पिछले सप्ताह भारत में सी बी एस सी के बारहवीं के रिजल्ट्स आए और मुख्य मिडिया से लेकर सोशल मीडिया तक काफी गहमा गहमी रही. फोन पर, मेल में हर माध्यम से खुशी की ख़बरें सुनाई दीं.जहाँ तक सुनने में आया ऐसा लगा जैसे ९० % से कम नंबर किसी के आते ही नहीं. हाँ बल्कि शत प्रतिशत वाले भी हैं. 
हालाँकि यह भी सोचने वाली बात है कि वह शत प्रतिशत वाला क्या वाकई परफेक्ट है? वह उस ९०% प्रतिशत वाले से किस तरह से बेहतर होगा या ९० % वाला ९५ % वाले से किस तरह कम होगा. यूँ देखा जाये तो इन प्रतिशतों के खेल में खुश सभी होंगे अविभावक भी और विद्यार्थी भी, परन्तु सुरक्षित कोई भी नहीं नजर आया. 
अधिकतर यही कहते पाए गए कि नंबर तो ठीक हैं पर इंजीनियरिंग – मेडिकल में चयन हो तब बात बने या देश के प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला तो मिले. क्योंकि यह ९० या इससे भी अधिक प्रतिशत भी सुरक्षित भविष्य की गारंटी नहीं हैं. अब जब यह हाल इतने अधिक नंबरों वाले छात्रों का है तो बेचारे ८० प्रतिशत वालों का क्या होगा उन्हें तो शायद किसी अच्छे संस्थान में दाखिला ही न मिले और फिर ७० या ६० प्रतिशत से कम वाले बच्चे ? उनका क्या होगा? वे तो शायद असफल की गिनती में गिने जा रहे होंगे. 
रिजल्ट के बाद ऐसे ही कुछ बच्चों से बात की तो बेहद निराशा पूर्ण बातें सुनने को मिलीं. किसी के माता पिता और घरवाले उन्हें ताने दे देकर मारे डाल रहे हैं तो कोई खुद ही शर्म और डर से अपनी जान लेने की सोच रहा है. कोई इन सब से दूर कहीं भाग जाना चाहता है और फिर कभी लौट कर नहीं आना चाहता. तो कोई बेहद अवसाद की अवस्था में है और उसे अपनी जिंदगी का कोई मकसद या भविष्य का कोई रास्ता अब दिखाई नहीं देता. यह हाल देश के उस तथाकथित भविष्य का है जिनकी (युवाओं) सर्वाधिक संख्या वाला देश होने का गुमां हम पाले बैठे हैं और जिनके बूते पर भारत विश्व शक्ति बनने के सपने देखता है. 
परन्तु इस स्थिति में गलती इन बच्चों की तो कतई नहीं है. इस गला काट प्रतियोगिता के युग में दोष माता पिता को भी नहीं दिया जा सकता. फिर समस्या है कहाँ ? जाहिर है कोई कमी अवश्य ही व्यवस्था में है जहाँ सामान्य से अधिक नंबर पाने वाला बच्चा भी अपने भविष्य को लेकर सुरक्षित नहीं है और एक कुशल युवा महज कुछ नंबरों की कमी की वजह से इस नंबर रेस में पीछे छूट जाता है और सारे मौकों से हाथ धो बैठता है. नतीजा – युवाओं में बढता असंतोष, अवसाद और बढ़ती आत्महत्याओं की संख्याएँ.

आजकल यहाँ ब्रिटेन में बारहवीं कक्षा की परीक्षाएं चल रही हैं. दसवीं के बाद यह एक ऐसा इम्तिहान होता है जिस पर विद्यार्थियों का पूरा भविष्य निर्भर होता है. इन्हीं के परिणाम के आधार पर उनके आगे के विषय और यूनिवर्सिटी टिकी होती हैं. जाहिर है स्कूलों में और इस उम्र के बच्चों वालों घरों में माहौल कुछ तनावपूर्ण है. आखिर लन्दन में बसे एशियाई मूल के लोगों में भी वही दिल है जो नंबरों और ग्रेड को लेकर धड़कता है. आलम यह हो गया है कि स्कूल में टीचर के पूछने पर जब कोई बच्चा कहता है कि वह डॉक्टर या इंजिनियर बनना चाहता है या A* से कम उसे मंजूर नहीं तो तुरंत सवाल आता है कि “क्या आप भारतीय हैं ?” of course asian parents.

यानि लंदन में बढ़ते बहुदेशीय परिवेश के चलते पिछले कुछ समय में परीक्षाओं और परिणामों का तनाव काफी बढ़ा है परन्तु ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि A  ग्रेड से कम पाने वालों के लिए कोई मौके या स्थान ही नहीं है. बच्चों में परीक्षाओं को लेकर तनाव तो होता है परन्तु इतना नहीं कि वे हताश हो जाएँ, या आत्महत्या करने लगें। कम अंक आने से उनके आगे के रास्ते बंद नहीं होते बल्कि और ढेरों रास्ते उनके लिए खोले जाते हैं.  मार्गदर्शन स्कूल और कॉलेजों की तरफ से किया जाता है. वैकल्पिक विषयों की सूचना दी जाती है. अप्रेन्टिसशिप के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. सामान्य अंक पाने वाले विद्यार्थियों को हिराकत की नजर से नहीं देखा जाता न उनके सामने से किसी भी तरह के मौके हटाये जाते हैं. बल्कि उनमें और संभावनाएं तलाशी जाती हैं और उन्हें आगे बढ़ने के लिए उत्साहित किया जाता है. आखिर अधिक अंक ही तो कुशलता की पहचान नहीं हो सकते।