जबसे भारत से आई हूँ एक शीर्षक हमेशा दिमाग में हाय तौबा मचाये रहता है “सवा सौ प्रतिशत आजादी ” कितनी ही बार उसे परे खिसकाने की कोशिश की.सोचा जाने दो !!! क्या परेशानी है. आखिर है तो आजादी ना. जरुरत से ज्यादा है तो क्या हुआ.और भी कितना कुछ जरुरत से ज्यादा है – भ्रष्टाचार , कुव्यवस्था, बेरोजगारी, गरीबी , महंगाई…
कुछ अंगों,शब्दों में सिमट गई जैसे सहित्य की धार कोई निरीह अबला कहे, कोई मदमस्त कमाल. ******************* दीवारों ने इंकार कर दिया है कान लगाने से जब से कान वाले हो गए हैं कान के कच्चे. ********************* काश जिन्दगी में भी गूगल जैसे ऑप्शन होते जो चेहरे देखना गवारा नहीं उन्हें “शो नेवर” किया जा सकता और अनावश्यक तत्वों को…
मन की राहों की दुश्वारियां निर्भर होती हैं उसकी अपनी ही दिशा पर और यह दिशाएं भी हम -तुम निर्धारित नहीं करते ये तो होती हैं संभावनाओं की गुलाम ये संभावनाएं भी बनती हैं स्वयं देख कर हालातों का रुख मुड़ जाती हैं दृष्टिगत राहों पे कुछ भी तो नहीं होता हमारे अपने हाथों में फिर क्यों कहते हैं कि आपकी जीवन रेखाएं …








