अब इतने चिंतन मनन का कारण यह है कि एक मित्र फिलहाल बद्रीनाथ , केदारनाथ की यात्रा से लौटे और उन्होंने बताया कि उनके आने के बाद वहाँ का रास्ता जाम हो गया. उनकी इस बात से मुझे अपनी उस मार्ग की एक यात्रा के कुछ रोमांचक पल स्मरण हो आये.
रानीखेत से बद्रीनाथ की यात्रा हम प्राय: हर साल ही किया करते थे. क्योंकि गर्मी की छुट्टियों में आये मेहमानों को, घुमाने के साथ तीर्थयात्रा फ्री का ऑफर खासा लुभावना लगा करता था. और इस यात्रा के बाद पापा को अपनी मेहमान नवाजी और मेहमानों को अपनी छुट्टियां सार्थक लगा करती थीं. हाँ हम बच्चों को ( मैं और मेरी बहन )जरुर यह सब इतना आकर्षित नहीं करता था. पहाड़ो पर वर्षों रहने के कारण ना तो उन पर्वतों में हमें कोई नई बात नजर आती, ना ही उन सर्पीली सड़कों में. उस पर एक मंदिर के लिए टैक्सी का इतना लम्बा और थका देने वाला सफ़र. ऐसे में पर्यटकों का सड़क के किनारे पहाड़ों से निकलते झरने देखकर ख़ुशी से चिल्लाना हमें तो बड़ा ही हास्यप्रद लगा करता था. हाँ एक इकलौता आकर्षण था , और वह था उस पूरे रास्ते अलकनंदा का साथ साथ चलना. जाने क्यों मुझे वो बड़ी अपनी अपनी सी लगा करती थी. जैसे वह भी उसी रास्ते, ऐसे ही किसी के लिए बहने को मजबूर है , और अपने दिल दहला देने वाले बहाव के शोर से अपनी मौजूदगी का एहसास कराती रहती है. कल कल बहती नदियों से इतर समुंदर की लहरों के से तीव्र प्रवाह और आवाज़ वाली अलकनंदा मुझे हमेशा ही आकर्षित किया करती थी और मेरा मन अनायास ही कुछ दूर उसके साथ पैदल चलने को कर आता. परन्तु जाहिर था मेरा ये रोमांचक मन मेरे घरवालों को हमेशा नागवार ही लगता था और उनके एक वाक्य ” पागल हो गई है क्या ” के साथ मेरे रोमांच का भट्टा बैठ जाता था.
यूँ उस रास्ते पर ऊपर के पहाड़ों से बड़े बड़े पत्थरों, और मलबे के गिरने का खतरा हमेशा ही रहता है. अब का तो पता नहीं परन्तु उस समय (करीब २०-२५ साल पहले ) जरा सी बारिश ही रोड ब्लॉक का कारण बन जाया करती थी. उसपर एकदम तंग सड़कें और उनके असुरक्षित किनारे. हर मोड़ पर हर वाहन से “जय बद्री विशाल” के नारे सुनाई पड़ते थे.
ऐसे ही एक ट्रिप के दौरान, बद्रीनाथ से लौटते हुए इससे पहले की अलकनंदा भागीरथी के साथ मिलकर गंगा बन जाती, देवप्रयाग से कुछ पहले, एक जगह पर अचानक पत्थरों का गिरना शुरू हो गया . और देखते ही देखते पूरी सड़क पर पत्थर और मिट्टी का मिला जुला एक छोटा सा पहाड़ बन गया और बस.. इधर की गाड़ियाँ इधर और उधर की गाड़ियाँ उधर फंस कर रह गईं . उस वक़्त ना तो मोबाइल फ़ोन थे ना ही और कोई साधन जिससे किसी प्रकार की कोई मदद उस मलबे को साफ़ करने के लिए बुलाई जा सकती अत: आसपास के कुछ मजदूरों और यातायात वालों के आने में खासा वक़्त लगने वाला था. सुबह का वक़्त था और दूसरे दिन शाम तक स्थिति सुधरने के कोई आसार नहीं नजर आ रहे थे. अत: सभी गाड़ियों को सड़क के किनारे से लगाया गया और कुल ४-६ घर और २-४ दुकानों वाले उस गाँव में यात्री रुपी सैलाब ने अपना डेरा डाल लिया.अब शुरू होता है मेरा रोमांचक पड़ाव .
सड़क पर लगातार गिरते पत्थर , नीचे शोर मचाती अलकनंदा, सड़क के किनारे बैठे पचासियों यात्री. ठंडी सुबह , ना खाने को कुछ ना सोने की जगह और ना आगे जाने का रास्ता. चिंता की रेखाएं सभी के माथे पर नजर आ रही थीं. अत: निश्चय किया गया कि जब तक कोई मदद प्रशासन की तरफ से नहीं आती सभी वाहनों के ड्राइवर और कुछ गाँव के मददगार मिलकर खुद ही रास्ता साफ़ करने की कोशिश करेंगे. गाँव वाले अनुभवी थे उन्होंने कहा कि इस तरह एक एक करके गाड़ी के निकलने भर का रास्ता कल तक बनाया जा सकता है. कोई और चारा ना देख यही किया गया और जिसको जो हथियार मिला वह उसे लेकर सफाई अभियान में जुट गया.पर समस्या सिर्फ इतनी नहीं थी. उस सड़क किनारे ६ खोमचे वाले गाँव में २ चाय की छोटी छोटी दूकान,जिनका कुल जमा २ लीटर दूध,कुछ ८-१० बिस्कुट के पैकेट , कुछ गिनती के समोसे सब १० मिनट में ख़त्म हो गया. और राशन लाने के लिए पास के एक और गाँव जाना पड़ता जो वहां से तकरीबन २० किलोमीटर होगा और पैदल जाकर वह सामान लाने में १ दिन तो लगता. जिसके पास जितना यात्रा के लिए लाया गया खाना पीना था सब निबट गया. शाम हो गई और अब सबसे बड़ी समस्या थी रात बिताने की.कुछ पीछे की तरफ की बसों के यात्री तो बसों में अपनी गाड़ियों में सो सकते थे परन्तु मलवे के पास की गाड़ियों में सोना खतरे से खाली नहीं था ना जाने कब ऊपर से कोई पत्थर आ गिरे. ऐसे में यात्रा के दौरान धर्मशालाओं में टिकने वाले लोग जो बिस्तरबंद साथ लेकर चलते हैं उन्होंने उन दुकानों के आहते में अपना डेरा डाल लिया पर समस्या हम होटल परस्त लोगों की थी जो बिस्तर तो क्या एक चादर तक साथ लेकर चलना जरुरी नहीं समझते. हाँ पर इन विपरीत परिस्थितयों में अगर कोई सबसे ज्यादा खुश था तो वो हम बच्चे. जिन्हें ना इन परेशानियों से मतलब था ना सोने खाने की चिंता. जिन्हें इस माहौल में वो सब करने की आजादी अनायास ही मिल गई थी जिन्हें करने की माता पिता कभी भी इजाजत नहीं देते थे. सड़क छाप दुकानों के लेकर नमकी खाना, नीचे बहती नदी को पास जाकर देखना, वहीँ मिट्टी में बैठकर खेलना, पेड के नीचे लोट पोट हो जाना. हमारे लिए यह यात्रा का सबसे आनंदमयी समय था. रास्ता कब साफ़ होगा इससे कोई सरोकार ना रखते हुए हम बस वहां की गतिविधियों में और कुछ अंग्रेजींदा लोगों का मजाक उड़ाने में व्यस्त थे. जिन बेचारों को वहां की दूकान की चाय अन हाइजिनिक लग रही थी और वहां जमीन पर बैठना लो क्लास, कभी एक तरफ से आवाज आती – “हनी !! आई ऍम स्टार्विंग , कब तक ठीक होगा ये सब…फिर आवाज आती. “वेयर वी गोंना स्लीप?ओह माय गॉड यहाँ तो कोई होटल भी नहीं है”.
दूसरे दिन सुबह होते ही फिर से बाहर से शोर शराबा सुनाई देने लगा. पता चला कि मदद के लिए कुछ लोग पहुँच गए थे. और सड़क साफ़ करने का काम अब सुचारू रूप से होने लगा था . परन्तु पत्थरों का लगातार गिरना अब भी एक समस्या बना हुआ था .खैर दोपहर होते होते उस मलबे में से किसी तरह उबड़ खाबड़ एक रास्ता सा निकाला गया, जहाँ से कम से कम कारों को तो निकला जा सके. पर वो रास्ता ऐसा था कि कोई कितना भी कुशल ड्राइवर हो उसके पसीने छूट जाएँ.एक तरह से अपनी जान हथेली पर लेकर वो रास्ता पार करना था. ज़रा १ इंच भी अगर टायर फिसला तो गाड़ी सीधा नीचे बह रही अलकनंदा की गोद में गिरती. हर कार के निकलने के साथ ही वहां खड़े सबके हाथ अचानक जुड़ जाते, आँखें बंद हो जातीं और हवा में स्वर गूँज जाता “जय बद्री विशाल”. और उस गाड़ी के पार होते ही फिर सब एक गहरी सांस लेते और दूसरी गाड़ी के लिए फिर से हाथ जोड़ लेते.उसपर हमारी टैक्सी मैदानी इलाके की थी और उसका ड्राइवर थोडा सा लंगडाता भी था. उसपर रात भर किस्से सुने थे कि “हर सीजन में अलकनंदा कुछ लोगों की बलि तो लेती ही लेती है” उसका हौसला एकदम पस्त हो गया था. अब यह हालात देखकर अपनी बारी आने पर उसने बिलकुल हाथ खड़े कर दिए. वहां खड़े सब लोगों ने उसे बहुत समझाया , पापा ने बहुत हौसला दिया पर वो टस से मस होने को तैयार नहीं. तभी फिर वही आदमी आया , बोला “तुम फिकर झंन करिए साएब मी छु ना” (“साहब आप चिंता मत करो मैं हूँ ना”) .और वो अपनी पैंट को घुटनों चढ़ाकर जय बद्रीविशाल के नारे के साथ कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. इससे पहले कि पापा कुछ कह पाते पीछे खड़े मददगारों ने पीछे से कार को धक्का दिया और फिर एक जयकारे के साथ कार वो बाधा पार गई. हम उछलते कूदते अपना अपना सामान समेटे अपनी कार में जा बैठे . और खिड़की से पापा का और उस आदमी की वार्ता का नजारा देखने लगे. दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए थे और अपना सिर हिलाए जा रहे थे. थोड़ी देर बाद उसने पापा को पायलाग किया और पापा आकर कार में बैठे और हम चल पड़े .अब पापा ने बताया कि वह उसे कुछ पैसे देने की कोशिश कर रहे थे जिन्हें उस आदमी ने एकदम लेने से इंकार कर दिया, यह कहकर कि आप जैसे लोगों का हमारे घर आना ही हमारा सौभाग्य है . वह ऐसे बर्ताव कर रहा था जैसे उसने हम पर नहीं, बल्कि हमने उस पर कुछ एहसान किया हो.
इस तरह हमारी यह सबसे खूबसूरत यात्रा ख़त्म हो गई , जो मेरे लिए तो उस अवस्था में बेहद ही रोमांचकारी थी. पर मुझे यकीन है कि बाकी लोगों के लिए बिलकुल भी रोमांचक नहीं रही होगी. जिनके मन में बच्चों के खाने , रहने, सोने आदि को लेकर चिंता हो वहां रोमांच का स्थान कहाँ होगा.और शायद आज ऐसी परिस्थिति हो तो मेरे लिए भी यह रोमांच ना होकर चिंताजनक परिस्थिति होगी.
बड़े बूढ़े यूँही नहीं कह गए … बोली से जग जीता जा सकता है …पहाड़ो के लोगों की सरलता को कई बार हमने महसूस किया है ..कुछ साल पहले नवरात्रों में भीमताल जाना हुआ अष्टमी का व्रत जैसे तैसे रख लिया पर नवमी को कन्या पूजन कैसे हो इसी फिक्र में भीमताल के किनारे बात कर रहे थे एक नाव वाला बोला दीदी आप चिंता मत करो …मैं कल सुबह आ जाऊँगा …. सुबह सुबह ..लहंगे चुन्नी में सजी ,क्या बताऊँ जीती जागती गुडिया जैसी आठ कन्याएं … निहारती ही रह गई मैं और मिठाई प्यार से खाई जाते जाते गाल पर पप्पी भी देकर गई
उस दिन एक आंचलिक भाषा से प्रेम और अपनापन काम आया था और तथाकथित पॉश अंग्रेजी भाषा मिटटी में घुटने मोड़े भूखी पड़ी थी…
प्रेम और अपनापन से स्वभाषी तो क्या दूसरी भाषा के लोगों को भी अपना बनाया जा सकता है… प्रेम कि अपनी एक अलग ही भाषा होती है… 🙂
परिस्थिति जो भी हो यह तय है कि कुछ ना कुछ सिखा कर जरुर जाती है और इस यात्रा का सबसे महत्पूर्ण ज्ञान था कि- अपनी भाषा से ज्यादा मूल्यवान कुछ नहीं. भाषा में वो शक्ति है जो किसी अजनबी को भी अपना बना सकती है. और किसी भी इंसान को अपनत्व भरी भाषा के दो बोल से जीता जा सकता है.
पूर्णरूप से सहमति है आपकी इस बात से बहुत अच्छा लिखा है आपने सब कुछ ऐसा लग रहा था जैसे सभी कुछ आँखों के सामने ही चल रहा हो।
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रोमांच अगर जबरदस्ती गले पड जाए तो यात्रा से रोमांस भी हो जाता है . कुछ सालों पहले हम भी काठमांडू से पोखरा , सड़क मार्ग से जाते समय पूरी रात खुले आसमान के नीचे कल कल करती नदी के किनारे बिताया था . लेकिन वहाँ पर कुछ गुमटियां टाइप दुकाने थी जिसमे चिप्स , बिस्कुट और मदिरा उपलब्ध थी .
यहाँ 'रोमांच' विषय भी रहा विश्लेषणात्मक और काफी सरोकारी…
creativity सा…
यात्रा वृत्तान…अपनी मसरूफियत में भी पूरा पढ़ा जाए वैसा…
आपकी ग्रहणशील संवेदनाएं सधी हुई और अभिव्यक्ति भी कमोबेस
सर्जनात्मक…एक अच्छा यात्रा पड़ाव और यात्रा वर्णन…
bahut sundar yatra varnan….yakinan jo uttrakhand aata hai woh yahin ka hoke rah jaata hai…..punshch.suswagtam..!!!
निश्चित रूप से रोमांच जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में अलग अलग प्रकार से उभर कर आता है ….इसे किसी एक दायरे में नहीं बांधा जा सकता ….आपने एक रोचक विवरण प्रस्तुत करके अंतिम पंक्तियों में एक गहरा सन्देश दिया है ….!
वाह इस रोमांच कथा को पढ़कर तो खुद अपने दिमाग में भी सुखानुभूति रसायनों -सेरेटोनिंन आदि का रिसाव हो गया –
मनुष्य की विनम्रता ,विपरीत परिस्थितियों में भी संयम बनाए रखना -ये ऐसे गुण हैं कि समस्या को छू मंतर कर दें
वह मार्ग सचमुच बहुत खतरनाक है -हर वर्ष कितने लोगों की बलि होती है वहां ?
ऐसे रोमांचकारी संस्मरणों को सुनाने वाले भाग्यशाली होते हैं ….
एक जगहं आपने हास्यप्रद शब्द लिखा है -वहां हास्यास्पद भी हो सकता है ..मगर एक बच्चे के लिए हास्यप्रद ही सटीक है –
आपकी हिन्दी कितनी अच्छी होती गयी है -कितना अच्छा लग रहा है यह देखकर !
रोमांचक ।
अपने लोग ।।
शुक्रिया ..
बहुत रोमांचक यात्रा विवरण .
बड़े भले ही उस समय चिंतित रहें , बाद में सोचकर लगता है –ओह वाट ऐ रिलीफ !
ऐसे अनुभव हमें भी कई हुए हैं जिनके बारे में सोचकर आज भी रोमांच महसूस होता है .
bahut hi achha! khichdi khane ka maja hame bhi aa gya! kuch anubhav taje ho gaye!
बहुत रोमांचक संस्मरण ….. मैं तो दो बार टिहरी गयी हूँ जब पापा जॉब में थे … जब तक घर नहीं पहुँच जाते थे साँसे जैसे अटकी रहतीं थीं ….
अंतिम पंक्तियाँ सार्थक संदेश देती हैं …. अपनापन तो सबको मोह ही लेता है पर भाषा का महत्त्व भी बहुत है , जब एक ही स्थान के लोग अपनी भाषा में बात करते हैं तो उनमे अपनापन छलकता हुआ दिखता है ….
यह बात भी सही है की रोमांच सबकी परिस्थिति अनुसार ही होता है …एक ही परिस्थिति किसी के लिए रोमांच बन सकती है तो किसी के लिए चिंता का कारण ….. रोचक प्रस्तुति
Aapka lekhan hamesha badhiya hota hai….janti hun,mera ye kahna sooraj ko diya dikhane jaisa hai!
बड़ी ही रोचक घटना, आत्मीयता क्या नहीं कर सकती है..
रोजक ढंग से लिखा गया संस्मरण पढ़कर अच्छा लगा। पहाड़ों में घूमना आनंद दायक, जीवन बिताना कठिन होता है।
पूरा संस्मरण कल पढ़ती हूँ……
अभी सिर्फ हाजिरी लगाने आई हूँ 🙂
अनु
एक ओर जहाँ पहाड़ उपेक्षित और कठिन है वहीं ऐसे सौन्दर्य, सरलता और आत्मगौरव के दर्शन भी होते हैं। सच है, हिमालय की संतानें दूसरों की जान बचाने के लिये अपनी जान यूँ ही खतरे में डाल देती हैं। मननीय संस्मरण!
आहा रे कतुक भालो भाल लेखि राखो !
रोचक घटना का उम्दा वर्णन …सच है भाषा हमें जोड़ने वाली शक्ति है…..
शायद भगवन भक्त की परीक्षा लेने की सोंची हो….. रोमांचक यात्रा वृतांत.
बहुत ही सुन्दर वृतांत | अपनी पोस्टिंग के दौरान मैं उत्तरकाशी में दो वर्ष रहा हूँ | गंगोत्री , यमुनोत्री , केदारनाथ , बद्रीनाथ सब घूमा भी और लोगों को घुमाया भी | कई बार रास्तों में दिन दिन भर फंसा भी रहा | जाड़ों और बर्फ़बारी में बिजली के खम्भे अक्सर बह और टूट जाते थे | बड़ी खतरनाक साइटें रहीं वहां हमारी | पर मजा बहुत आया , हाँ जोखिम भी खूब उठाया | मुजफ्फरनगर , रामपुर तिराहे की गोली काण्ड घटना के बाद पहाड़ों में क्षेत्रवाद की भावना अत्यंत प्रबल हो गई थी ,जिससे थोड़ी कटुता भी झेली ,मैंने वहां अपनी तैनाती के दौरान | यह बात उत्तरकाशी में भूकंप आने के बाद वर्ष ९३/९४ की है | आपने तो उन बीते दिनों की एकदम याद सी दिला दी |
यह तो बड़ा ही रोमांचक सफ़र रहा। उधर तो कभी जाना नहीं हुआ, तिस पर इस तरह का रोमांच ज़्यादा ही असर उत्पन्न करता है। पत्थरों के गिरने के बारे में भी बहुत कुछ सुना है। सो देखें कब उधर जाने का अवसर प्राप्त होता है।
ऐसे मौके बहुत कुछ सिखा जाते हैं
और यह सीख समय के साथ ही समझ आती है
एक सहज, सरल, रोमांचक संस्मरण
aapki yarta varnan pash kar mn kar raha hai ki abhi ghumne jaun ……………aapki baat vo aapne antim me kahi hai bahut hi uchit aur sarthak hai
badhai
rachana
बड़ी रोचक यात्रा रही। रोचक (जो कभी रोमांचक रहा होगा। विवरण!
आलेख या यह रोचक संस्मरण मुझे बहुत अच्छा लगा क्योंकि अलकनंदा को मैंने भी बद्रीनाथ यात्रा के समय नजदीक से देखा है |
अब आप एस संस्मरणों की भी एक किताब निकालिए…कैसे लिख सकती हैं आप इतना अच्छा और रोचक विवरण, मस्त जबरदस्त पोस्ट!!
Loved it completely 🙂 🙂
रोचक यात्रा संस्मरण आनन्द आ गया। शुभका.
सुन्दर…आपके पिताजी निश्चय ही एक महान इंसान हैं, और आपकी पावन भावना दिल को छू गई…लेखन शैली तो गजब की है ही।
आपके ब्लॉग पर संयोग से आना अच्छा रहा !
सच कहा है … रोमांच की अपनी अपनी परिभाषा है … किसी का रोमांच किसी का डर है …
आपकी अलकनंदा की सैर का संस्मरण रोमांचकारी ही नहीं दिल कों छूने वाला भी है …अपने पन का एहसास ऐसे ही पलों में सामने आता है …
यात्रा तो वाकई रोमांचकारी रही…. आपकी इस पोस्ट को पढ़ते-पढ़ते हमारी भी …. 🙂
अपनी भाषा किसी को भी अपना बनाने में सक्षम है , मगर आजकल बच्चों को आएगी तब तो 🙂
रोमांचक परिस्थितियों में सब दुश्चिंताओं को भुलाकर इनका मजा लिया जा सकता है , बच्चो के लिए यह आसान होता है , अभिभावकों के लिए मुश्किल हो जाती है . बचपन ऐसा ही होता है , तेज गति के झूले , मूसलाधार बारिश , भयंकर गर्मी , बर्फीली हवाएं कुछ भी डराते नहीं थे बल्कि इनका लुत्फ़ लिया जाता था .
रोमांचक यात्रा के इन खूबसूरत पलों को शब्दों के साथ हमने भी जिया .
सच है अपनी भाषा से बड़ा और कुछ नहीं है, जहां कुछ काम नहीं आता वहां अपनी भाषा ही आत्मीयता पैदा करती है।
प्राकृतिक सौन्दर्य एवं रोमांच की चर्चा के साथ एक मुग्ध करता हुआ आलेख। शिखा जी की लेखनी जब भी यात्रा सम्स्मरण पर उठती है तो पाठक उनके साथ चल पड़ता है। सहज भाषा और विषय की सरलता संभवत: रचनाकार की पनी विशिष्ट शिअली के रूप में स्थापित हो चला है। आज के साहित्य की महिला यायावर ..
बधाई शुभकामनायें
पोस्ट बहुत ही अच्छी लगी लगा की हम वही पर है क्योकि एक बार हम भी फंस चुके है इन पहाड़ी इलाके में, तब मै बड़ी थी और बहुत ही डर लगा रहा था कही कोई पत्थर सर पर ना गिर जाये और खीज आ रही थी की पता नहीं कब निकालेंगे | और भाषा जानने वाली बात आप की बिल्कुल सही है |
आपकी इस स्मृति ने वास्तव में स्पंदन कर दिया । फंसे तो हम भी हैं इस रास्ते पर लेकिन बाइक से थे तो जुगाड कर लिया निकलने का
गजब की प्र्स्तुति
आपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है एक आतंकवाद ऐसा भी – अनचाहे संदेशों का … – ब्लॉग बुलेटिन के लिए, पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
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उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार
प्रवरसेन की नगरी प्रवरपुर की कथा
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ पहली फ़ूहार और रुकी हुई जिंदगी" ♥
♥शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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रोमांचक संस्मरण ,,,, विस्मयकारी यात्रा… तुम्हारे आनंद में हम आनंदित हो गए:)
वैसे पहले भी कहा है आपके संस्मरण का अंदाज ऐसा होता है जैसे हम भी उस यात्रा में शामिल हो 🙂
रोचक तरीके से लिखा गया रोमांचक यात्रा संस्मरण!! मज़ा आ गया.
कई सालों पहले हम दिल्ली से जयपुर पिंक सिटी एक्सप्रेस से जा रहे थे. आगरा से जब ट्रेन चली तो थोडी देर बाद ही ताजमहल का शानदार नज़ारा हमारे सामने था. मैं इतनी रोमांचित थी, कि बता नहीं सकती. हम तब तक शीशे पर आखें टिकाए देखते रहे जब तक ताज आंखों से ओझल नहीं हो गया…हमारे लिये अद्भुत नज़ारा था, लेकिन आगरावासियों के लिये??? ठीक वही हाल आप लोगों का था उस समय 🙂 घर की मुर्गी दाल बराबर कहावत ऐसे ही नहीं बन गयी जानी.. 🙂 🙂 🙂
अरे वाह !आपने तो घर बैठे ही यात्रा करवा दी।
अद्भुत!! मेरी ख्वाहिश बन गयी कि एक दिन इसी नजरिये के साथ मैं भी उन नजारों का लुत्फ उठाऊँ..
यात्रा का विचार मन में बोने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया!!! 🙂
आपके यात्रा वर्णन बांधे रहते हैं !
बधाई !
वास्तव में बड़ा रोमांचक अनुभव रहा होगा. अंतिम पेरा की बातों से शत प्रतिशत सहमत.
पहाड़ों की यात्रा और पौराणिक नदियों का साथ
,रास्ते ये जोखिम रोमांच को और गहरा देते हैं.पर्वतवासी सरल-स्वभाव के लोगों का अपनापन मन को बहुत भाता है . ऐसी यात्रायें मन पर कुछ छाप छोड ही जाती हैं .
पहाड़ों के अनुभव- लगता है किसी वयोवृद्ध की स्नेह-छाया मिल गई हो !
संस्मरण रुपी यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी…. अभी तो यहीं से घूम घाम कर आ रहा हूँ.. और पूरी पोस्ट में यह लाइन भाषा में वो शक्ति है जो किसी अजनबी को भी अपना बना सकती है. और किसी भी इंसान को अपनत्व भरी भाषा के दो बोल से जीता जा सकता है… दिल को छूं गईं… बहुत अच्छी पोस्ट…
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