इंटर नेट नहीं था तो उसका एक फायदा हुआ | दो  बहुत ही बेहतरीन पुस्तकें पढ़ने का मौका मिल गया. एक तो समीर लाल जी की ”  देख लूँ तो चलूँ ” आ गई भारत से कनाडा और फिर यॉर्क होती हुई. दूसरी संगीता जी की ” उजला आस्मां ” आखिर कार दो  महीने भारत में ही यहाँ वहां भटक कर पहुँच ही गई.शायद दोनों ही इंतज़ार कर रही थीं कि फुर्सत में पहुंचे. हालाँकि दोनों  ही पुस्तकों को ज्यादातर ब्लॉग पर पढ़ ही चुकी थी परन्तु जीती जागती पुस्तक को हाथ में लेकर आराम से बिस्तर पर पसर कर पढ़ने का जो आनंद है वह कंप्यूटर की बड़ी स्क्रीन पर पढ़ने का भी नहीं आता . सो इस अंतराल में दोनो ही पुस्तके कई बार पढ़ डाली.
समीर जी की  पुस्तक जहाँ रोचक लेखन शैली के कारण दिमाग पर कब्ज़ा जमाए रहती है वहीँ संगीता जी की कविताओं का संकलन दिल पर कब्ज़ा कर लेता है .
जहाँ समीर लाल जी के संस्मरण की एक एक घटना प्रवासियों के लिए अपनी ही कहानी कहती है , वहीँ संगीता जी की कविताओं में सामाजिक समस्यायों और भावों की विवधता अचंभित कर देती है.
समीर जी की पुस्तक का पात्र हर वो इंसान है जो अपने देश को छोड़ कर विदेश में बस गया परन्तु फिर भी अपनी मिट्टी  के लिए छटपटाता है और उससे जुड़े रहने की  भरसक  कोशिश करता है. उस पर बीच बीच में चुटीली भाषा का प्रयोग और रोचक घटना क्रम पूरी पुस्तक को एक ही बैठक में पढ़ जाने के लिए विवश करते हैं.
संगीता जी की कवितायेँ यथार्थ और भावनाओं का बेहतरीन संगम है.उनकी रचनाओं की गहराई हमेशा ही मुझे आकर्षित करती रही है. अंतरजाल पर भी जब तब उनका ब्लॉग खोल कर मैं बैठ जाती हूँ तो अब तो पुस्तक हाथ में है कंप्यूटर ऑन  करने की जहमत भी बची. हर भाव,संवेदनशीलता ,सामजिक समस्या और सरोकार को समेटे हुए यह संकलन निसंदेह ही संग्रहणीय है.
इन पुस्तकों के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है. बहुत सी समीक्षाएं भी हो चुकी है. यह कोई समीक्षा नहीं. न ही मैं समीक्षक हूँ न ही इस काबिल कि इन पुस्तकों की समीक्षा कर सकूँ.
मैं बस एक प्रसंशक हूँ इन दोनों रचनाकारों की लेखन शैली की.और यह आभार है इन दोनों को जो इन्होने अपनी कीमती पुस्तकें मुझ तक पहुंचाई. शिबना प्रकाशन से छपी ये दोनों ही पुस्तके निसंदेह मेरे सिरहाने पर बने एक छोटे से पुस्तकालय के लिए अमूल्य धरोहर हैं जहाँ से जब तब मैं हाथ बढा  कर इनके पाठन का मजा ले लिया करती हूँ.
समीर लाल जी और संगीता जी को बहुत बहुत धन्यवाद और टोकरा भर
कर शुभकामनाये .उनकी लेखनी यूँ ही चलती रहे और ऐसी ही 


बहुत सी पुस्तकें मेरे पुस्तकालय की आजीवन सदस्य बनती रहें