इसके बाद …हम अपने पाठ्यक्रम के चौथे वर्ष में आ पहुंचे थे …..और मॉस्को  अपनी ही मातृभूमि जैसा लगने लगा था .वहां के मौसम , व्यवस्था ,सामाजिक परिवेश सबको घोट कर पी गए थे .अब हमारे बाकी के मित्र छुट्टियों में दौड़े छूटे भारत नहीं भागा करते थे , वहीं  अपनी छुट्टियाँ बिताया करते थे या
मोस्को का प्रसिद्द व् द न ख (VDNKH)
आस पास कहीं घूमने चले जाया करते थे .क्योंकि उस समय ( जुलाई से सितम्बर ) जहाँ भारत में बेहद गर्मी हुआ करती थी वहीँ रूस  में बेहद खुशगवार मौसम हुआ करता था खूबसूरती जैसे बिखरी होती थी . साल में ८ महीने बर्फ से ढके पेड़  और झीलें जैसे इन दिनों अपने पूरे शबाब पर आ जाते थे .जिन बर्फ से जमी झीलों पर बच्चे आइस स्केटिंग किया करते थे .अब उनके  किनारे रूमानी जोड़े बैठे नजर आते थे.  

लोगों के ओवर कोट उतरते तो खूबसूरत कपड़ों की छटा देखते ही बनती और वहां के लोग इस मौसम की खुमारी में बाबले हुए जाते थे. 
पर हमें तो जैसे भारत ही जाने का भूत सवार रहा करता था . समय से पहले ही सारे इम्तिहान देकर हम भारत चले जाते थे और आराम से ३ महीने की छुट्टियाँ मना कर आते थे.यानि इत्मिनान से बेफिक्री की नींद  सोकर आते थे .जिसके लिए हमें अपनी बहनों के उलाहने भी सुनने को मिलते थे जो बेचारी हमारे किस्से सुनने को साल भर इंतज़ार किया करती थीं .” यहाँ क्या सोने आई है ?वहां सोने को नहीं मिलता ? .अब उन्हें कैसे समझाते कि अपनों के बीच जिस सुरक्षा के एहसास के साथ जो सुकून की नीद आती है उसका कोई मुकाबला नहीं .वरना होस्टल में तो जान को हजार काम होते थे .  नींद में भी कभी क्लास तो कभी मम्मी के हाथ के आलू के परांठे दिखाई देते थे.वैसे खाने के मामले में रशियन व्यंजनों का भी जबाब नहीं होता – 
 प्लेमिने (डपलिंग्स ), पिरोज्की (पकोड़े), तरह तरह के सलाद और सूप,और बेहद स्वादिष्ट काली ब्रेड . 
प्लेमेनी 
और साथ में हर चीज़ का अचार …अरे चौंकिए नहीं हमारे यहाँ  जैसा अचार नहीं बल्कि एक खास तरह से पिजर्व की हुई सब्जियां. वहां के सर्द मौसम के तहत सिर्फ गर्मियों में ही कुछ सब्जियां और फल आते हैं तो फलों को जैम एवं मुरब्बे  के तौर पर और सब्जियों को “पिकल” के तौर पर पिजर्व कर लिया जाता है साल भर के लिए.
रूसी अचार 
समोवार, चाय 
पर वहां सबसे ज्यादा चलन में जो चीज़ है वह है चाय .किसी के भी घर जाइये “समोवार” भर कर एक खास तरह के हर्ब के साथ काली चाय रखी होगी और आपसे बड़े बड़े मग में प्याला दर प्याला पीने की गुजारिश होगी.और साथ में चीनी की जगह होगी प्लेट भर कर टॉफियां या चॉकलेट .  सच मानिये इतनी रेफ्रेशिंग और स्वादिष्ट चाय मैंने कहीं और नहीं पी.जैसे जैसे उसके घूँट हलक़ से उतरते , दिमाग की सारी गुथ्थियाँ जैसे खुल जातीं .हर मौके पर चाय पीने की ऐसी आदत लगी कि “आज भी जब  दिल उदास होता है काली चाय का प्याला ही पास होता है”.
खैर इस समय तक वहां राशनिंग ख़त्म  हो गई थी और किसी भी दूकान पर अब कतार नहीं दिखाई देती थी उसकी एक वजह ये भी थी कि महंगाई बढ़ गई थी और वहां की सरकारी दुकानों के अलावा और विकल्प भी उपलब्ध थे जिसमें “रीनक”( प्राइवेट बाजार /मंडी ) प्रमुख था , जहाँ आप जो चाहो सब मिलता था वह भी बिना कतार के . हाँ थोडा महंगा जरुर हुआ करता था परन्तु वहाँ  वह सब कुछ आसानी से मिल जाता था जो सरकारी दुकानों में कतार लगाने पर मिलता था .  कई बार लोग इन्हीं दुकानों से खरीद कर रीनक में दुगने  दामो पर बेच दिया करते थे.
रिनक 
इस आर्थिक परिस्थतियों का सबसे ज्यादा असर अध्यापक वर्ग पर पड़ा था जहाँ विश्वविद्यालयों के अध्यापकों को  सबसे ज्यादा तनख्वाह मिला करती थी . रूबल के दाम गिर जाने से वह सबसे कम हो गई थी और उन बेचारों को समझ नहीं आता था कि कहाँ से गुजारा करें. वहीँ छात्रों का भी बुरा हाल था .छात्रवृति की राशि नाम मात्र की हो कर रह गई थी , इसलिए सबने अलग से कोई ना कोई काम करना शुरू कर दिया था.विदेशी छात्रों को हालाँकि अपने घरवालों से मदद मिलती थी और वे वहाँ  अमीर माने जाते थे .परन्तु हम जैसे कुछ लम्बी नाक वाले मजबूरी में ही घर से जरुरत के लायक ही पैसे मंगाया  करते थे.(लड़कियां शायद ज्यादा सोचती हैं इन मामलों में)  और इसके लिए हमने वहाँ  छोटी मोटी नौकरी करना शुरू कर दिया था…
आगे फिर कभी 🙂