मोस्को में पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान, हमारे मीडिया स्टडीज के शिक्षक कहा करते थे कि पत्रकारिता किसी भी समय या सीमा से परे है. आप या तो पत्रकार हैं या नहीं हैं. यदि पत्रकार हैं तो हर जगह, हर वक़्त हैं. खाते, पीते, उठते, बैठते, सोते, जागते हर समय आप पत्रकारिता कर सकते हैं. आप बेशक सक्रीय पत्रकार न हों परन्तु आपके अंदर की पत्रकारिता कभी मरती नहीं। “जर्नलिज्म नेवर डाइज”
उस समय तक कंप्यूटर का तो दुनिया से परिचय हो गया था परन्तु नेटवर्क के माध्यम आज जैसे नहीं थे. अत: ये बातें हमें एक विषय वस्तु सी ही जान पड़तीं थीं. जिन्हें परीक्षा में दोहराया और नंबर मिल गए.
वक़्त ने करवट बदली और इंटरनेट के माधयम का विस्तार हुआ, ब्लॉग आया, सोशल साइट्स आईं और तब जाकर मुझे छात्र जीवन में सीखी इस बात का मर्म समझ में आने लगा.

ब्लॉग के शुरूआती दिनों में शौकिया लेखन करते समय बहुत से वरिष्ठों ने मुझे सलाह दी कि अपने अंदर के पत्रकार को जगाओ और जब लिखती ही हो तो पत्र- पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजो। परन्तु वह मेरा पूर्वाग्रह था जो मुझे कहीं भी कोई भी रचना या आलेख भेजने की इजाजत नहीं देता था. मुझे यह यकीन था कि बिना पूर्व सूचना के, खासकर एक नए और अनजान व्यक्ति द्वारा भेजी गई कोई भी रचना संपादक द्वारा पढ़ी तक नहीं जाती और उसे बिना देखे ही कचरे की पेटी के हवाले कर दिए जाता है. लेकिन ब्लॉग ने मुझे इतना यकीन अवश्य दिलाया था कि आप यहाँ लिखने आये हैं तो सिर्फ लिखिए, यदि आपके लिखे में थोड़ा सा भी दम है तो उसे  आज नहीं तो कल नोटिस जरूर किया जायेगा।

मेरा यह विश्वास काफी हद तक ठीक निकला और धीरे धीरे मेरी सोई हुई पत्रकारिता को हवा मिलने लगी. फिर देश विदेश के पत्र पत्रिकाओं में छोटे छोटे लेख, फीचर, कवर स्टोरी, स्तम्भ, पुस्तकों से गुजरता हुआ मेरा यह सफर कब पुरस्कारों तक आ पहुंचा मुझे पता भी न चला.

अत: जब यू के में हिंदी मीडिया में योगदान के लिए उच्चायोग द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी मीडिया सम्मान मुझे मिलने की सूचना, मुझे मिली तो मेरे लिए वह अद्भुत घड़ी थी. और इस घोषणा के औपचारिक पत्र के प्राप्त होने तक मुझे यकीन तक नहीं हो रहा था.
आखिर ५ दिसंबर २०१४  की वह शाम आ गई जब भारतीय उच्चायोग लंदन में, माननीय उच्चायुक्त रंजन मथाई द्वारा यह सम्मान दिया जाना था. इंडिया हाउस का गांधी हॉल यू के के साहित्यकारों, हिंदी प्रेमियों और अन्य गणमान्य विभूतियों से भरा हुआ था शुरूआती जलपान के बाद कार्यक्रम सही समय पर आरम्भ हुआ.

इस कार्यक्रम में भारतीय उच्चायोग द्वारा सन  २०१३ एवं २०१४ के लिए लेखन, अध्यापन, पत्रकारिता, संस्था केलिए सम्मान एवं प्रकाशन के लिये अनुदान प्रदान किये गये।

कार्यक्रम की शुरुआत हिन्दी अधिकारी श्री बिनोद कुमार के सञ्चालन से हुई व मन्त्री समन्वय श्री एस.एस. सिद्धु ने सम्मानित विभूतियों एवं आमन्त्रित मेहमानों का स्वागत किया।

उसके बाद  उच्चायुक्त श्री रंजन मथाई ने शील्ड, प्रशस्ति पत्र एवं शाल से साहित्यकारों को नवाज़ा। जिसके तहत – समग्र लेखन हेतु – सोहन राही एवं कविता वाचक्नवी को हरिवंश राय बच्चन सम्मान

पत्रकारिता के लिए – शिखा वार्ष्णेय एवं रवि शर्मा को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी मीडिया सम्मान

हिंदी शिक्षण हेतु – देविना ऋषि एवं जूटा ऑस्टिन को जॉन गिलक्रिस्ट शिक्षण सम्मान

तथा वातायन और काव्य धारा संस्थाओं को फेड्रिक पिकेट हिंदी प्रचार -प्रसार सम्मान प्रदान किया गया.

उप-उच्चायुक्त डॉ. विरेन्द्र पॉल ने ज़किया ज़ुबैरी, शैल अग्रवाल, तेजेन्द्र शर्मा, वन्दना मुकेश शर्मा  को लक्ष्मीमल सिंघवी अनुदान प्रदान किये। 


और अंत में प्रथम सचिव (समन्वय) श्री प्रीतम लाल ने धन्यवाद ज्ञापन देकर कार्यक्रम को विराम दिया।
जिसके पश्चात शानदार भोज की भी व्यवस्था थी.

मेरे लिए यह एक भावुक घड़ी थी, क्योंकि यह उस सपने का सम्मान था जिसे मैं कभी देखा तो करती थी परन्तु समय के साथ पूरी तरह भुला चुकी थी. यह मेरे उस परिश्रम को मिली हुई पहचान थी जिसके तहत मैं पत्रकारिता में संग्लग्न हूँ.

और इसलिए सम्मान के बाद जब वहां बोलने को कहा गया तो मुझसे कुछ नहीं बोला गया.भावुकता में सब गुड़ -गोबर कर दिया मैंने। अब कुछ लोगों को थैंक यू कहने का मन है

-कुछ उन को जिन्होंने गुरु की तरह बहुत कुछ सिखाया, जो एक भी कौमा या विराम रह जाने पर झूठे गुस्से से कहते – पता नहीं कैसे लिखती हो चिह्न तो लगाती ही नहीं हो.-कुछ

 -उन वरिष्ठों को जिनका स्नेह और विश्वास हमेशा बना रहा. जब जब भी इस लेखन क्षेत्र ने डराया उन्होंने यकीन दिलाया ” तुम अलग हो, मौलिक हो, बस लिखती रहो.
-कुछ उन दोस्त नुमा आलोचकों का जिन्होंने प्रोफेशनल होना सिखाया जो मेरी ब्लॉग पोस्ट पर खीज कर कहते “कितना मैं मैं करती हो यार, अखवार में लगाने जाओ तो एडिट करने में नानी याद आ जाती है.

 -कुछ उन दोस्तों का जो गाहे बगाहे मुझे धकेलते रहे, निरंतर लिखवाते रहे. जब जब मेरा मन ऊबा उन्होंने यह कह धक्का मारा “चुड़ैल चुपचाप जा कर लिख कुछ अच्छा सा”.

 -कुछ उन अनुजों का जो हरदम हर वक़्त मेरी हौसला अफजाई के लिए मेरे साथ खड़े मिले।

-परिवार का, उन अपनों का जो बहुत दूर हैं पर जिनकी दुआएं और प्रेम हरदम एकदम करीब होते हैं.

और सबसे ज्यादा आप पाठकों का, आप सब का जो मेरे लगातार लिखने की प्रेरणा हैं.


राह मिल गई, मकाम बाकी है
सपनों को मेरा सलाम बाकी है
बाहों ने सिर्फ अंगड़ाई ली है
अभी तो पूरा व्यायाम बाकी है.