गुजर गया 2012 और कुछ ऐसा गुजरा कि आखिरी दिनों में मन भारी भारी छोड़ गया। यूँ जीवन चलता रहा , दुनिया चलती रही , खाना पीना, घूमना सब कुछ ही चलता रहा परन्तु फिर भी मन था कि किसी काम में लग नहीं रहा था . ऐसे में जब कुछ नहीं सूझता तो मैं पुस्तकालय चली जाया करती हूँ और वहां से ढेर सी किताबें ले आती हूँ और बस झोंक देती हूँ खुद को उनमें। पर इस बार कुछ पढने लिखने का भी मन नहीं था. फिर भी,  पहुँच गई लाइब्रेरी. कुछ अंग्रेजी किताबें उठाईं, फिर सोचा एक नजर हिंदी वाली शेल्फ पर भी डाल ली जाये, हालाँकि उस शेल्फ की सभी किताबों को मैं जैम लगाकर चाट चुकी हूँ फिर भी लगा काफी अरसा हो गया हो सकता है कोई नई ट्रीट मिल जाये, और शायद वह दिन कुछ अच्छा था। मेरी नजर एक कुछ जाने पहचाने से नाम पर पड़ी, हालाँकि लेखिका से मेरा कोई संपर्क नहीं, पर ब्लॉग पर थोडा बहुत उन्हें पढ़ा था, मैंने झट से वह किताब उठाई और शायद इतने दिनों की यह किताबी प्यास थी या किताब पर छपा वह कुछ जाना सा नाम, कि मुझसे रहा नहीं जा रहा था। अत: बेटे को हॉट चोकलेट पिलाने के बहाने मैं वहीँ एक कॉफ़ी शॉप में जा बैठी और जो पन्ने पलटने शुरू किये तो डेढ़ घंटे में कॉफ़ी तो ख़तम नहीं हुई पर किताब ख़तम कर डाली 
यह किताब थी – “कठपुतलियाँ “
और लेखिका थीं – मनीषा कुलश्रेष्ठ।

मनीषा कुलश्रेष्ट की कुछ कवितायें मैंने यूँ ही ब्लॉग्स पर टहलते हुए पढ़ीं थीं और कुछ उनका नाम फेसबुक पर कुछ मित्रों के स्टेटस पर टिप्पणी के साथ देखा था। जिनमें उनकी भाषा शैली और वर्तमान परिवेश की सटीक समझ ने मुझे काफी प्रभावित किया। इस कहानी संग्रह “कठपुतलियाँ ” की कहानियों ने, न सिर्फ वह प्रभाव बढाया बल्कि मौजूदा कहानीकारों में उन्हें मेरा पसंदीदा कहानीकार बना दिया।

मनीषा ने अपनी कहानियों में उन सभी समस्यायों और बातों पर प्रकाश डाला है जिन्हें हम आज के हिंदी साहित्य में बोल्ड विषय कह सकते हैं, परन्तु इतनी खूबसूरती से उनकी विवेचना की है कि वह पूरी बात स्पष्ट कह जाती हैं और कहीं भी कोई भी शब्द या वाक्य असहज नहीं लगता।
और यही बात मुझे लगातार महसूस होती रही कहानी “कठपुतलियाँ” में कि – जब स्त्री , पुरुष संबंधो से जुडी किसी बात को इतने खूबसूरत बिम्बों के सहारे और इतने सहज और सुन्दर तरीके से कहा जा सकता है कि पाठक को न तो वह पढने में असहज लगें न अश्लील और न ही उसे अपने बच्चों को वह पढने को कहने में शर्म आये , तो फिर क्यों साहित्य में उत्कृष्टता, और सत्यता के  नाम पर वही बातें इस तरह से कहीं जाती हैं कि उन्हें पढने में असहजता होने लगे।

यहाँ हो सकता है मैं रूढ़िवादी हो रही हूँ। परन्तु बेवजह, कुछ खास शब्दों के सहारे रचना को उत्कृष्ठता ,यथार्थ और प्रगतिशीलता का जामा पहना कर चर्चा और समाज सुधार का बहाना करती रचनाएं मुझे आकर्षित नहीं करतीं. बोल्डनेस और बोल्ड लेखन सिर्फ सेक्स नहीं होता। और यहीं मनीषा मुझे उन सब से कुछ अलग लगती हैं।

इस संग्रह में कुल नौ कहानियाँ हैं – कठपुतलियाँ , प्रेत कामना, रंग-रूप-रस-गंध , भगोड़ा, परिभ्रान्ति, अवक्षेप, कुरजाँ , बिगडैल बच्चे, स्वाँग .
सभी कहानियों में लेखिका की विषय सम्बंधित गहरी पकड़ परिलक्षित होती है। परन्तु सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया कहानी “बिगडैल बच्चे” ने .जितने संतुलन से कहानी आगे बढती है और जिस कुशलता से लेखिका उस वातावरण को और पात्रों के चरित्र को पकडे रहती है प्रशंसनीय है। 
वर्तमान और अतीत के परिवेश, पुरानी पीढी की नई पीढी से होड़ , सोच और रहन सहन का आपसी द्वन्द और फिर उसका एक कॉमन जगह पर आकर मिल जाना कमाल का तालमेल दिखाता है। 
बहुत कम कहानियाँ ऐसी होती हैं जो पढने के बाद दिल पर गहरी छाप छोड़ जाती हैं, कहानी जो किसी की सोच बदल सकती है, कहानी जो परिवेश और माहौल को प्रभावित कर सकती है, कहानी जो यथार्थ से रू ब रू कराती है, और मेरी जैसी एक साधारण पाठक को, जिसे न कहानी शिल्प की समझ है न समीक्षा की, उसे मजबूर कर देती हैं कि कहूँ इसके बारे में कुछ , कुछ तो।
अभिनन्दन मनीषा कुलश्रेष्ठ  !!! आपकी सुलझी हुई शानदार सोच को सलाम।