इंग्लिश समर की सुहानी शाम है,  अपोलो लन्दन के बाहर बेइन्तिहाँ  भीड़ है. जगजीत सिंह लाइव इन कंसर्ट है. “तेरी आवाज़ से दिल ओ ज़हन महका है तेरे दीद से नजर भी महक जाये ” कई दिनों से हो रहा यह एहसास जोर पकड़ लेता है. हम अन्दर प्रवेश करते हैं. थियेटर के अन्दर बार भी है. देखा लोग वहां से बीयर के ग्लास और चुगना अन्दर तक ले जा रहे हैं. आमतौर पर मना होता है कुछ भी खाना पीना अंदर ले जाना या खाना, पर यहाँ तो सभी भारतीय थे तो शायद कोई भी नियम कानून लागू नहीं था.हम जाकर अपनी सीट पर बैठ जाते हैं और खुद पर गुस्साते हैं, क्यों नहीं कैमरा लाये. यहाँ तो दनादन फ्लैश चमक रही हैं. हमारे पूर्व के अनुभव के चलते हम सिर्फ बन ठन के हाथ हिलाते चले आये थे ( कैमरे का इस्तेमाल लाइव शो के दौरान मना होता है )पर अब पछताकर क्या होना था. इंतज़ार करते रहे एक सुहानी शाम के शुरू होने का. 7 बजे का समय था 7:25 हो गए थे और सामने स्क्रीन पर सिवाए 2-3 विज्ञापन के कुछ भी नजर नहीं आ रहा था उसपर लोगों का मजे से बीयर उड़ाना और अपना कैमरा ना ला पाने की खुन्नस अब बैचैन किये दे रही थी.तो यह बैचैनी बाकी लोगों पर भी हावी हुई और थोडा शोर मचना शुरू हुआ. तब जाकर मंच पर एक कन्या प्रकट हुईं और 7:34 पर (जी हाँ, हम मिनट मिनट गईं रहे थे) उन्होंने शो का आगाज किया.बस वो आखिरी पल था इंतज़ार का. उसके बाद एक पल भी सांस लेने की  फुर्सत नहीं मिली. इस 8 फरवरी को जगजीत सिंह ने 70 वर्ष और अपने गायन के पांच दशक पूरे कर लिए हैं और इस उपलक्ष्य में इस वर्ष उनके 70 कंसर्ट करने की योजना है, जिसके तहत यह लन्दन में उनका 27वां कंसर्ट था.परन्तु 70 की ना तो इस गजल सम्राट की अवस्था लगती है ना ही उनका अंदाजे बयाँ और आवाज़…आसन ग्रहण करते ही वे शुरू करते हैं.”ठुकराओ या प्यार करो मैं सत्तर का हूँ (मैं नशे में हूँ की जगह ).और  तालियों की गडगडाहट  के साथ सुरों का यह सफ़र शुरू होता है.

फिर – ” मेरे जैसे हो जाओगे जब इश्क तुम्हें हो जायेगा…और झुकी झुकी सी नजर…बस फिर क्या था नजर सबकी उठ चुकी थीं और खुमार चढ़ चुका था. उसके बाद ग़ालिब ग़ालिब की आवाजें दर्शक दीर्घा से आने लगीं और फिर अपने मदमस्त अंदाज में जगजीत सिंह ने सुर छेड़ा….हजारों ख्वाइशें ऐसी …पूरा हाल जैसे मंत्रमुग्ध  था. अपनी नई एल्बम के एक मुखड़े “दूरियां बढती गईं चिट्ठी का रिश्ता रह गया, सब गए परदेस, घर में बाप तनहा रह गया ” और पंजाबी गीत “लेके फुलवारी ” से होता हुआ सुरों का कारवां चौंदहवी की रात तक पहुंचा (कल चौंदहवी की रात थी.) श्रोताओं को सोचने का भी समय नहीं मिल रहा था. मैं अपनी प्लेलिस्ट के कुछ गीत उन्हें सुनाने की विनती करना चाहती थी परन्तु वे तो एक घूँट पानी पीने के लिए भी नहीं रुकने वाले थे. गजलों के बीच में बाकी वाद्यों पर बैठे संगीतकारों की कारीगरी हो या फिर जगजीत के अपने अंदाज में चुटीली हास्य टिप्पणियाँ, माहौल जैसे उनके रंग में ही रंगे जा रहा था. 70 वर्षीय इस अद्भुत गायक की यह क्षमता मुझे पल पल अचंभित कर रही थी.और इसी बीच 2 घंटे जाने कब निकले और इंटरवल हो गया जिसमें जगजीत सिंह का जन्म दिन मनाया गया ,केक काटा गया, जो बाद में सभी दर्शकों के मध्य बांटा भी गया.

शो का दूसरा भाग 15 मिनट बाद ही शुरू हो गया वो भी ” कागज़ की कश्ती ” से, श्रोता जो अभी ब्रेक से उठ भी ना पाए थे अचानक फिर नौस्टोलोजिक हो उठे. फिर स्वर उठा, “तुमको देखा तो ये ख़याल आया.”और इस स्वर के साथ इस स्वर सम्राट ने हाल में बैठे सभी को अपने साथ बहा लिया. पूरा हाल उनके साथ गा रहा था और वो सभी को गवा रहे थे .मैंने आजतक इतनी भीड़ को इतना सुरीला और मधुर गाते पहले कभी नहीं सुना. पूरा हाल तुम घना साया के खूबसूरत स्वरों से गूँज रहा था और फिर ….होठों से छू लो तुम ….अब पता लगा कि अकेली मैं ही नहीं हूँ जो इस जादुई आवाज़ में पिघली जा रही हूँ.हर कोई जैसे मदहोश था.
लकड़ी की काठी सुनने की उम्र में जिसे सुन कर मैं बावली  हो गई थी…एंड आई फ़ैल इन लव अगेन विथ हिम, हिस वॉयस एंड दिस सौंग. जाने क्या है जगजीत सिंह की आवाज में, उनके अंदाज में, कि जब यह भी नहीं पता था कि ग़ज़ल होती क्या है तब से उन्हें सुनकर अजीब सा सुकून महसूस होता है. जैसे कि जावेद अख्तर उनके लिए कहते हैं  “जगजीत की आवाज ऐसी है जैसे कड़ी धूप में चलते चलते अचानक ठंडी छाँव मिल गई हो”.

70 वर्ष में आज भी उनकी गायकी में वही बात है जो आज से 50 साल पहले थी. कहीं कोई उम्र का निशाँ तक नजर नहीं आता. कुछ तो खास है इस अद्भुत इंसान में जिसके लिए गुलजार कहते हैं – “जगजीत की आवाज़ सहलाती है, एक दिलासा सा देती है और उसकी गायकी में मुझे मेरे शेर भी अच्छे लगते हैं”.

और इसी तरह जाने कितनी और सुरीली गजलों के साथ पंजाबी के टप्पों के साथ शाम को विराम दिया जगजीत सिंह ने .
परन्तु श्रोताओं का मन कहाँ भरना था… बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले… “अहिस्ता अहिस्ता” का शोर होने लगा और जैसा कि जगजीत जी के बारे में मशहूर है कि वह अपने प्रसंशकों को कभी निराश नहीं करते उन्होंने सुर छेड़ा …सरकती जाये है रुख से नकाब….और इसी के साथ स्टेज पर तो पर्दा गिर गया परन्तु मेरे मन पर इस शाम की खुमारी का पर्दा गिरने का नाम ही नहीं ले रहा. उनकी ही ग़ज़ल के एक शेर के मुताबिक.- 
आग का क्या है पल दो पल में लगती है, 
बुझते बुझते एक जमाना लगता है…
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