जाने किसने छिड़क दिया है तेज़ाब बादलों पर,
कि बूंदों से अब तन को ठंडक नहीं मिलती.

बरसने को तो बरसती है बरसात अब भी यूँही,
पर मिट्टी को अब उससे तरुणाई नहीं मिलती.

खो गई है माहौल से सावन की वो नफासत,
अब सीने में किसी के वो हिलोर नहीं मिलती.

अब न चाँद महकता है, न रात संवरती है,
है कैसी यह सुबह जहाँ रौशनी नहीं मिलती.

आशिक के दिल में भी अब कहाँ जज़्बात बसते हैं,
सनम के आगोश में भी अब राहत नहीं मिलती.

चलने लगी हैं जब से कीबोर्ड पर ये ऊँगलियाँ,
शब्दों में भी अब वो सलाहियत नहीं मिलती.

खो गई है अदब से “शिखा’ मोहब्बत इस कदर,
कि कागज़ पर भी अब वो स्याही नहीं मिलती.