रोमांच की भी अपनी एक उम्र होती है और हर उम्र में रोमांच का एक अलग चरित्र. यूँ तो स्वभाव से  रोमांचकारी लोगों को अजीब अजीब चीजों में रोमांच महसूस होता है,स्काइडाइविंग , अंडर वाटर राफ्टिंग, यहाँ तक कि भयंकर झूलों की सवारी, जिन्हें देखकर ही मेरा दिल  धाएं  धाएं करने लगता है. मेरे ख़याल से रोमांच का अर्थ प्रसन्नता से है, आनंद से है अत: जिन चीजों से डर लगे  उसमें रोमांच का अनुभव कैसे हो सकता है ये मुझे समझ में नहीं आता. अब चूंकि हर इंसान के लिए डर की परिभाषा भिन्न- भिन्न परिस्थितियों और अवस्था में अलग अलग होती है तो इसीलिए रोमांच की परिभाषा भी हर एक के लिए बदल जाती है. अब जैसे बीच रास्ते पर फुटबॉल  खेलना एक बच्चे के लिए रोमांचकारी हो सकता है.,परन्तु जाहिर है उसके माता पिता के लिए तो डर ही होगा.और एक घुटनों चलने वाले शिशु के लिए मिट्टी में से चींटी खाना रोमांचकारी हो सकता है पर एक परिपक्व इंसान के लिए चिंताजनक ही होगा. अत: रोमांच भी अवस्था के साथ अपनी अलग परिभाषा ले लेता है.


अब इतने चिंतन मनन का कारण यह है कि एक मित्र फिलहाल बद्रीनाथ , केदारनाथ की यात्रा से लौटे और उन्होंने बताया कि उनके आने के बाद वहाँ  का रास्ता जाम हो गया. उनकी इस बात से मुझे अपनी उस मार्ग की एक यात्रा के कुछ रोमांचक पल स्मरण हो आये. 
 


रानीखेत से बद्रीनाथ  की यात्रा हम प्राय: हर साल ही किया करते थे. क्योंकि गर्मी की  छुट्टियों में आये मेहमानों को, घुमाने के साथ तीर्थयात्रा फ्री का ऑफर खासा लुभावना लगा करता था. और इस यात्रा के बाद पापा को अपनी मेहमान नवाजी और मेहमानों को अपनी छुट्टियां सार्थक लगा करती थीं. हाँ हम बच्चों को ( मैं और मेरी बहन )जरुर यह सब इतना आकर्षित नहीं करता था. पहाड़ो पर वर्षों रहने के कारण ना तो उन पर्वतों में हमें कोई नई बात नजर आती, ना ही उन सर्पीली सड़कों में. उस पर एक मंदिर के लिए टैक्सी का इतना लम्बा और थका देने वाला सफ़र. ऐसे में पर्यटकों का सड़क के किनारे पहाड़ों से निकलते झरने देखकर ख़ुशी से चिल्लाना हमें तो बड़ा ही हास्यप्रद लगा करता था. हाँ एक इकलौता आकर्षण था , और वह था उस पूरे रास्ते अलकनंदा  का साथ साथ चलना. जाने क्यों मुझे वो बड़ी अपनी अपनी सी लगा करती थी. जैसे वह  भी उसी रास्ते, ऐसे ही किसी के लिए बहने को मजबूर है , और अपने दिल दहला देने वाले बहाव के शोर से अपनी मौजूदगी का एहसास कराती रहती है. कल कल बहती नदियों से इतर समुंदर की लहरों के से तीव्र प्रवाह और आवाज़ वाली अलकनंदा मुझे हमेशा ही आकर्षित किया करती थी  और मेरा मन अनायास  ही कुछ दूर उसके साथ पैदल चलने को कर आता. परन्तु जाहिर था मेरा ये रोमांचक मन मेरे घरवालों को हमेशा नागवार ही लगता  था और उनके एक वाक्य ” पागल हो गई है क्या ” के साथ मेरे रोमांच का भट्टा बैठ जाता था.  
यूँ उस रास्ते पर ऊपर के पहाड़ों से बड़े बड़े पत्थरों, और मलबे  के गिरने का खतरा हमेशा ही रहता है. अब का तो पता नहीं परन्तु उस समय (करीब २०-२५ साल पहले ) जरा सी बारिश ही रोड ब्लॉक  का कारण बन जाया करती थी. उसपर एकदम तंग सड़कें और उनके असुरक्षित किनारे. हर मोड़ पर हर वाहन से “जय बद्री विशाल” के नारे सुनाई पड़ते थे.

ऐसे ही एक ट्रिप के दौरान, बद्रीनाथ  से लौटते हुए इससे पहले की अलकनंदा भागीरथी के साथ मिलकर गंगा बन जाती, देवप्रयाग से कुछ पहले, एक जगह पर अचानक पत्थरों का गिरना शुरू हो गया . और देखते ही देखते पूरी सड़क पर  पत्थर और मिट्टी का मिला जुला एक छोटा सा पहाड़ बन गया और बस.. इधर की गाड़ियाँ इधर और उधर की गाड़ियाँ उधर फंस कर रह गईं . उस वक़्त ना तो मोबाइल फ़ोन थे ना ही और कोई साधन जिससे किसी प्रकार की कोई मदद उस मलबे  को साफ़ करने के लिए बुलाई जा सकती अत: आसपास के कुछ मजदूरों और यातायात वालों के आने में खासा वक़्त लगने वाला था. सुबह का वक़्त था और दूसरे दिन शाम तक स्थिति सुधरने के कोई आसार नहीं नजर आ रहे थे. अत: सभी गाड़ियों को सड़क के किनारे से लगाया गया और कुल ४-६ घर और २-४ दुकानों वाले उस गाँव में यात्री रुपी सैलाब ने अपना डेरा डाल लिया.अब शुरू होता है मेरा रोमांचक पड़ाव .

सड़क पर लगातार गिरते पत्थर , नीचे शोर मचाती अलकनंदा, सड़क के किनारे बैठे पचासियों यात्री. ठंडी सुबह , ना खाने को कुछ ना सोने की जगह और ना आगे जाने का रास्ता. चिंता की रेखाएं सभी के माथे पर नजर आ रही थीं. अत: निश्चय किया गया कि जब तक कोई मदद प्रशासन की तरफ से नहीं आती सभी वाहनों के ड्राइवर और कुछ गाँव के मददगार मिलकर खुद ही रास्ता साफ़ करने की कोशिश करेंगे. गाँव वाले अनुभवी थे उन्होंने कहा कि इस तरह एक एक करके गाड़ी के निकलने भर का रास्ता कल तक बनाया जा सकता है. कोई और चारा ना देख यही किया गया और जिसको जो हथियार मिला वह उसे लेकर सफाई अभियान में जुट गया.पर समस्या सिर्फ इतनी नहीं थी. उस सड़क किनारे ६ खोमचे वाले गाँव में २ चाय की छोटी छोटी दूकान,जिनका कुल जमा २ लीटर दूध,कुछ ८-१० बिस्कुट के पैकेट  , कुछ गिनती के समोसे सब १० मिनट में ख़त्म  हो गया. और राशन लाने के लिए पास के एक और गाँव जाना पड़ता जो वहां से तकरीबन २० किलोमीटर होगा और पैदल जाकर वह सामान लाने  में १ दिन तो लगता. जिसके पास जितना यात्रा के लिए लाया गया खाना पीना था सब निबट गया. शाम हो गई और अब सबसे बड़ी समस्या थी रात बिताने की.कुछ पीछे की तरफ की बसों के यात्री तो बसों में अपनी गाड़ियों में सो सकते थे परन्तु मलवे के पास की गाड़ियों में सोना खतरे से खाली नहीं था ना जाने कब ऊपर से कोई पत्थर आ गिरे. ऐसे में यात्रा के दौरान धर्मशालाओं में टिकने वाले लोग जो बिस्तरबंद साथ लेकर चलते हैं उन्होंने उन दुकानों के आहते में अपना डेरा डाल लिया पर समस्या हम होटल परस्त लोगों की थी जो बिस्तर तो क्या एक चादर तक साथ लेकर चलना जरुरी नहीं समझते. हाँ पर इन विपरीत परिस्थितयों में अगर कोई सबसे ज्यादा खुश था तो वो हम बच्चे. जिन्हें ना इन परेशानियों से मतलब था ना सोने खाने की चिंता. जिन्हें इस माहौल  में वो सब करने की आजादी अनायास ही मिल गई थी जिन्हें करने की माता पिता कभी भी इजाजत नहीं देते थे. सड़क छाप  दुकानों के लेकर नमकी खाना, नीचे बहती नदी को पास जाकर देखना, वहीँ मिट्टी में बैठकर खेलना, पेड के नीचे  लोट पोट हो जाना. हमारे लिए यह यात्रा का सबसे आनंदमयी समय था. रास्ता कब साफ़ होगा इससे कोई सरोकार ना रखते हुए हम बस वहां की गतिविधियों में और कुछ अंग्रेजींदा लोगों का मजाक उड़ाने में व्यस्त थे. जिन बेचारों को वहां की दूकान की चाय अन हाइजिनिक लग रही थी और वहां जमीन पर बैठना लो क्लास, कभी एक तरफ से आवाज आती – “हनी !! आई  ऍम स्टार्विंग , कब तक ठीक होगा ये सब…फिर आवाज आती. “वेयर वी गोंना स्लीप?ओह माय गॉड यहाँ तो कोई होटल भी नहीं है”


हम इस बात से बेफिक्र थे  कि बेशक इतनी नहीं पर इसी तरह की चिंता कुछ हमारे मम्मी पापा को भी हो रही होगी कि बच्चे इतनी ठण्ड में रात को कहाँ सोयेंगे.दुकानों का सारा सामान  ख़त्म हो गया था, सब दूकान वाले अपनी अपनी दूकान बंद करके अपने घर जाने लगे थे. हम उन  लोगों की  नक़ल बनाने में व्यस्त थे जो  गलती से भारत में पैदा हो गए थे  .मम्मी हमें डांट रही थीं और पापा किसी गाँव वाले से कुंमायूनी में बतियाने की कोशिश कर रहे थे-“दाजू यो सरकारी दफ्तर याँ वटी कतु दूर छु ? हालाँकि वह गढ़वाली  था पर कुंमायूनी  भी समझ रहा था. तभी वहां एक दुकान वाला आया और पापा से कुंमायूनी  में बात करने लगा. हम लोग यूँ तो मैदानी इलाके के थे पर ७-८ सालों से पहाड़ों पर ही पोस्टिंग होने के कारण पापा गज़ब की कुंमायूनी  बोलते थे और किसी भी मजदूर तक से बात करते हुए उन्हें अफसरपना  छू तक नहीं जाता था.अचानक  पापा ने आकर कहा “चलो”… वह आदमी हमें एक घर के अन्दर ले गया जहाँ नीचे उसकी दूकान थी और ऊपर एक कमरा. जिसमें एक चारपाई पड़ी हुई थी. जहाँ वो, उसकी पत्नी और दो लड़कियां सोती थी. वह आदमी हमें यह कहकर कि, “जे वे छु ये ई छू ए ई बटी गुजर करन पड़ोल”.(जो है इसी में हमें गुजारा करना होगा), पापा के साथ बाहर चला गया. तब हमें बताया गया कि अपनी भाषा में एक अफसर को इतनी आत्मीयता से बात करते  देख वह गांववाला इतना खुश हुआ कि उसने हमें सोने के लिए अपना कमरा तो क्या अपना एकमात्र बिस्तर भी दे दिया. और वह खुद अपने बीवी बच्चों सहित नीचे दूकान में फर्श पर बिस्तर डाल कर सोया. इतना ही नहीं उसने रात को हमारे लिए, जितना भी दाल चावल उसके यहाँ था उसकी खिचड़ी बनवाई और बड़े ही मनुहार से हमें परोसी ।  मुझे आजतक मलका दाल और मोटे चावल की उस खिचड़ी का स्वाद याद है, जिसके लिए ना जाने कितनी बार हम मम्मी से लड़ा करते थे कि आप ऐसे वाले चावल और दाल क्यों नहीं  बनाती जैसे यहाँ के लोग खाते हैं. उस दिन जैसे एक सपना साकार हो गया. और उस खिचड़ी को उँगलियाँ चाट चाट कर खाने के बाद बड़े मजे से मैं और मेरी बहन उस चारपाई पर टेढ़े –  मेढ़े  होकर पसर गए. कहने को एक कोने में मम्मी भी आधी लेट गईं . पर हम यह जानते थे कि वो और पापा वहीँ पड़ी कुर्सियों पर  सारी रात गुजार देंगे.क्योंकि एक मात्र चादर भी हम बहनों को ओढाई जा चुकी थी.जाहिर था हमारे लिए जो रोमांचक समय था मम्मी पापा के लिए जरा भी नहीं था. उन्हें यह चिंता खाए  जा रही थी कि कल भी अगर रास्ता साफ़ नहीं हुआ तो क्या होगा.और यकीनन बहुत से उन लोगों के लिए भी जिन्हें वह कमरा और कुर्सी भी नसीब नहीं हुआ था और वह सड़क के किनारे ही कहीं किसी पेड़ के चबूतरे पर या अपनी कार की सीट पर ही सोने की कोशिश कर रहे थे . उस दिन एक आंचलिक भाषा से प्रेम और अपनापन काम आया था और तथाकथित पॉश अंग्रेजी भाषा मिटटी में घुटने मोड़े भूखी पड़ी थी.

 
दूसरे दिन सुबह होते ही फिर से बाहर से शोर शराबा सुनाई देने लगा. पता चला कि मदद के लिए कुछ लोग पहुँच गए थे. और सड़क साफ़ करने का काम अब सुचारू रूप से होने लगा था . परन्तु पत्थरों का लगातार  गिरना अब भी एक समस्या बना हुआ था .खैर दोपहर होते होते उस मलबे में से किसी तरह उबड़ खाबड़ एक रास्ता सा निकाला गया, जहाँ से कम से कम कारों को तो निकला जा सके. पर वो रास्ता ऐसा था कि कोई कितना भी कुशल ड्राइवर हो उसके पसीने छूट जाएँ.एक तरह से अपनी जान हथेली पर लेकर वो रास्ता पार करना था. ज़रा १ इंच भी अगर टायर फिसला तो गाड़ी सीधा नीचे बह रही अलकनंदा की गोद में गिरती. हर कार के निकलने के साथ ही वहां खड़े सबके हाथ अचानक जुड़ जाते, आँखें बंद हो जातीं और हवा में स्वर गूँज जाता “जय बद्री विशाल”. और उस गाड़ी के पार होते ही फिर सब एक गहरी सांस लेते और दूसरी गाड़ी के लिए फिर से हाथ जोड़ लेते.उसपर हमारी टैक्सी  मैदानी इलाके की थी और उसका ड्राइवर थोडा सा लंगडाता भी था. उसपर रात भर किस्से सुने थे कि  “हर सीजन में अलकनंदा कुछ लोगों की बलि तो लेती ही लेती है” उसका हौसला एकदम पस्त हो गया था. अब यह हालात देखकर अपनी बारी आने पर उसने बिलकुल हाथ खड़े कर दिए. वहां खड़े सब लोगों ने उसे बहुत समझाया , पापा ने बहुत हौसला दिया पर वो टस से मस होने को तैयार नहीं. तभी फिर वही आदमी आया , बोला “तुम फिकर झंन करिए साएब मी छु ना”   (“साहब आप चिंता मत करो मैं हूँ ना”) .और वो अपनी पैंट को घुटनों चढ़ाकर जय बद्रीविशाल के नारे के साथ कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. इससे पहले कि पापा कुछ कह पाते पीछे खड़े मददगारों ने पीछे से कार को धक्का दिया और फिर एक जयकारे के साथ कार वो बाधा पार गई.  हम उछलते कूदते अपना अपना सामान समेटे अपनी कार में जा बैठे . और खिड़की से पापा का और उस आदमी की वार्ता का नजारा देखने लगे. दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े  हुए थे और अपना सिर  हिलाए जा रहे थे. थोड़ी देर बाद उसने पापा को पायलाग किया और पापा आकर कार में बैठे और हम चल पड़े .अब पापा ने बताया कि वह उसे कुछ पैसे देने की कोशिश कर रहे थे जिन्हें उस आदमी ने एकदम लेने से इंकार कर दिया, यह कहकर कि आप जैसे लोगों का हमारे घर आना ही हमारा सौभाग्य है . वह ऐसे बर्ताव  कर रहा था जैसे उसने हम पर नहीं, बल्कि हमने उस पर कुछ एहसान किया हो.

 इस तरह हमारी यह सबसे खूबसूरत  यात्रा ख़त्म   हो गई , जो मेरे लिए तो उस अवस्था में बेहद ही रोमांचकारी थी. पर मुझे यकीन है कि बाकी लोगों के लिए बिलकुल भी रोमांचक नहीं रही होगी. जिनके मन में बच्चों के खाने , रहने, सोने आदि को लेकर चिंता हो वहां रोमांच का स्थान कहाँ होगा.और शायद आज ऐसी परिस्थिति हो तो मेरे लिए भी यह रोमांच ना होकर चिंताजनक  परिस्थिति होगी. 


परिस्थिति जो भी हो यह तय है कि कुछ ना कुछ सिखा कर जरुर जाती है और इस यात्रा का सबसे महत्पूर्ण ज्ञान था कि- अपनी भाषा से ज्यादा मूल्यवान कुछ नहीं.  भाषा में वो शक्ति है जो किसी अजनबी को भी अपना बना सकती है. और किसी भी इंसान को अपनत्व भरी भाषा के दो बोल से जीता जा सकता है.