मॉस्को  स्टेट यूनिवर्सिटी 
अभी तक आपने पढ़ा कि कैसे हमारा वेरोनिश से मॉस्को  जाना तय हो गया था और हम हंसी ख़ुशी तैयारियों  में लग गये थे कि चलो अब कम से  कम इंडिया की  टिकट के लिए मॉस्को  के चक्कर लगाना  तो बचेगा..पर नहीं जी अगर इतना आसान सब हो जाये तो भगवान को पूछेगा ही कौन ? असली तूफान आना अभी बाकी था. मॉस्को  तो हम एक सह्रदय सीनियर  की  मेहरबानी  से पहुँच गए परन्तु वहाँ  जाकर पता चला कि रशिया की बदलती इकोनॉमी के चलते हमारे बैच के सभी छात्रों की मुफ्त पढाई  ख़तम कर दी गई है.रूबल का मूल्य अचानक 17 से गिरकर 5oo  पर आ गया था ५०० रूबल की एक ब्रेड आती थी .इन परिवर्तनों के चलते  बिना फीस दिए दाखिला  देने से मना कर दिया गया है .अब अगर दाखिला  नहीं तो होस्टल भी नहीं और होस्टल नहीं तो रहने की  कोई जगह नहीं ..कुछ लोगों के वहाँ  कुछ जान पहचान के लोग थे, वो वहाँ  टिक लिए और कुछ ने अपना जुगाड़ कहीं ना कहीं पेइंग  गेस्ट के तौर पर कर लिया था .पर हम ४-५ लोगों को कहीं पनाह नहीं  मिली और कोई चारा ना देख  हमने अपना  सामान ट्रेन स्टेशन के लॉकर रूम  में रख दिया .और वहीँ स्टेशन की बैंच  पर डेरा डाल दिया . अब रोज़ सुबह उठते वहीँ स्टेशन पर हाथ मुँह  धोते और निकल जाते अपने ओर्ग्नाइजर्स  से मिलने, दिन भर  वहीँ भटकते स्ट्रॉबरी  और चेरी खाते ( शुकर है गर्मी के दिन थे और कम से कम ये वहाँ  मिलता था ) और दिन ढलते अपने बैंच  पर आ जाते .ये वो दौर था जब रशिया के घरों में ” मेरा जूता है जापानी ” और ” आई  ऍम ए  डिस्को डांसर” बजा करता था  लोग अपने नेता को जानते हो ना हों पर राज कपूर को जानते थे ..और उसी का फायदा हिन्दुस्तानियों को मिल जाता था ..मकान मालिक कोई उम्रदराज़ महिला हुई तो हम लोग बाबूश्का  ( दादी  माँ ) कह कर प्यार से उसे मना लेते थे ..क्योंकि उनके पोता -पोती तो शायद ही कभी उनसे प्यार से बतियाते… तो २-३ दिन स्टेशन के ही मेहमान बनने के बाद हमें भी एक जगह पेइंग  गेस्ट के तौर पर जगह मिल गई और फिर शुरू हुआ संघर्ष का दौर .
.हमने ये ठान लिया था कि पैसे देकर हम यहाँ नहीं पढेंगे.. उस पर १ साल में घर वाले भी हमें याद करके हलकान हो रहे थे. उन्होंने भी कह दिया कि बेटा वापस आ जाओ यही समझ लो घूम लिया रशिया और एक भाषा सीख ली.सो हमने सोचा कि जब तक जेब में पैसे हैं कोशिश करते हैं नहीं तो वापस चले जायेंगे ..पर आपका दाना पानी जहाँ जब तक बंधा है उससे कोई पार नहीं पा सकता तो हमें कुछ और दिनों की  मशक्कत के बाद मॉस्को यूनिवर्सिटी  द्वारा अपना लिया गया शायद हमें अपने विषय की  अकेली छात्रा  होने  का लाभ  मिला ..बाकी सब को फीस भर कर पढाई  पूरी करनी पड़ी और कुछ लोग जो ऐसा नहीं चाहते थे वापस भी चले गए .
हमारा होस्टल “DAS.”
दाखिला  मिलने के साथ ही हमें होस्टल में जगह मिल गई और हमारी जिन्दगी कुछ ढर्रे पर आई .और हम जिस कारण के लिए वहाँ  गए थे  तो उसे पूरा करने में लग गए. नियम से कॉलेज जाते …जो हमारे होस्टल से करीब १ घंटा लगता था पहले ट्राम और फिर मेट्रो से, और फिर होस्टल आकर शब्दकोष  लेकर  गोर्की की “माँ ” या दोस्तोयेव्स्की  के “idiot ” को समझने बैठ जाते
..हमारे अलावा वहां और भी कई हिन्दुस्तानी थे जिन्हें हम किसी एलियन से कम नहीं लगते थे..उन्हें  समझ नहीं आता  था पहले साल में इतनी गंभीरता से पढाई करने का क्या मतलब ?…पर भला हो हमारी सद् बुद्धि  का .. वो पहले साल का पढ़ा  हुआ हमारे बहुत काम आया और बाद में दोस्तों के साथ रात को २ बजे तक मस्ती और सुबह की क्लासेज़  मिस करने के बाबजूद हम अपना लक्ष्य पाने में कामयाब रहे. कहते हैं ना नींव  मजबूत हो जाये तो इमारत  आराम से खड़ी हो जाती है .और पहला इम्प्रेशन  अच्छा पड़ जाये तो बाकी की  जिन्दगी भी आसान हो जाती है.वैसे भी बदलते हालातों में स्कॉलरशिप तो नाम की मिलती थी जिससे महीने की ब्रेड ही खाई जा सकती थी इसलिए  फैकल्टी  जाने के अलावा कभी कभी हम पार्ट टाइम जॉब भी कर लेते थे जैसे अनुवादक का , और इसी के तहत एक बार मॉस्को  रेडियो में भी ब्रॉडकास्टर  का काम  किया. वैसे हमारे होस्टल के बहुत से मित्र कॉलेज   “आई टोनिक” लेने भी चले जाया करते थे और सारा दिन वहां सीड़ियों के पास खड़े होकर प्रेम से बिता दिया करते थे. 

वो महान सीडियां जहाँ आइटोनिक मिलता था .
“जर्नलिज्म फैकल्टी ” मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी की ऑरिजनल और सबसे पहली  बिल्डिंग 
हमारे होस्टल में और भी बहुत हिन्दुस्तानी थे बहुत अच्छे दोस्त भी बन गए थे .फिर भी हम अपने होस्टल में कम और पास के मेडिकल वालों के होस्टल में ज्यादा रहा करते थे ..उसकी वजह थे दो मॉन्स्टर्स….मेरी दो सहेलियां 
जो बहाने- बहाने से हर दूसरे  दिन मुझे बुला लिया करती थीं और अपने मेडिकल के लेसन  सुना सुना कर पकाया करती थीं . मुझसे बिना पूछे उनके हर आयोजन -समारोह  में मुझे शामिल कर लिया जाता था और फरमान आ जाता था तू नहीं आएगी तो हम भी नहीं जायेंगे बस…मरता क्या ना करता जाना पड़ता था मुझे, उस बदबूदार होस्टल में, जहाँ बाथरूम और टॉयलेट  दोनों कॉमन  थे. जबकि हमारा होस्टल किसी  होटल से कम नहीं था एक कमरे में बेशक ३ लोग थे पर अलग टॉयलेट   और बाथरूम था अटैच  …पर दोस्ती की खातिर क्या नहीं करना पड़ता.. कई बार मैं उनकी प्रेक्टिकल क्लास में भी चली जाती थी और वहां उन्हें किसी के हाथ या किसी के घुटने से खेलते देख मुझे बड़ा मजा आता था.. उनकी बकवास सुन सुन कर पूरा या आधा नहीं तो चौथाई डॉक्टर  तो मैं भी बन ही गई थी.
बहुत मस्ती भरे दिन थे रात रात भर पार्टी करना.. नाचना गाना और फिर दिन भर सोना ..और फिर क्लास में जाकर रोना 🙂 -३०- -३५ डिग्री की जमाऊ ठण्ड में जब नाक का पानी तक जम कर कड़ कड़ करने लगता था ..ऐसे में  में लद फद के कॉलेज जाना और जरा सा सूरज चमकते ही दांत  फाड़कर दिखाना कि दांतों के लिए बिटामिन डी बहुत जरुरी है .

दिवाली हो या न्यू इयर एक जैसा सेलेब्रेशन  …डांस और खाना ..खाने में  भी ..चिकेन ,चावल, ब्रेड  और स्तालीच्नी  सलाद (रशियन  सलाद ) और कभी कोई लायक मेम्बर मिल जाये तो गुलाबजामुन.. सेट मेन्यु  हुआ करता था …एक बार तो न्यू इयर पर हम तीन सहेलियां ३ दिन तक नाचती रहीं  ..नाचते , खाते , सो जाते फिर उठते, खाते और नाचने लग जाते ..वहां लोगों को हमारे बिन पिए इस स्टेमिना पर बहुत आश्चर्य होता था ,वैसे इस पीने –  पिलाने की वजह से कई बार बहुत मुश्किल खड़ी  हो जाती थी.वहां तो हर मर्ज़ का इलाज़ बस वोदका था..जुखाम हो गया ..एक ढक्कन वोदका ले लो,…बुखार हो गया वोदका पी लो,…एक्जाम  में नंबर . कम आये वोदका है …और किसी की  ख़ुशी में जाकर वोदका का टोस्ट नहीं किया तो वो नाराज़ ..ऐसे में हिन्दुस्तानी दोस्त तो समझते थे पर रशियन मित्रों को समझना संभव नहीं होता था और ऐसे ही समय काम आते थे अपने भारतीय मित्र जिनके ग्लासों में बड़ी चतुराई से  उलट दिया करते थे हम अपनी वोदका .

वैसे ये बात मानने वाली है कि जुगाड़ में और हालातों से लड़ने के मामले में हिन्दुस्तानियों का कोई सानी नहीं होता .उस समय भारत में मेक्डोनल्स  या ऐसी कोई भी जगह नहीं थी ..और मोस्को में  भी गिन कर एक “मैक डी”  था जहाँ कड़कती ठण्ड में भी २ घंटे की लाइन लगा करती थी ..पर मजाल है कोई भारतीय कभी लाइन में  लगा हो. बड़े प्यार के साथ कोई एक प्रवाह के साथ आगे घुस जाता था और फिर उसके पीछे सारा ग्रुप 🙂 और वहां जाकर बड़े गर्व से फ़रमाया जाता “बिग मैक  बिना मीट का” …बेचारे वहां काम करने वाले परेशान हो जाते थे कि मीट नहीं तो क्या डालें उसमें ..और हम “बिग मैक”  के पैसों में बस बन में पत्ते और सौस डाल कर बड़े चाव से खाया करते 🙂 हालाँकि ये शुरू शुरू की  ही बात थी थोड़े समय बाद ज्यादातर हर कोई  मांसाहारी हो ही जाता था.हाँ छुट्टी पर भारत से आने वाले के हाथ ,मूली  ,गोभी के परांठे जरुर मंगाए जाते थे और ये कहने की जरुरत नहीं कि उनपर लाने  वाले का कोई हक़ नहीं होता था.

इससे आगे की कुछ बातें और हमारी पढाई पूरी करने की दास्तान आप ” यहाँ “पढ़ सकते हैं .
और इस तरह  कभी ठण्ड में सिकुड़ते कभी गर्मियों में सिकते ,कभी रात भर नाचते तो कभी इम्तिहान में रोते …हमारे पोस्ट ग्रेजुएशन  के वो ५ साल तो ख़तम हो गए.और हम स्वर्ण अक्षरों से युक्त अपनी डिग्री लेकर  सकुशल भारत लौट गए.. 
पर नहीं ख़तम हुई वो सुनहरी यादें ,वो मस्ती के दिनों की  कसक ,वो थोड़े में ही खुश रहने का जज़्बा और अपनों से दूर गैरों को अपनाने की ख्वाहिश …रूसियों को चाहे कोई कुछ भी कहे आज, पर हमारे दिलों में वे एक भावपूर्ण ,संवेदनशील और अपनेपन से लबरेज़ कौम है जो प्यार के दो  शब्दों से पिघल जाया करती है  …क्या कभी भूलेंगे हम उन बाबूश्काओं  को ?जो  हमें होस्टल के कैफे  से प्लेट चुराते देखने के वावजूद नजरअंदाज कर दिया करती थीं और बाद में प्यार से धमकी दिया करती थी अगली बार ऐसा किया तो ज़ुर्माना लगेगा. जो कभी नहीं लगता था .ना जाने कितनी ही बार सिर्फ भारतीय होने के कारण टैक्सी वाला हमसे पैसे नहीं लेता था और सारा रास्ता “मेरा जूता है जापानी” सुनाता जाता था.हमारे होस्टल की रूसी लडकियां जो अपना काम छोड़ कर हमारी मदद किया करती थीं और हमारी पार्टियों में बड़े शौक से साड़ी पहनने की  ख्वाहिश  करती थीं :).कितनी ही खुशनुमा यादें हैं जिन्हें चाहूँ भी तो कभी पूरा नहीं लिख पाऊँगी..  इसलिए मैं बस इन पंक्तियों के साथ समेटती हूँ –

यादों कि सतह पर चढ़ गई हैं 

वक़्त की कितनी ही परतें 
फिर भी कहीं ना कहीं से निकलकर 
दस्तक दे जाती हैं यादें 
और मैं मजबूर हो जाती हूँ 
खोलने को कपाट मन के 
फिर  निकल पड़ते हैं उदगार 
और बिखर जाते हैं कागज़ पे 
सच है 
गुज़रा वक़्त लौट कर नहीं आता 
पर क्या कभी भूला भी जाता है ?
कहीं किसी मोड़ पर मिल ही जाता है.

मोस्को की एक सड़क और हम पांच 🙂