वह इतनी धार्मिक कभी भी नहीं थी. बल्कि अपने देश में होने वाले त्यौहारों की रस्मों पर अक्सर खीज कर उनके औचित्य पर माँ से जिरह कर बैठती थी. उसे यह सब कर्मकांड कौरी बकवास और फ़ालतू ही लगा करता था. फिर माँ के बड़े मनुहार के बाद उनका दिल रखने के लिए वह उन रस्मों को निभा लिया करती थी. परन्तु यहाँ आकर न जाने वो कौन से संस्कार थे या फिर बचपन से पिलाई गई वो घुट्टी कि अब हर छोटे बड़े त्यौहारों को भारत में घरवालों से पूछ पूछ कर अपने स्तर पर मनाने की वह भरपूर कोशिश करती है. नौकरी, बच्चे और बिना किसी घरेलु मदद के घर- बाहर के काम होने के वावजूद वह फ़ोन पर विधि पूछ कर कृष्ण जन्माष्टमी पर फलाहार और गणपति पर मोदक बनाती है. बड़े बड़े मंडपों में सजी विशाल दुर्गा पूजा की प्रतिमा को देखने और खिचड़ी का प्रसाद चखने भी जाती है और पड़ोस में नवरात्रों में सजी गुड़ियाएं भी निहारने जाती है. चाँद निकलने की कोई गारेंटी नहीं होती, पति को भी परमेश्वर नहीं, एक साथी मानती है फिर भी चाव से करवा चौथ का व्रत भी रखती है और तीज पर बिछिये पहन कर मेहंदी भी लगा लेती है.
जिन रस्मों पर वह खीजा करती थी, यहाँ अब उन्हीं को सहेजने के लिए वह सब कर्मकांड करती है. शायद उसे यह अपनी पहचान को बनाये रखने का एक माध्यम लगता है या फिर अपनों से जोड़े रखने की एक कड़ी, जो वह अपने बच्चों को विरासत में दे जाना चाहती है.
यह अकेले उसी की कहानी नहीं बल्कि शायद हर प्रवासी भारतीय की कहानी है जो अपनी संस्कृति और पहचान को बनाए रखने के लिए अपने त्यौहारों और परम्पराओं को शिद्दत से निभाते हैं.
शायद यही कारण है कि जो त्यौहार भारत में एक खास क्षेत्र तक सीमित रहते हैं यहाँ आकर वैश्विक रूप धारण कर लेते हैं. यहाँ दुर्गा पूजा करने वाले गणपति विसर्जन भी करते हैं और पोंगल मनाने वाले गरबा भी खेलने जाते हैं. यह शहर भी उनकी इस उत्सव धर्मिता में अपना पूरा पूरा सहयोग देता है.
सावन की बौछारें भारत में पड़नी शुरू होती हैं तो उनकी महक सात समुन्दर पार लंदन तक भी आ जाती है. त्यौहारों के इस मौसम में अपने देश से दूर भारतीय मूल के लोग भी कान्हां और गणेश के आगमन की तैयारी करने लगते हैं. यूँ उस देश में शायद इन त्यौहारों का स्वरुप समय काल के साथ परिवर्तित होने लगा है. उत्सव अब उस जोश ओ खरोश से नहीं मनाये जाते जैसे कभी मनाये जाते थे. वक़्त का तकाज़ा भी है और परिवेश का परिवर्तन भी कि अब बहुत से त्यौहार तो रहे ही नहीं. जो रहे भी हैं उनका रूप और तरीका काफी बदल गया है. परन्तु अपनी धरती से दूर उसकी मिट्टी को सहेज लेने की मंशा से यहाँ लंदन में प्रवासी भारतीय कृष्ण जन्माष्टमी से लेकर अन्नकूट तक सभी त्यौहार पूरे जोश और श्रद्धा से मनाते हैं.
जहां भारत में नवरात्रों के समय गरबा पर रात ११ बजे के बाद रोक लगा दी जाती है वहां लंदन में ऐसा कोई नियम नहीं लगाया जाता। पूरे शहर में अलग अलग स्थानो में अलग अलग स्तर पर गरबा का आयोजन होता है. सुबह तीन – चार बजे तक संगीत के सुरों पर रास गरबा खेला है और बड़ी संख्या में हर देश, जाति, धर्म के लोग इसमें हिस्सा लेते हैं. दिलचस्प होता है यह देखना कि कैसे आपके विदेशी मित्र महीनों पहले ही गरबा की जानकारी और उसमें पहनने वाले परिधान जुटाने में लग जाते हैं और सभी के साथ मिलकर यह त्यौहार मनाते हैं.हाँ इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाता है कि आयोजन के दौरान शोर शराबे से बाकी नागरिकों को असुविधा न हो.
लंदन में गणपति भी मनाया जाता है. एक ऐसा त्योहार, जिसे पर्यावरण के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता, परन्तु फिर भी यहाँ रह रहे हिन्दू निवासियों की भावनाओं का सम्मान करते हुए और उनकी सुविधानुसार इसे परंपरागत रूप से मनाने के लिए सभी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं .देश के कुछ बड़े समुद्री किनारों पर बाकायदा विसर्जन की व्यवस्था की जाती है जिसमें सभी सरकारी महकमो का पूर्ण रूप से योगदान रहता है.
पास ही एक “साऊथ एंड बाये सी” पर यह उत्सव मनाया जाता है. शहर और शहर के बाहर से लोगों को लाने के लिए खास बसों का इंतज़ाम किया जाता है और यह सब किसी एक खास समुदाय के लोग नहीं बल्कि सभी समुदाय के लोग मिलकर किया करते हैं. समुन्द्र तट पर बहुत बड़ा पंडाल लगाया जाता है. सुरक्षा के तौर पर पूरी पुलिस टीम मौजूद होती है,आपातकालीन एम्बुलेंस की व्यवस्था भी होती है और आने जाने वालों के लिए सुबह से शाम तक का भंडारा भी. “गणपति बाप्पा मोरिया” के स्वर क्षितिज तक गूंजते हैं. समुन्द्र के एक छोटे से किनारे को काट कर एक खास स्थान बना दिया जाता है जहाँ पर विसर्जन किया जाता है .सरकरी महकमे के कई गणमान्य व्यक्ति वहां मौजूद होते हैं और भाषा की अनभिज्ञता के वावजूद उत्सव में पूरे जोश के साथ हिस्सा लेते देखे जा सकते हैं . वे अपने नागरिकों के उत्सवों में सहयोग करके स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं.
दिवाली जैसा त्यौहार बेशक भारत में अब एक दिन और कुछ घंटों की आतिशबाजी तक सिमट गया हो परन्तु लन्दन में कई कई दिनों तक आकाश आतिशबाजी की रौशनी और आवाज से गुंजायमान रहता है. देसी बाजार हों या विदेशी सुपर स्टोर औरमॉल सभी दिवाली की सामग्री और दिवाली सेल से भरे रहते हैं. यहाँ तक कि दिवाली और ईद जैसे त्योहारों पर पर लन्दन केट्रेफेल्गर स्क्वायर पर भव्य रंगारंग कार्यक्रम भी किया जाता है.
बेशक यह बहाना हो अलमारी में रखी साड़ियों और कुरते पजामों को निकालने का या फिर रोज की बनी बनाई व्यस्तम जिन्दगी से कुछ समय उधार लेकर अपनी जड़ों को सींच लेने का, या फिर कुछ परम्पराओं और रिवाजों को निभा कर अपनी पहचान बनाए रखने का. परन्तु अपनी मिट्टी से दूर विदेशी धरती पर इन त्योहारों का परंपरागत रूप से मनाना यह तो तय करता है कि आप एक भारतीय को भारत से बाहर भेज सकते हैं पर उसके दिल से भारत बाहर नहीं निकाल सकते.
बहुत सुंदर आलेख ..गला भर गया और आँखें नम … सच है, जो छूटता जाता है, इंसान उसे और भींचकर रखना चाहता है, क्योंकि उसका मोल तभी समझ आता है ..बहुत ही खूबसूरती से इस सच को उभरा है शिखा …:)
मन को छूती। बढ़िया लिखा है।
विदेश में जाकर देश की याद तो ज्यादा आती ही है। त्यौहारों को विधिवत रूप से मनाना कहीं न कहीं अपनी जड़ों से जुड़े रहने का मीठा सा अहसास देता है।
सुंदर और मन को नम करता आलेख
सादर
अपना देश मन में बसा रहता है – मौका मिला जहाँ बाहर व्यक्त होने को उतावला ,और अपने जैसे कुछ और लोग मिल जायें तो कहना ही क्या !
रोचक प्रस्तुति!
बिल्कुल सही कहा आपने! जिस चीज़ से हम दूर हो जाते हैं, उन चीज़ों की ओर मन और भी शिद्द्त से खिंचता है और फिर ये अपने देश की संस्कृति और परम्पराएँ हैं! इसके अलावा, विदेशों में हमारे त्योहार बहुत ही उल्लास और पूरी गरिमा के साथ मनाए जाते हैं ! वहाँ एक और अच्छी बात ये होती है कि वहाँ, यहाँ की तरह त्योहारों में होने वाले, अनचाहे हुड़दंग नहीं होते बल्कि सुनियोजित ढंग से,अनुशासन में रह कर सब enjoy करते हैं !
~सादर
अनिता ललित
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