्ही मजबूरियों
और कारणों को रुसी मित्रों को समझाना उतना ही मुश्किल हो जाता था ! मांस वहाँ खूब
प्रचलित था ! रूस में पढ़ाई के साथ-साथ स्वतंत्र लेखन में हाथ लगाने और अखबारों में
प्रकाशित लेखों का जिक्र भी लेखिका के संस्मरण से अछूता नहीं रहा है ! रूस की
राजधानी मास्को की सुंदरता और वहाँ के संसकृति ,संगीत ,संगीत प्रेमियों ,नृत्य कला
आदि को भी लेखिका के कलम की बारीक निगाहों ने करीब से पढ़ा है जो इस पुस्तक को सीधे
रूस से जोडने का काम करती है !लेखिका की कलम रूस के ऐतिहासिक तथ्यों को समझते और
जिक्र करते हुए टालस्टाय और चेखव की कहानियों में भारत दर्शन को भी तलाशती हैं
,जहाँ उन्हें गाँधी और अहिंसा के प्रभाव् का दर्शन होता है !
अपने हर घड़ी
और हर पल में रूस को समझने की कोशिश करती यह भारतीय लेखिका अपने अनुभव को जहाँ विराम देती
है वहीँ से पाठक का मन रूस को निहारने पर विवश होता है ! लेखिका ना तो वहाँ की
बबुश्का को भूली हैं, ना ही वहाँ की चाय को और ना ही उन दोस्तों सहेलियों को जो
शौक से भारतीय साडियां पहन लेती थीं ! इस संस्मरण पुस्तक में अनुभवों,तथ्यों और
चित्रों का शानदार समन्वय जिस तरह से लेखिका द्वारा प्रस्तुत किया गया है ,पाठक
हमेशा शिकायत करेगा लेखिका से कि थोड़ा और होता तो कितना अच्छा होता ! बेस्वाद पड़े
सफ़ेद पन्नों पर रूस का स्वाद लेखिका ने अपनी कलम से कुछ यूँ विखेरा है कागज के बने
मुर्दा पन्ने हर बार जी उठते हैं और पाठक के मन एक रूस बनकर घुस जाते हैं ! हर वो
व्यक्ति जो शायद रूस ना जा पाए एक बार इन पन्नों को निहार ले शायद एक रूस उस तक
चलकर खुद आ जाए ! अंत में मै एक पाठक की प्रतिक्रिया के तौर पर यही कहूँगा कि इस
दुनिया में दो रूस बसते हैं एक ,जो एशिया और यूरोप के भूभाग पर तो दूसरा
“स्मृतियों में रूस के इन पचहत्तर पन्नों में”….! धन्यवाद
और हर पल में रूस को समझने की कोशिश करती यह भारतीय लेखिका अपने अनुभव को जहाँ विराम देती
है वहीँ से पाठक का मन रूस को निहारने पर विवश होता है ! लेखिका ना तो वहाँ की
बबुश्का को भूली हैं, ना ही वहाँ की चाय को और ना ही उन दोस्तों सहेलियों को जो
शौक से भारतीय साडियां पहन लेती थीं ! इस संस्मरण पुस्तक में अनुभवों,तथ्यों और
चित्रों का शानदार समन्वय जिस तरह से लेखिका द्वारा प्रस्तुत किया गया है ,पाठक
हमेशा शिकायत करेगा लेखिका से कि थोड़ा और होता तो कितना अच्छा होता ! बेस्वाद पड़े
सफ़ेद पन्नों पर रूस का स्वाद लेखिका ने अपनी कलम से कुछ यूँ विखेरा है कागज के बने
मुर्दा पन्ने हर बार जी उठते हैं और पाठक के मन एक रूस बनकर घुस जाते हैं ! हर वो
व्यक्ति जो शायद रूस ना जा पाए एक बार इन पन्नों को निहार ले शायद एक रूस उस तक
चलकर खुद आ जाए ! अंत में मै एक पाठक की प्रतिक्रिया के तौर पर यही कहूँगा कि इस
दुनिया में दो रूस बसते हैं एक ,जो एशिया और यूरोप के भूभाग पर तो दूसरा
“स्मृतियों में रूस के इन पचहत्तर पन्नों में”….! धन्यवाद
पुस्तक : स्मृतियों में रूस
मूल्य : ३०० रुपए (सजिल्द)
लेखक : शिखा वार्ष्णेय
प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स
एक्स-३०, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-२, नईदिल्ली-११००२
or
http://www.infibeam.com/Books/smritiyon-mein-roos-hindi-shikha-varshney/9788128837517.html
शिवानन्द द्विवेदी “सहर”
(विभिन्न राष्ट्रीय समाचार पत्र
,पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन)
,पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन)
09716248802
![](https://fbcdn-sphotos-h-a.akamaihd.net/hphotos-ak-snc6/429071_578375428842478_1250157950_n.jpg)
दैनिक जागरण में प्रकाशित समीक्षा.
![](https://fbcdn-sphotos-h-a.akamaihd.net/hphotos-ak-snc6/429071_578375428842478_1250157950_n.jpg)
दैनिक जागरण में प्रकाशित समीक्षा.
रोचक सराहनीय प्रयास .सार्थक जानकारी भरी पोस्ट .आभार सौतेली माँ की ही बुराई :सौतेले बाप का जिक्र नहीं आप भी जानें हमारे संविधान के अनुसार मोहपाश को छोड़ सही रास्ता दिखाएँ .
अच्छी समीक्षा।
समीक्षा रूस के आपके संस्मरण लेखन को समादर प्रदान कर रही है !
बहुत बढ़िया !
शुभकामनायें-
बढ़िया और सर्वांगीण समीक्षा की है शिवानन्द जी ने . किताब की हर पहलू पर विस्तृत और समुचित दृष्टि डाली है . किताब को उनकी नजर से एकबार फिर देखना सुखद रहेगा.
शुभकामनाएं, ब्लोगरों के द्वारा लिखी गयी पुस्तकों को एक जगह पर सहेजने के प्रयास के तहत आपकी पुस्तक को भी LBW Blogging यहाँ पर लिस्ट किया गया है, यदि आप कुछ और डिस्क्रिप्शन जोड़ना चाहें तो बताएं
बहुत ही सुन्दर समीक्षा, निश्चय ही पढ़ने का मन है।
शानदार…
बहुत बहुत धन्यवाद
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 5/3/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका स्वागत है|
अच्छी समीक्षा की है.
उम्दा प्रस्तुति |
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
इसमे कोई शक तो है नहीं की आप के रूस के सभी संस्मरण इतने अच्छे थे ( हमने तो ब्लॉग पर ही पढ़ा है ) की कोई भी बिना प्रसंसा किये नहीं रह सकता है । जैसा की समीक्षा में लिखा था मै भी कई दिनों से सोच रही थी की आप से कहू की क्या रूस की स्मृतियो में से क्या अब कुछ भी बाकि नहीं रहा लिखने को क्योकि पाठक चाह रहे है कुछ और 🙂
अच्छा लगायह विस्तृत समीक्षा पढ़कर …हार्दिक शुभकामनायें आपको
बहुत सुन्दर समीक्षा……
sunder samiksha
आज की ब्लॉग बुलेटिन ज्ञान + पोस्ट लिंक्स = आज का ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
किताब तो अभी तक हाथ नहीं आई पर इस लाजवाब समीक्षा को पढ़ने के बाद लगता है क्यों अभी तक हाथ नहीं आई …
बाहर ही अच्छा लिखा है … आपके ब्लॉग पर भी रूस को अच्छे से समझा है पहले …
sunder likha hai .samiksha aesi hai ki lagta hai ki bas ab pustak padh hi dalu
rachana
बहुत सुन्दर समीक्षा लिखी है ….. बधाई और शुभकामनायें
शिखा जी आपके बहुत-बहुत बधाई । इस सुन्दर समीक्षा के अलावा अभी हाल में ही लोकेन्द्र सिंह राजपूत( अपना पंचू)की समीक्षा भी पढी । ये सब पुस्तक के स्तर के परिचायक हैं ।
अच्छी समीक्षा। आभार
नये लेख :- समाचार : दो सौ साल पुरानी किताब और मनहूस आईना।
एक नया ब्लॉग एग्रीगेटर (संकलक) : ब्लॉगवार्ता।
Very well written.Congratulation!!
vinnie
Enjoyed reading this, very good stuff, appreciate it. “Hereafter, in a better world than this, I shall desire more love and knowledge of you.” by William Shakespeare.
I’m still learning from you, as I’m trying to reach my goals. I definitely liked reading everything that is posted on your website.Keep the aarticles coming. I liked it!
“Wow, great post. Much obliged.”