जैसा कि आपने जाना कि अब जीविकोपार्जन  के लिए हमने एक छोटी सी कंपनी में ऑफिस  एडमिनिस्ट्रेटर /इन्टरप्रेटर की नौकरी कर ली थी .क्योंकि अब  क्लासेज़ में जाना उतना जरुरी नहीं रह गया था.अब बारी थी स्वध्ययन  की , अब तक जो भी पढ़ाया गया है उन सब को समझने की , समीक्षा करने की, पढाई हुई जानकारी का उपयोग करने की और अपने थीसिस के विषय के बारे में सोचने की. तो नौकरी के चलते  हमने क्लासेज़  जाना  थोड़ा  कम कर दिया था और उसकी जगह मॉस्को  की लेनिन लाएब्रेरी  ने ली थी .जो  एक सागर था जिसमें ना जाने कितने अमूल्य मोती और जवाहरात थे जिन्हें आपने ढूँढ  लिया तो बस हो गए आप मालामाल .यह रूस की सबसे बड़ी और विश्व की तीसरी सबसे बड़ी लाएब्रेरी  है जहाँ पूरे विश्व से 17.5 मिलियन किताबें उपलब्ध हैं  .
लेनिन लाएब्रेरी और उसके आगे बैठे दोस्तोयेव्स्की.
अब जहाँ जिन्दगी आसान हो गई थी वहीँ अब पढाई गंभीरता से करने का समय भी आ गया था. अब तक के ३ साल में हमें लॉजिक  से लेकर टी वी टेक्निक तक और फिलॉसफी   से लेकर प्राचीन  साहित्य तक सब कुछ पढाया जा चुका था और  टीचर  के आगे “रूसी भाषा ठीक से समझ में नहीं आई” का बहाना भी नहीं चलने वाला था.सो कुछ तकनीकि  विषयों के साथ ही साहित्य  के लिए अभी भी हम क्लासेज़, टीचर के लेक्चर और सेमीनार पर निर्भर करते थे. उसकी कई वजह थीं एक तो क्लासेज़  में टीचर को आपकी शकल दिखे तो उसे छात्र की  नेक नीयति  और गंभीरता .का एहसास होता है जो आपकी इमेज  के लिए बहुत अच्छा होता है ,दूसरा टीचर के मुँह  से निकली पंक्तियाँ अगर एक्ज़ाम्स  में बोली जाएँ तो हर टीचर को गर्व और आत्म संतुष्टी  की अनुभूति होती है और यह भी आपके लिए बहुत फायदेमंद  रहता है. पर सबसे अहम् था हमारा अपना स्वार्थ क्योंकि साहित्य कहीं का भी हो रूसी भाषा में उसे पढना और समझना आसान कहीं से नहीं था . यूँ तो  पुश्किन के लिए कहा जाता है  कि उसने स्लावोनिक (प्राचीन रूसी भाषा.) से अलग मॉडर्न भाषा को अपनाया और उसे निखारा परन्तु हमारे लिए तो वह कवितायेँ पढना 
ऐसा ही था जैसे कि नए नए हिंदी प्रेमी को बिहारी या कबीर पढने और समझने को कह दिया जाये.
या भले ही दोस्तोयेव्स्की को एक उम्दा मनोचिकित्सक की उपाधि दी गई हो कि उनकी रचनाओ में मानवीय स्वभाव  को बेहतरीन तरीके से समझा गया. परन्तु हमें उनकी मानसिकता समझने में नानी -दादी सभी याद आ जाते थे.हाँ वही चेखोव को उनकी छोटी कहानियों की वजह से या टॉल्सटॉय  को उनके यथार्थवादी  अंदाज की वजह से समझना थोडा आसान अवश्य होता था. उसकी एक वजह यह भी थी कि टॉल्सटॉय हिन्दू धर्म,और अहिंसा से भी बहुत प्रभावित थे और युवा गांधी से भी, जिन्हें उन्होंने कुछ पत्र भी लिखे थे.वे पत्र १९१० के उनके पत्रों में शामिल हैं . .वैसे भी टॉल्सटॉय पर शेक्सपीयर का और बाकी योरोपियन लेखकों का भी बहुत प्रभाव था .( जैसे शेक्सपियर ही बड़ा समझ में आता था हमें 🙂 ).तो इसलिए सभी महान  साहित्यकारों और उनकी महान कृतियों को समझने के लिए   क्लास में जाना ही बेहतर समझते थे जहाँ अपने नाम के अनुरूप ही बहुत प्यारी सी हमारी साहित्य की अध्यापिका “गालूश्का  “पूरी तन्मयता से हर कृति की व्याख्या किया करती थी. परन्तु सबसे ज्यादा आनंद हमें आता था प्राचीन ग्रीस का साहित्य सुनने में फिर वह चाहे “होमर ” का ओडेसी” हो या फिर कोई और  उनकी भी हर प्राचीन रचना हमारे प्राचीन भारतीय साहित्य  की तरह किंवदंतियों और लोककथाओं पर आधारित होती थीं लगभग हर कहानी में ही, हीरो का युद्ध के लिए अपनी नव प्रेमिका या पत्नी को छोड़कर चले जाना ,विछोह ,फिर युद्ध में लापता हो जाना उधर घर पर  उसका बेटा या बेटी होना , फिर २० साल बाद एक जंगल में उनका मिलना और सच्चाई से अनजान अपने बेटी या बेटे से ही प्यार कर बैठना .फिर सच्चाई का पता चलना और फिर वही बिछोह की पीड़ा ..पता ही नहीं चलता था कि कौन किसका पिता और कौन किसका बेटा और ये सब बहुत ही जज़्बात  और हावभाव के साथ हमारी प्यारी गालूश्का सुनाया  करती थी और हम सब तब मुँह  दबा कर हँसते हुए अपनी प्राचीन रचनाओं को भूल जाते थे जहाँ कभी किसी घड़े में से बालिका का जन्म हो जाता है. तो कहीं तालाब में नहाने गई नायिका सूर्य की  किरणों से गर्भवती हो जाती है. कहीं माँ के कहने पर ५ भाई बड़ी ही दरियादिली से एक दुल्हन आपस में बाँट लेते हैंखैर आज जो कुछ भी थोड़ी  बहुत विश्व साहित्य की हमें समझ है सब हमारी उस अध्यापिका की बदौलत  है. तब तो तुर्गेनेव,  क्रम्जिन, दोस्तोयेव्स्की आदि आदि पर बहुत गुस्सा आता था.परन्तु आज जब यहाँ पुस्कालय में इन्हें ढूढने निकलती हूँ और हताशा मिलती  है तो लगता है काश उस समय का थोडा और सदुपयोग कर लिया होता 

क्योंकि मुझे लगता है कि किसी भी साहित्य को उसकी मूल भाषा में ही पढ़ा जाना चाहिए तभी साहित्य का मजा लिया जा सकता है .और यही वजह है कि बँगला साहित्य के प्रति गहरा आकर्षण होते हुए भी रविन्द्र ठाकुर की गीतांजली  आज तक मैंने पढने की हिम्मत नहीं की. क्योंकि ज्यादातर अनुवादों में शिल्प और व्याकरण के चलते  भावों से समझौता कर लिया जाता  है.और इससे उस कृति की आत्मा ही नष्ट हो जाती है.
यह है गोर्की का गाँव 

खैर यहाँ बात मेरी नहीं साहित्यकारों की हो रही थी वैसे बाकी जगह ( खासकर यूरोप में )भारत से इतर मैंने एक बात बहुत नोट की.कि वहां इन महान लेखकों और कवियों के जन्मस्थल को मूल रूप में ही संरक्षित करने की कोशिश कि गई है और उन्हें दर्शकों के ज्ञान वर्धन के लिए संघ्रालय सा बनाकर रखा गया है. इसी तरह रूस में भी सभी महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध रचना कारों के निवास स्थानों को बहुत खूबसूरती से संरक्षित किया गया है .जिसमें से पुश्किन और गोर्की के गाँवों की सैर हमने भी की .हालाँकि जाने क्यों गोर्की के उपन्यास मुझे बिलकुल भी आकर्षित नहीं करते परन्तु उनके गाँव को देखकर अजीब सी खुमारी महसूस की मैंने शायद वहां की स्वच्छ निर्मल हवा का असर था या फिर गाँव की पृष्ट भूमि और उसके प्रति मेरा असीमित लगाव .मेरे एक  एल्बम में गोर्की टाउन  का  एक चित्र देखकर अभी कुछ दिन पहले एक मित्र ने एक चुटकी भी ली थी कि “कोई तो गोर्की को बोर  कह रहा था “जो कि उनसे बातचीत के दौरान मैंने कहा भी था 🙂 .पर फिर मैंने यही कहा कि अब यह तो कोई जरुरी नहीं कि अगर कोई हमें बोर लगे तो उसके खूबसूरत घर हम चाय पीने  भी नहीं जा सकते.:) क्या पता वहां का माहौल देखकर हमारा नजरिया कुछ बदल जाता .वैसे वहां जाने के बाद गोर्की की छोटी कहानियां मुझे अच्छी लगने लगी थी .अब चाय का क़र्ज़ भी तो निभाना होता है ना .:) बाकी चाय ब्रेक के बाद …:)  

गोर्की के घर चाय पीने के बाद फोटो भी.