दिल्ली के एक मेट्रो स्टेशन पर काफी भीड़ थी. महिलाओं के लिए सुरक्षित डिब्बा जहाँ आने वाला था वहाँ भी लाइन लगी हुई थी. मेट्रो के आते ही एक लड़के ने उस लाइन में आगे लगने की कोशिश की शायद वह महिलाओं के डिब्बे से होकर दूसरे डिब्बे में जाना चाहता था या उसे पता नहीं था कि वह डिब्बा आरक्षित है. उसे देख जिस फुर्ती से वहाँ खड़े गार्ड ने उसे रोका और अपनी बाहों के बल से पीछे धकेल दिया. यह देख मेरा मन उस गार्ड के लिए तालियाँ बजाने को हो आया. इससे पहले कि मैं उसे धन्यवाद कह पाती मेट्रो का दरवाजा खुला और मेरे आगे पीछे से हर उम्र की महिलाओं का एक रेला भेड़ों की तरह उसमें घुसने लगा. उस डिब्बे में पहले से सवार यात्री (जिनमे अधिकांशत: पुरुष थे. और वह उस ट्रेन का आखिरी गंतव्य था यानि सामान्य डिब्बा था जो अब पहला डिब्बा होकर यहाँ से “महिलाओं के लिए” हो गया था.) डिब्बे के अंदर ही ठहर गए और उस रेले के थमने का इंतज़ार करने लगे कि वह थमे तो वह उतरें. तभी पीछे से आवाज़ आई “अरे उतरो भाई ऐसे इंतज़ार करोगे तो फिर वहीँ पहुँच जाओगे जहाँ से आए हो और महिला डिब्बे में होने का जुर्माना देना होगा वह अलग.” और फिर जो ठेलम ठेली हुई उसका अंदाजा लगाया जा सकता है. जाहिर है मैं उस डिब्बे में नहीं चढ़ी और मैंने गार्ड को फटकार लगाते हुए कहा कि उस लड़के को आपने जिस तरह रोका तो इन महिलाओं को क्यों नहीं रोका ? क्यों नहीं कहा कि उतरने वाले यात्रियों को पहले उतरने दें?
वह बड़ी मासूमियत से बोला ” महिलाओं से क्या कहेंगे मैडम जी, वे खुदही बहुत समझदार हैं.नौकरी थोड़े न गवानी है”. मैं हैरानी से उसकी बात का अर्थ समझने का प्रयास करती रही और फिर मुझे याद आया कुछ ही दिन पहले का, एक हॉस्पिटल का वाकया, जो एक मित्र ने आँखों देखा सुनाया था कि एक महिला कर्मचारी अपनी ड्यूटी पर, हॉस्पिटल के ही बिस्तर पर सो रही थी. सुपरवाइजर ने २-३ बार आवाज़ देकर उसे उठाने की कोशिश की. उसके न उठने पर उसने हलके से उसका पैर हिला दिया और बस ..उस महिला ने हंगामा कर दिया कि उसका अपमान किया गया है. वह पुलिस रिपोर्ट करेगी उसके खिलाफ. बात बढ़ती देख सुपरवाइजर ने तुरंत माफी मांग ली और वह महिला कर्मचारी “अपने अपमान” का हर्जाना हॉस्पिटल से लेकर शांत हो गईं.
मुझे गोविंदा पर फिल्माया एक गीत जब तब याद आता रहा –
मैं अपनी शादी में न जाऊं, मेरी मर्जी
मैं बीच सड़क बिस्तर बिछवाऊँ मेरी मर्जी
क़ुतुब मीनार पर घर बनवाऊँ मेरी मर्जी
मुझे अब रोको नहीं, मुझे अब टोको नहीं
मुझे समझाओ नहीं झूठ- सही.
मैं चाहे ये करूँ मैं चाहे वो करूँ मेरी मर्जी।
मेरे मन में आया वाकई भारत में नारी चेतना जोरों पर है. महिलायें आजाद हो रही हैं वे जो चाहें कर सकती हैं और मजाल किसी की जो उन्हें रोक सके. फिर वह चाहे माता पिता ही क्यों न हों. कोई हक नहीं उन्हें अपने बच्चों को कुछ भी कहने का, सही गलत का पाठ पढाने का. वे तो वही करेंगे जो उनकी मर्जी होगी.
बहुत दबा लिया गया उन्हें. बहुत हो गई सख्ती, बहुत छीने गए हैं महिलाओं के अधिकार, समाज ने बहुत कर लिया सौतेला व्यवहार. बस अब और नहीं. अब तो वह बस विद्रोह करेंगीं, हर बात का विरोध करेंगी, वही करेंगी जो उनकी मर्जी होगी तभी तो उन्हें आधुनिक नारी कहा जायेगा.
मैं चाहे ये करूँ, मैं चाहे वो करूँ मेरी मर्जी
फिर आया एक वीडियो और वायरल हो गया.जुबान से निकला yess…that’s it … BOOM…यह तो होना ही था सदियों से बंद सुलगता हुआ ज्वालामुखी जब फटेगा तो ऐसी ही आग उगलेगा।
पर ज़रा ठहर कर सोचिये, क्या यह सब हम अपने बच्चों को सिखाएंगे? और यदि सिखाया तो क्या होगा समाज का स्वरुप? यह कहाँ, किस काल में जा रहे हैं हम.
मनुष्य हैं हम कोई जानवर तो नहीं, एक सामाजिक प्राणी हैं हम. तो समाज में रहते हुए सबकुछ व्यक्तिगत या “माय चॉइस” नहीं हो सकता। फिर बेशक उस समाज में खामियां हैं पर गलत का बदला एक और गलत से तो नहीं दिया जा सकता। सही और गलत की परिभाषाएं पुरुष हो स्त्री सभी के लिए सामान होनी चाहिए। आधी रात को हल्ला करते हुए सड़कों पर भटकना, गन्दी गालियां देना, भीड़ में धकियाते हुए चलना यदि किसी एक के लिए बदतमीजी, आवारगी और अनुशासनहीनता है तो दूसरे के लिए स्वतंत्रता, प्रगतिशीलता या आधुनिकता नहीं हो सकती। हम किसी भी गलत कृत्य को यह कह कर जस्टिफाइ नहीं कर सकते कि हमारे साथ गलत हुआ तो अब यह लो बदला। खून का बदला खून युद्ध में हो सकता है. समाज सुधार इससे संभव नहीं। कहीं न कहीं कोई सीमा, नियम , कानून तो बनाने होंगे, मानने होंगे। हाँ यह माना की हर समझदार औरत सक्षम है अपनी सीमाएं तय करने के लिए. परन्तु उस लाखों करोंडों की आबादी का क्या जो सेलिब्रिटियों में अपना आदर्श ढूंढते हैं और उन्हें ही पढ़कर, सुनकर, देखकर अपनी जीवन शैली निर्धारित करते हैं.
अत: हर उस चेहरे को जिसे लोग देखकर उस जैसा बनने की कोशिश करते हैं, हर उस लेखक को जिसे लोग पढ़ते हैं, हर उस नेता को जिसे लोग सुनते हैं उसकी जिम्मेदारी बनती है कि कोरे नारों की बजाय वह सही दिशा में बात करे. सही मुद्दों पर सुधार और हक़ की बात करे. शिक्षा पर बात करे, आत्मविश्वास पर बात करे, अस्तित्व और स्वाभिमान पर बात करे.
मेरे शरीर पर मेरा हक़ है मैं चाहे दिखाऊं या छिपाऊं। बिलकुल सही है. पर यदि स्त्री पुरुष दोनों यही कहेंगे तो शायद हम आदम युग से भी पीछे चले जाएँ, उस युग में छाल और पत्तों की ओट थी शायद वह भी न रहे.
यह महिला अधिकारों की लड़ाई हो सकती है पर सिर्फ एक सीमित वर्ग की. इसमें खो जाता है एक छोटे से गाँव में अपनी शिक्षा का अधिकार मांगती उस लड़की का संघर्ष, जो न जाने किस -किस से , कैसे -कैसे लड़कर बड़े शहर में अपना मकाम बनाने में जुटी है. इसमें दफ़न हो जाती है उस महिला के अस्तित्व की लड़ाई जो घरेलू हिंसा से लड़ते हुए अपने बच्चों की बेहतरीन परवरिश के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है. सेनेटरी नेप्किन्स चिपकाकर अधिकार मांगने में छिप जाता है उस मजदूर औरत का दर्द जो इस पीड़ा के साथ दिन रात काम करती है.
हम बदलाव की क्रासिंग से गुजरते ट्रैफिक जैसे हैं आज, जहाँ यदि दोनों तरफ का ट्रैफिक तेज़ गति से यह सोच कर चलेगा कि “इट्स माय राइट ऑफ़ वे” तो टक्कर ही होगी और जान – माल का नुक्सान दोनों का ही होगा. साथ ही आगे पीछे की कुछ गाड़ियां भी स्वाहा हो जाएँगी।
अत: बेहतर यही है कि दोनों तरफ के लोग कुछ देर ठिठक कर सोच कर आगे बढ़ें. यदि सामने वाला गलत है तो उसे सुधारने का प्रयास करें, न कि खुद वही गलती दोहराएं।
वरना जिद्द और होड़ में तो टक्करें ही होंगी, जिसमें फायदा तो किसी का न होगा.
जिसका समूह बड़ा उसकी मर्जी चल जाती है यहाँ । स्त्री पुरुष जैसा कोई भेद नहीं । कहीं युवक मर्यादा लांघ रहे कहीं युवतियां । सिविक सेन्स की क्लास होनी चाहिए सभी के लिए ,कक्षा १२ तक और वह भी कम्पलसरी ।
बिलकुल… एकदम सही पकड़ा आपने.
पर करे क्या ये हिन्दुस्तान अइसन ही चलेगा!
शिखा मैंने फेसबुक पर ही अलग अलग जगहों में यही बात कही तो स्त्री विरोधी घोषित कर दी गयी चंद लोगों के द्वारा। लेकिन मैं अब भी वही कहूँगी जो तुमने लिखा। आज़ादी का मतलब उद्दंडता नहीं है। जो काम एक के लिए गलत है वो दुसरे के लिए भी गलत ही है।
इतने शानदार लेख के लिए बधाई।
लोहड़ी की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (13-04-2015) को "विश्व युवा लेखक प्रोत्साहन दिवस" {चर्चा – 1946} पर भी होगी!
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सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत मुश्किल है अपने देश में जहां सुर्खियं ही काम करती हैं … सनसनी रोजमर्रा का जीवन बन गयी है … मर्यादा न भी लांघी हो तो लंघ्वा देते हैं यहाँ …
बहुत सही कहा आपने. आजकल तो ऐसा कहने के लिए बहुत साहस चाहिए
बात घूमफिरकर अपनी ज़िम्मेदारी पर ही आ जाती है। न तो ज़िम्मेदारी की समझ है और न उसके इम्प्लीमेंटेशन का कोई आधिकारिक प्रयास।
बहुत ही विचारणीय मुद्दा है शिखा जी . वास्तव में ऐसी मनमर्जियों का खामियाजा भी वे ही महिलाएं ( पुरुषों के लिए भी यही बात है ) भुगत रहीं हैं जो पहले से ही संयत भी हैं और त्रस्त भी . अमित जी और वन्दना जी की बात से सहमत हूँ .
एक व्यक्ति के रूप में,समाज में अपनी सही भूमिका का निर्वाह दोनों केसमान रूप से ज़रूरी है -स्त्री हो या पुरुष नियम-भंग ,या मनमानी नैतिकता का उल्लंघन है .
कहते हैं आज़ादी अच्छी होती है ज़रूरी होतीं हैं , पर हमारी आज़ादी वहीँ तक सीमित हैं जहाँ से दूसरे की नाक शुरू होती है…हमें अपनी सीमा में रहकर अपनी आजादी का लुत्फ़ उठाना है ..अपनी आजादी किसी पर थोपनी नहीं है ..हमें अपनी आजादी दूसरे की आज़ादी का हनन करके नहीं मिल सकती …बस इसी लकीर, इसी सीमा का ध्यान रखने की ज़रुरत हैं ….सुन्दर .सारगर्भित आलेख …
परम विचारणीय बातें हैं इस लेख में। लेखन में किए गए मानसिक श्रम की आदत बनी रहे, यह कामना है।
एकदम सही..
सशक्तिकरण की सही परिभाषा में जाने कितने बल पडे हैं. शक्ति , अधिकार और कर्तव्य का सही संतुलन आवश्यक है वरना फ़िर से वही असन्तुलन!
सार्थक सोच!
बिन मेरी मर्जी…कमेंट तो किया ही न!! 🙂
कितना सटीक और powerful लेख है shikha…बधाई !
amit जी की बात से सहमत हूँ पूरी तरह….
अनु
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