“पाँव के पंख”….एक उड़ान – शिखा वार्ष्णेय

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डॉ . उषा किरण (लेखिका )

यात्रा तो सभी करते हैं परन्तु जब कोई लेखक जो साथ में पत्रकार और घुमक्कड़ भी हो तो मन में ही नहीं पाँव में भी पंख लग जाते हैं और जब वे यात्रा संस्मरण लिखने बैठती हैं तो उसमें कुछ विशेष तो होना ही है। शिखा की पिछली दो पुस्तकें `स्मृतियों में रूस’ और `देसी चश्मे से लंदन डायरी’  भी बेहद रोचक व जरा हट कर थीं। अब यात्रा वृत्तांत पर उनकी नई पुस्तक आई है `पाँव के पंख’।

“पाँव के पंख का” नाम सुनते ही सबसे पहले तो मुस्कुराते हुए होठों ने ये नाम कई बार दोहराया और फिर जब पुस्तक हाथ में आई तो इसके बाह्य आवरण की ख़ूबसूरती को मुग्ध आँखों से आगे, पीछे से देर तक निहारा क्योंकि मेरे लिए पुस्तक पढ़ने के लिए ये दो चीजें प्रेरक का काम करती हैं। वस्तुत: यह शिखा की 2009 -2023 तक की यूरोप यात्राओं के बेहद मनोरंजक व ज्ञानवर्धक संस्मरणों से सजी हुई पुस्तक है।

जो लोग भी शिखा से मिल चुके हैं वे निस्संदेह उनके मस्तमौला परन्तु गहरे स्वभाव, विनोदप्रियता व बेफिक्र उन्मुक्त हँसी से अवश्य ही परिचित होंगे।पुस्तक पढ़ते समय आपको उनके इस स्वभाव का भी यदा-कदा परिचय मिलता रहेगा। मौका मिलने पर उनका जहाँ भी आत्मालाप चलता है वे चुटकी लेने से बाज नहीं आती हैं, उनके मन की गुदगुदी शब्दों में उतर आती है। जैसे वे लिखती हैं कि-“….अब हमें तो राजकुमार की शादी की खास तैयारियाँ करनी नहीं थीं और दुनिया भर से लोग लन्दन आ रहे हैं तो सोचा कि उनके लिए कुछ स्थान खाली कर दिया जाए और दो दिन के लिए कहीं लन्दन से कहीं बाहर घूम आया जाये…।”

शिखा बहुत  बारीकी से आत्मसात कर अपने अन्दाज़ में ऐतिहासिक, भौगोलिक या आर्थिक स्थितियों को भी सहजता से वर्णित कर देती हैं। शिखा की इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत है उनकी सरल ,सहज ,रोचक और आकर्षक भाषा शैली। शिखा की प्रवाहमयी शैली पाठकों को बांधे रखने में समर्थ है. रोचक मुहावरों के प्रयोग के कारण यात्रा वृतांत होने पर भी पुस्तक पढ़ते समय कहीं भी ऊब नहीं होती है, रोचकता बनी रहती है और आप बहुत मस्ती के मूड में पढते हुए महसूस करते हैं जैसे आप भी डंडा-डोला लेकर पाँव में पंख लगाए लेखिका के साथ हो लिए हैं।

मुझे तो कई बार पढ़ते-पढ़ते इतना आनन्द आया कि जब इस मानसिक यात्रा से मन नहीं भरता था तो मैं यूट्यूब पर खोल कर कभी गायरोज, मस्तिखा, गजपाचो की रेसिपी देखने बैठ जाती तो कभी शिखा के रोचक वर्णन को पढ़ते- पढ़ते उत्साहित होकर उत्सुकतावश फ्लेमेंका डाँस देखने लगती।जिसे देखकर मुझे भी लगा कि उनकी कत्थक से मिलती नृत्य मुद्राओं, पैरों की थाप व हावभाव में भारत का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसी कारण इस कुल 144 पृष्ठों की पुस्तक को मजे लेते हुए मैं कई दिनों में पूरा पढ़ सकी।

शिखा का मत है कि “यात्रा किसी स्थान पर जाकर सिर्फ़ वहाँ के दर्शनीय स्थलों के सामने खडे होकर फ़ोटो खिंचवाने का नाम नहीं, यात्रा का आनन्द तभी है जब आप उस स्थान को आत्मसात् करके देखें।उस परिवेश में रम कर वहाँ का आनन्द लें….!” और उन्होंने ऐसा ही किया भी है। इसको पढ़ते समय आपको यह भाव महसूस होता है कि ये सिर्फ़ जगहों को देख कर नहीं अपितु डूब कर, आत्मसात करने के बाद लिखी किताब है। इसी कारण इस रोचक किताब से आपका भी तादात्म्य जुड़ जाता है।

सर्वप्रथम हमको  शिखा वेनिस ले जाती हैं और गंडोले की सैर कराते जब आपको बॉलीवुड मूवी `द ग्रेट गैम्बलर’ के गाने दो लफ्जों की है….” की याद दिलाती हैं, तो आपके होठों पर बरबस  मुस्कान तैर जाती है। तभी आप समझ जाते है कि ये सफर काफी रोचक होने वाला है। इस गाने को देखते हुए शायद हम सभी ने अपनी आँखों में एक बार वेनिस जाने का सपना जरूर पाला होगा। इसके अलावा  `लॉन्गलीट‘ जहाँ मोहब्बतें फ़िल्म की शूटिंग हुई थी पढ़ते हुए फ़िल्म का गुरुकुल याद आ जाता है। स्पेन में शिखा `जिंदगी न मिलेगी दुबारा’ फिल्म की भी याद दिलाती चलती हैं।सच है कि बॉलीवुड ने हमारी फिल्मों के माध्यम से न जाने कितने देशों की सैर करवा दी है और कभी वहाँ जाने का सपना हम भारतीय अपने दिल में  पाल लेते हैं।

पढ़ी-सुनी बातों की जगह वे स्वयम् विश्लेषण करती हैं. साँस्कृतिक व ऐतिहासिक विषयों पर उनका लम्बा विचार- मंथन निरन्तर चलता रहता है ।

शिखा कहती हैं कि वे एक फूडी हैं। वे जहाँ भी गई हैं वहाँ के खानपान की जानकारी भी दी है।

कितना अजीब है कि वैसे तो इस संसार में हर आदमी की फितरत और स्वभाव अलग होता है, लेकिन इंसान जिस भी परिवार, शहर या देश में रहता है वहाँ की हवा , पानी,  वहाँ की रिवायतों का अक्स उसमें उतर जाता है और जब हम कई शहरों या विभिन्न देशों की यात्राएँ करते हैं तो ये सांस्कृतिक विभिन्नताओं का फर्क बहुत करीब से महसूस होता है।

भ्रमण के बीच रिश्तों की खुबसूरती के अहसास को भी वे नोटिस कर खूब सराहती हैं। सेंटोरनी की यात्रा में रेस्टोरेन्ट में माँ- बेटे के बीच का प्यार उनको भावुक कर देता है उसका वर्णन करना भी नहीं भूली हैं।

चलते- फिरते, भागते-दौड़ते या खाते- पीते भी शिखा वार्ष्णेय का खोजी पत्रकार मन कहीं से भी कहानी चुगना नहीं भूलता।लेखिका जहाँ भी जाती है उसका दिल व दिमाग मन ही मन उस जगह का भारतीय संस्कृति व सभ्यता से तुलनात्मक अध्ययन करना भी नहीं छोड़ता। इससे पता चलता है कि बेशक वे सालों से लंदन में रहती हैं परन्तु अभी भी `दिल है हिन्दुस्तानी…!’

उनके अनुभव को पढ़ कर लगता है कि हमें विदेशी लोगों के साथ बहुत विनम्रतापूर्वक व दोस्ताना व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि किसी एक के द्वारा किये गये दुर्व्यवहार या सद्व्यवहार से पूरा देश बदनाम होता है या सम्मान पाता है। जैसा कि शिखा ने लिखा भी है-“यह तय है कि भाषा, खान-पान परिवेश बेशक कुछ भी हो परन्तु किसी देश को लोकप्रिय और समृद्ध बनाने में उसके नागरिकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

शिखा क्योंकि कवयित्री भी हैं तो घूमते हुए  सहज ही कविता भी बीच-बीच में उमड़ जाती हैं।वेनिस घूमते हुए लिखती हैं-

“जल में बहता एक गाँव-सा

सुंदर नावों के पाँव सा

तन- मन जहाँ प्रफुल्लित हो

कैसे भूलें वो दिन रात

वेनिस की वो सुरमई शाम।”

वे प्रत्येक देश के इतिहास के साथ-साथ वहाँ के मिथक, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक सम्पदा, खान-पान, वेशभूषा, जलवायु, वहाँ  की भौगोलिक परिस्थितियों और वहाँ की ऐतिहासिक इमारतों के बारे में उनके इतिहास सहित सरल और रोचक ढंग से जानकारी देना शिखा के लेखन की विशेषता है । कला, साहित्य यानि कि विभिन्न संस्कृतियों के प्रति खोजी प्रवृत्ति होने के कारण काफी लगाव रखती हैं व उत्सुकता से प्रत्येक चीज को नोटिस करके हमें बताती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कहीं भी जाने से पूर्व व वापिस आकर भी वहाँ के इतिहास व संस्कृति के बारे में जम कर अध्ययन करती हैं।

शिखा बेहद ईमानदारी व दिलचस्प तरीके से स्पष्ट बताती हैं कि कहाँ उन्होंने खाने- पीने व हवाई यात्रा में कटौती करके बजट का सन्तुलन बनाए रखा और कहाँ आराम या खाने के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे खर्च कर विलासितापूर्ण ऐश किया गया। जहाँ गलत होटल का चुनाव किया तो उससे होने वाली परेशानियों को विस्तार से बताकर हमें सचेत भी करती हैं । परिवार के साथ यात्राओं में सबके बीच कौन सी जगह देखी जाए इस विषय में कैसे सन्तुलन बैठाया जब ये बताती हैं तो लेखिका कहीं अपनी सी नजर आती हैं ।

पुस्तक के पीछे शिखा ने अपनी यात्राओं के कुछ चित्र भी दिए हैं जिनसे पाठक इन यात्राओं से और भी जुड़ाव महसूस करता है। वस्तुत: ये चित्र पुस्तक  को समृद्ध तो करते ही हैं और भी रोचकता बढ़ाते हैं।

इनमें से कई जगहों की यात्राएँ मैंने भी की हैं परन्तु शिखा के चश्मे से उन जगहों को एक बार पुन: देखा तो और बहुत कुछ वो दिखा जो पहले नहीं दिखा था। और निश्चित ही अगली यात्राओं में शिखा की इस सीख को भी अपनी गाँठ में सहेज लूँगी- “अगर आप वाकई किसी भी यात्रा का आनन्द लेना चाहते हैं तो उस स्थान के हृदय में पहुँच कर देखिए, स्ट्रीट फूड खाइए, बीच शहर में डेरा जमाइए और स्थानीय लोगों से जी भर कर बातें कीजिए….यात्रा का आनन्द तो तब है जब आप खुद को एक निश्छल शिशु-सा खुला छोड़ दें…।”

शिखा लिखती हैं-

” गर पाने हों मोती सच्चे तो उतरो गहरे सागर में,

जो देखना हो शहर तो गलियों से गुजर कर देखो।”

मेरा विचार है, यह पुस्तक सभी को  अपने पुस्तक-संग्रह में अवश्य शामिल करना चाहिए और यक़ीन मानिए यात्राओं के शौक़ीन किसी भी मित्र अथवा परिजन को देने के लिए इससे बेहतर गिफ्ट हो नहीं सकता। यूरोप भ्रमण से पूर्व या भ्रमण करते समय गूगल गाइड के साथ इस पुस्तक का भी अध्ययन बहुत लाभकारी होगा क्योंकि जो जानकारी आपको इसमें मिलेगी वह अन्यत्र दुर्लभ है। एक अच्छी, रोचक पुस्तक के लिए शिखा वार्ष्णेय  को हार्दिक बधाई। आप यूँ ही निरन्तर देश विदेश की यात्राएं करती रहें और अपने साथ- साथ हमारे भी ज्ञानकोश को समृद्ध करती रहें।

अन्त में मुझे इस पुस्तक में उद्धृत की गई कुछ पंक्तियाँ यात्राओं के लिए प्रोत्साहित करती हैं –

“मस्तूल तन चुके हैं बहती बयार में

बाहें फैलाए दुनियाँ तेरे इंतजार में।”

— उषा किरण

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