आजकल लगता है हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम समय चल रहा है।या यह कहिये की करवट ले रहा है।फिर से ऋषिकेश मुखर्जी सरीखी फ़िल्में देखने को मिल रही हैं। एक के बाद एक अच्छी फिल्म्स आ रही हैं। और ऐसे में हम जैसों के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती है क्योंकि फिल्म देखना वाकई आजकल एक अभियान हो गया है.अच्छी खासी चपत लग जाती है। तो इस बार यह चपत जम कर लगी। लगातार 3 फिल्मे आई और तीनों जबरदस्त। 
अनुराग बासु की बर्फी का स्वाद तो हम 2 हफ्ते पहले ही ले आये थे कुछ (बहुत) नक़ल की गई बातों और कुछ ओवर एक्टिंग को छोड़कर फिल्म अच्छी ही लगी थी। कम से कम क्लास के नाम पर फूहड़पन नहीं था,द्विअर्थी संवाद नहीं थे, हिंसक दृश्य नहीं थे। और कहानी भी अच्छी थी ।गाने कमाल के थे। “इत्ती सी हंसी, इत्ती सी ख़ुशी इत्ता सा टुकड़ा चाँद का ” वाह .. बोल पर ही पैसे वसूल हो सकते हैं। रणवीर कपूर ऐसे रोल में जंचते हैं और प्रियंका चोपड़ा ने कमाल किया है। यानि नक़ल भी कायदे से की गई है तो देखने के बाद मलाल नहीं हुआ।
फिर आई OMG  और दिल दिमाग एकदम ताज़ा हो गया। परेश रावल और अक्षय कुमार द्वारा निर्मित इस कॉमेडी फिल्म का निर्देशन उमेश शुक्ला ने किया है। ज़माने बाद कोई लॉजिकल फिल्म देखी. होने को कुछ काल्पनिक बातें इसमें भी हैं परन्तु 
चुस्त पटकथा और करारे संवाद इन सब को नजरअंदाज कर देने को विवश कर देते हैं। परेश रावल पूरी फिल्म को अकेले अपने कन्धों पर उठाये रहते हैं और आपका मन हर दृश्य पर तालियाँ बजाने को करता है।जिस रोचक ढंग से धर्म के नाम पर लूटपाट और अंधविश्वास की कलई इस फिल्म में खोली गई है ऐसा मैंने इससे पहले किसी फिल्म में नहीं देखा।फिल्म में परेश रावल के अलावा अक्षय कुमार मुख्य भूमिका में हैं और मिथुन चक्रवर्ती,ओम पुरी की भी छोटी छोटी भूमिकाएं है जिसमें वह फिट नजर आते हैं।प्रभु देवा और सोनाक्षी सिन्हा पर एक गीत भी फिल्माया गया है।कुल मिलाकर हास्य व्यंग्य के तड़के  साथ बढ़िया फिल्म है।
और फिर आई इंग्लिश विन्ग्लिश और सबसे आगे निकल गई। एकदम सुलझा हुआ पर बेहद जरुरी विषय.बेहद सरलता से पानी सा बहता हुआ निर्देशन और साथ बैठकर बात करती सी सहज अदाकारी।एक ऐसी फिल्म जिसे हर किसी को पूरे परिवार के साथ बैठकर देखना चाहिए। एक फिल्म जिसके किसी न किसी किरदार से आप अपने आपको जरुर सम्बंधित पायेंगे। किसी को अपनी माँ याद आती है किसी को बहन की और कोई खुद अपने आपको ही उसमें पाता है। संवाद बेहद सरल और आम रोजमर्रा की जिन्दगी से जुड़े होते हुए भी जैसे सीधे मन की अंदरूनी सतह तक जाते हैं और आपकी आँखें गीली कर जाते हैं। गौरी शिंदे और “पा “और “चीनी कम” जैसी लीक से हट कर फिल्मों को बनाने वाले आर बाल्की की यह फिल्म एक सेकेण्ड को भी पलक झपकाने नहीं देती। दृश्य दर दृश्य इस तरह से चलते हैं कि दर्शक पॉप कॉर्न खाना तक भूल जाएँ। श्रीदेवी ने इस फिल्म में 14 साल बाद फिर से पदार्पण किया है और मुख्य भूमिका शानदार तरीके से निभाई है.सुना है फिल्म में श्रीदेवी का चरित्र गौरी शिंदे की माँ से प्रभावित है।हालाँकि यह भी सच है कि हर टीनएजर बच्चे की माँ को उसमे अपना अक्स दिखाई देगा।
फिल्म में छोटे छोटे कई पात्र हैं और सब अपनी अलग छाप छोड़ते हैं। एक छोटी सी भूमिका अमिताभ बच्चन ने भी निभाई है जो इतनी जानदार है कि फिल्म को एक खुबसूरत रंग और दे देती है।
फिल्म का सबसे सशक्त पहलू मुझे उसके संवाद लगे।बेहद सहजता से कहे गए छोटे छोटे सरल संवाद जैसे पूरी कहानी कह जाते हैं।फिल्म की लम्बाई कम है और गति सुन्दर अत: अगर यहाँ मैंने संवादों या कहानी का जिक्र कर दिया तो आपको फिल्म देखने की जरुरत नहीं पड़ेगी। इसलिए इतना ही कहती हूँ  कि अगर आपने यह फिल्म नहीं देखी है तो अगली फुर्सत में ही परिवार के साथ देख आइये।
आइटम सौंग , घटिया दृश्य , फूहड़ संवाद और मारधाड़- खून खराबे वाली फिल्मों के इस दौर में ऐसी फिल्मों का आना वास्तव में एक सकारात्मक ऊर्जा और सुकून दे जाता है.और इनकी सफलता उन निर्माता निर्देशकों के लिए एक सबक है, जिन्हें लगता है कि बिना मसालों के या हॉलीवुड टाइप के लटकों झटकों के, भारत में फिल्म नहीं चलती। उन्हें अब समझ लेना चाहिए भारत की जनता बेबकूफ नहीं है, उसे अच्छी चीज की कदर आज भी है।