कुछ दिन पहले ही मुझे डाक से “प्रवासी पुत्र” (काव्य संग्रह) प्राप्त हुई है. कवर खोलते ही जो पन्ने पलटने शुरू किये तो एक के बाद एक कविता पढ़ती गई और एक ही बैठक में पूरी किताब पढ़ डाली. ऐसा नहीं कि किताब छोटी थी बल्कि उसकी कवितायें इतनी गहन और प्रभावी थीं कि पता ही नहीं चला कब एक के बाद दूसरी खुद को पढ़ा ले गई.

यूँ यह काव्य संकलन पद्मेश जी की जीवनी सा लगता है. लगभग सारी ही कवितायें उनके व्यक्तित्व या उनके जीवन के खट्टे- मीठे,कड़वे अनुभवों की परतें खोलती सी लगती हैं और रही सही कसर इस किताब पर श्री अनिल शर्मा जी की लिखी भूमिका पूरी कर देती है.
पद्मेश जी के व्यक्तित्व की संवेदनशीलता, विनम्रता और बड़प्पन सभी इन कविताओं में सहज दृष्टिगोचर होता है.
वर्ना हर कोई यह लिख सकता है भला –
“मुझे
सीढ़ी बनाने वालो
मैं उस धातु का बना हूँ
जब तुम गिरोगे
बैसाखी हो जाऊंगा” (बैसाखी)

पिछले ही दिनों पद्मेश जी को भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी द्वारा ‘पद्मभूषण डॉ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार’ प्राप्त हुआ और तभी प्रवासी पुत्र का प्रकाशन भी हुआ. न जाने कब से इसका प्रकाशन होना टल रहा होगा. क्योंकि पद्मेश जी वह इंसान हैं जो अपने गुणों का कभी ढिंढोरा पीटते नजर नहीं आते. वह चुपचाप अपना काम करते हैं और यदि अनुभव कड़वे होने लगते हैं तो चुपचाप खुद को उससे दूर कर लेते हैं.
मुझे ब्रिटेन के हिन्दी तबके में घूमते करीब 5-6 साल हो गए परन्तु मैंने उनकी कवितायें मुश्किल से दो बार किसी आयोजन में सुनी और हैरान रह गई. कैसे हर पंक्ति इतनी गहरी है, कैसे इतनी सहज, फिर भी इतनी प्रभावी. छोटी छोटी कवितायें हर पंक्ति पर वाह और आह की दरकार करतीं. परन्तु पद्मेश जी उन्हें ऐसे सुनाते जैसे पानी बहा जा रहा हो.

“बर्लिन दिवार का टूटा हुआ पत्थर
कल मुझसे बोला
मुझे इतनी घृणा से मत देखो
मेरे ज़ख्म
इतिहास के घाव के मरहम हैं
मैं तो तुम्हारी
हर धार हर चुभन
सहने को तैयार था
तुम मुझे तराश कर ईसा भी बना सकते थे.”(बर्लिन दिवार)

मेरी पद्मेश जी से पहली मुलाक़ात करीब छ: साल पहले लन्दन के नेहरु सेंटर में एक आयोजन के दौरान हुई थी. जहाँ मैं एक मित्र के साथ एक मेहमान के तौर पर गई थी जो कि वहाँ उस आयोजन में भाग लेने वाला था.उसने ही दूर से इशारा करते हुए बताया था कि वह पद्मेश जी हैं. हिन्दी समिति और पुरवाई के कर्ता- धर्ता. एक सरल, शालीन सा व्यक्ति – जो बाकी लोगों के मिलने- मिलाने और फोटो शेषन से इतर आयोजन की व्यवस्थाओं में बड़ी तल्लीनता से लगा हुआ था. मैं स्वभाव से अंतर्मुखी हूँ खासकर सामने से जाकर परिचय करने में झिझकती हूँ अत: मैंने “अच्छा” कहा और बिना प्रत्यक्ष परिचय हुए बात खत्म हो गई.

फिर दूसरे दिन उनका एक मेल मिला, जिसमें उन्होंने बड़े ही संयत शब्दों में मुझे उस आयोजन की बेहतरीन रिपोर्ट लिखने की बधाई दी. फिर आने वाले कुछ कार्यक्रमों में यूँ ही अभिवादन तक सिमित कुछ मुलाकातें और हुईं.

फिर एक दिन अचानक उनका फोन आया और उन्होंने मुझे लन्दन में होने वाले हिन्दी सम्मेलन के एक सत्र के संचालन की बागडोर थमा दी. मुझे स्टेज पर चढ़े और कुछ बोले जमाना हो गया था और संचालन तो कभी स्कूल में भी नहीं किया था. परन्तु उन्होंने बड़े विश्वास से कहा…अरे कुछ नहीं करना होता, आप कर लेंगी और फिर हम हैं न. एक एकदम नए नए साहित्य के रंगरूट पर इतना विश्वास कोई उन जैसा ही बड़े व्यक्तित्व वाला इंसान कर सकता था. और फिर उसी बड़प्पन से कार्यक्रम के बाद वे बोले – देखा मैंने कहा था न आप कर लेंगी और बढ़िया करेंगी.

कुछ समय बाद अचानक उनका किसी भी साहित्यिक गोष्ठी या आयोजन में दिखना बंद हो गया. फिर एक दिन उन्होंने हिन्दी समिति भी शिक्षिकाओं के हाथ सौंप दी. मैंने कारण पूछा तो बड़ी सहजता से मुस्कुराकर बोले…”बस बहुत कर लिया, अब कुछ और करते हैं…ये आप लोग संभालो अब”. मुझे समझ में आया कि क्यों लोग उन्हें एक कुशल वक्ता कहते हैं. उनके बारे में उनके दोस्त कहते हैं कि वह “भाड़ में जाओ” भी ऐसे बोलेंगे कि सामने वाला उत्सुक हो उठेगा भाड़ में जाने के लिए.

खैर साहित्यिक आयोजन से विमुखता के बाद भी हिन्दी समिति की बच्चों की प्रतियोगिता में साल में दो बार उनसे मुलाकात होती रही.
फिर आखिरकार पिछले दिनों राष्ट्रपति से मिले सम्मान और उसके साथ में मिली लोगों की प्रतिक्रियाओं ने उन्हें फिर से साहित्य जगत में सक्रीय होने के लिए विवश कर दिया.

हिन्दी का सच्चा भक्त एक बार फिर से अपनी सेवा देने के लिए तैयार हो गया है और इस प्रवासी पुत्र ने एक बार फिर अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की ठान ली है. ब्रिटेन के हिन्दी समाज के लिए यह एक बेहद सुखद और उत्साहवर्धक सूचना है.
जैसा कि वह स्वयं एक कविता में कहते हैं –

“नहीं जानता मैं
कौन से रास्ते पर जा रहा हूँ
लेकिन
तुम तक पहुँचूँगा ज़रूर
क्योंकि
निकल पड़ा हूँ मैं !” (संकल्प)