रूस के गोर्की टाउन से कर
इंग्लैण्ड के स्टार्ट फोर्ड अपोन अवोन
 तक और मास्को के पुश्किन हाउस  से
लेकर लन्दन के कीट्स हाउस तक। ज़ब जब किसी लेखक या शायर का घर
, गाँव सुन्दरतम तरीके से संरक्षित देखा हर बार मन में एक  हूक उठी कि काश ऐसा ही कुछ हमारे देश में भी
होता। काश लुम्बनी को भी एक यादगार संग्रहालय के तौर पर संरक्षित रख
, यात्रियों और प्रशंसकों के लिए विकसित किया जाता, काश
महादेवी वर्मा का घर
 कौड़ियों के दाम न बेचा जाता, काश आगरा की उस आलीशान हवेली
में लड़कियों का
 कॉलेज न खोल
दिया जाता जहाँ
 बाबा-ए-सुख़न पैदा हुआ.

पर ये काश तो काश ही हैं. 
हुई मुद्दत कि ग़ालिबमर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
हमें अपनी धरोहर सहेजने की आदत
नहीं
,या फिर जिस देश में अनगिनत नागरिकों के पास छत नहीं वहां
किसके पास फुर्सत है जो इन कलमकारों के घरों को संजोयें।
कुछ ही समय पहले फेसबुक पर अचानक कुछ लोगों की वाल पर तस्वीरें दिखाई देने लगीं ,  मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली की तस्वीरें, तब पता चला कि पुरानी
दिल्ली में ग़ालिब की एक हवेली अब भी मौजूद है. जहाँ उन्होंने अपनी
 ज़िन्दगी के कुछ आखिरी वर्ष बिताये। तब से इच्छा थी कि एक बार उस सुखनवर से मिल कर आया जाए.
परन्तु हमेशा बेहद छोटा और व्यस्त
रहने वाला भारत प्रवास
, गर्मी का मौसम और उसपर चांदनी
चौक की बल्लीमारान गलियों का खौफ
,  चाह कर भी हिम्मत न
होती थी कि अकेले ही कभी वहां घूम आया जाए.
फिर इस बार जब दिल्ली पुस्तक मेले
के बाहर हम खड़े यह सोच रहे थे कि अब कहाँ चला जाये
,अभिषेक ने
लाल किला सुझाया। तभी मेरे दिमाग की घंटी बजी कि लाल किला भी तो पुरानी दिल्ली में
ही है. यानि चांदनी चौक भी ज्यादा दूर नहीं होगा। अत: ग़ालिब चाचा से मुलाकात का
मौका बन सकता है. तुरंत यह मंशा अभिषेक के सामने रखी. अब भतीजे की इतनी हिम्मत
नहीं थी
 कि  चचा से
मिलने को मना कर सके
, या फिर मुझे ही मना कर सके :)हालाँकि
वह वहां पहले भी जा चुका था. अत: हमने ऑटो पकड़ा और चल दिए ग़ालिब चाचा की हवेली।
यूँ बात सदियों पहले की हो तो
जाहिर है किसी नई सुविधा जनक स्थान पर तो होगी नहीं। दुनिया में जहाँ भी ऐसे घर या
संग्रहालय हैं पुराने इलाकों में ही हैं. और वहां आने जाने के लिए भी
 आधुनिक सुविधाएं नहीं होतीं। सो यह जानकार कि ऑटो कुछ दूर तक जाएगा और
उसके बाद रिक्शा लेना पडेगा
,मुझे कोई हैरानी नहीं हुई थी
बल्कि थोडा उत्साह ही था कि इसी बहाने कुछ पुराना/वास्तविक
 सा माहौल देखने को मिलेगा। परन्तु कल्पना में
और हकीक़त में बहुत
 फ़र्क हुआ
करता है. पहले तो
 ऑटो के रास्ते पर ही इतना ट्रैफिक था कि हमारे गाइड महोदय को भी लगने लगा कि मेट्रो की जगह ऑटो
से आना गलत
 फैसला था. उसके बाद जो रिक्शा का रास्ता था
उसमें तो पांच मिनट के रास्ते के लिए हमें आधा घंटा लगा.
 

लोकतंत्र वहां अपने चरम पर नजर आ
रहा था. जिसका जैसा मन वैसे चल रहा था. जहाँ मन वहां गाड़ी खड़ी करके बैठा था. और
जिसका जितनी जोर से मन उतनी जोर से बीच सड़क पर फ़ोन पर चिल्ला-
 चिल्ला कर बातें कर रहा था. खैर अब आ ही गए थे तो बजाय इन सब से परेशान
होने के हमने इनका आनंद लेना ज्यादा उचित समझा। और उस इलाके की मशहूर जलेबियों और
 कचौरियों की चर्चा करते हम धैर्य के साथ रिक्शे में बैठे रहे. 
बल्लीमारान के उस इलाके में,  पहली और आखिरी बार मैं यही कोई ८-१० वर्ष की
अवस्था में गईं होऊँगी।ज्यादा कुछ याद तो नहीं था. पर इतना फिर भी याद है कि उस
समय भी वे गलियाँ आज जैसी ही थीं. शायद लोगों की उम्र के अलावा कहीं कुछ नहीं बदला
था वहां। तब भी वहां ग़ालिब की हवेली को कोई नहीं जानता था. आज भी उसी गली में होते
हुए भी किसी रिक्शे वाले को उसका पता न था. यदि साथ में अभिषेक न होता तो
 यकीनन ग़ालिब की उस कासिम खान गली तक पहुँच कर
भी उनकी  हवेली तक मैं नहीं पहुँच
 सकती थी. 
खैर हम उस हवेली के मुख्य द्वार तक
पहुँच गए जो खुला हुआ था.
 जहां १५० साल पहले उर्दू का
वह महान शायर रहा करता था.जहां १८६९ में ग़ालिब की मौत के बाद फ़ोन बूथ व अन्य
दुकाने खुल गईं थीं
, लोगों ने अपना कब्जा कर लिया था.और आज
भी जिसके अधिकाँश हिस्से में यही सब काबिज है.
 
सन २००० में भारतीय सरकार की
आँखें खुलीं और उन्होंने इस हवेली के कुछ हिस्से को कुछ कब्जाइयों से
 छुड़ा कर उस महान शायर की यादों के हवाले कर
दिया। आज उसी छोटे से हिस्से के बड़े से गेट पर
 चौकीदार  कम गाइड कम परिचर एक बुजुर्गवार बैठे हुए थे.
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हमारे अन्दर घुसते ही वे पीछे
पीछे आ गए और जितना उन्हें उस हवेली के छोटे से हिस्से के बारे में मालूम था प्रेम
से बताने लगे.
उन्होंने ही बताया कि सरकार के इस
हिस्से को संग्रहालय के तौर पर हासिल करने के बाद भी कोई यहाँ नहीं आता था
, वो तो कुछ वर्ष पहले गुलज़ार के यहाँ आने के बाद यह हवेली लोगों की निगाह
में आई और अब करीब १०० देसी
, विदेशी यात्री यहाँ रोज ही आ
जाया करते हैं.
 

हालाँकि उनकी इस बात पर उस समय
मेरा यकीन करना कठिन था
, क्योंकि जहाँ पहुँचने में हमें इतनी परेशानी हुई थी. वहां
बिना किसी बोर्ड
, दिशा निर्देश के कोई बाहरी व्यक्ति किस
प्रकार आ पाता
 होगा। और उस समय भी और जबतक हम वहां रहे
तब तक
, हमारे अलावा वहां कोई भी नहीं आया था. पर शायद यह
बताने
 के पीछे उन सज्जन का एक और उद्देश्य था – वह शायद
बताना चाहते थे कि
,  यूँ तो वह सरकार के कर्मचारी हैं
और निम्नतम तनख्वाह पर ग़ालिब की सेवा करते हैं पर आने जाने वाले यात्री ही कुछ
श्रद्धा भाव दे जाते हैं.
खैर हवेली में प्रवेश करते ही
सामने ग़ालिब की प्रतिमा दिखी जिसे गुलज़ार साहब ने वहां लगवाया है और साइड में
ग़ालिब अपनी बड़ी सी तस्वीर में से कहते जान पड़े –
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत है! कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं.
वाकई उस बड़ी सी हवेली के उस छोटे
से हिस्से में कुछ गिना चुना २-४ सामान ही पड़ा हुआ है।  
वह फ़िराक़ और वह विसाल कहां,
वह शब-ओ- रोज़ -ओ-माह -ओ -साल कहाँ।
यहाँ तक कि उस बरामदे की छत को भी
अभी हाल में ही कबूतरों के आतंक से तंग आकर बनवाया गया है. कुछ दो चार बर्तन हैं।
 जो ग़ालिब के थे वे तो पिछले दिनों चोरी हो गए
, अब उनकी नक़ल रख दी गई है।  कुछ दीवान हैं शायर के, एक चौपड़ , एक शतरंजऔर
दीवारों पर शायर की
 कहानी कहती कुछ तस्वीरें। शायद बस यही रहे हों साथी उनके आखिरी दिनों में , और
शायद इसीलिए उन्होंने कहा –
चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों
के ख़ुतूत
,
बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ
निकला ।
हालाँकि वहां उपस्थित उन सज्जन ने
बताया कि सरकार की तरफ से केस चल रहा है और उम्मीद है कि पूरी हवेली को हासिल करके
कायदे से ग़ालिब के हवाले किया जाएगा। क्योंकि ग़ालिब की अपनी सातों  संतानों
में से कोई जीवित नहीं रही अत: उस हवेली का कोई कानूनन वारिस अब नहीं है. लोगों ने
अनाधिकारिक तौर पर कब्जा किया हुआ है. हमने चाहा तो बहुत कि उसकी इस बात पर भरोसा
कर लें. तभी एक बोर्ड पर राल्फ़ रसल के ये शब्द दिखे
 –
यदि ग़ालिब अंग्रेजी भाषा में लिखते, तो विश्व एवं इतिहास के महानतम कवि होते “
 मेरे मन में आया – यदि ग़ालिब भारत की जगह इंग्लैण्ड
में पैदा होते
, तो वहां इनके नाम का पूरा एक शहर संरक्षित होता।
 भारत में उनके नाम की उनकी गली भी नहीं।
सरकार से तो उम्मीद क्या करनी एक
दरख्वास्त गुलज़ार साहब से ही करने का मन है
, एक प्रतिमा हवेली
के अन्दर लगवाई
, तो हवेली प्रकाश में आई, कम से कम एक बोर्ड और बल्लीमारान गली के बाहर लगवा दें तो वहां तक आने
वालों को भी कुछ सुविधा हो जाये.
हम उस हवेली से निकल आये उस गली
को पीछे छोड़ आये पर साथ रह गया चचा का यह शेर –
हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन 
खाक़ हो जायेंगे हम तुमको ख़बर
होते तक