लंदन में जुलाई का महीना खासा सक्रीय और विविधताओं से भरा होता है खासकर स्कूल या कॉलेज जाने वाले बच्चों और उनके अविभावकों के लिए – क्योंकि ब्रिटेन में जुलाई में शिक्षा सत्र की समाप्ति होती है, रिजल्ट आते हैं और फिर जुलाई के आखिरी महीने में गर्मियों की लम्बी छुट्टियां हो जाती हैं. जहां छोटे बच्चों का प्रमुख उत्साह छुट्टियों, एवं उन्हें कैसे मनाना है, कहाँ घूमने जाना है इस सब बातों को लेकर रहता है वहीं उनके माता पिता के लिए छुट्टियों के दौरान उनकी देखभाल और उन्हें व्यस्त रखने की जुगत का समय भी यही होता है.
परन्तु इनसब से अलग एक और खास बात होती है वह यह कि नवयुवकों के लिए यह समय अपने लिए कुछ कार्यानुभव ढूंढने और करने का भी होता है. ब्रिटेन में १३ साल के बाद कुछ सिमित घंटों एवं बच्चों के हित में कुछ शर्तों के साथ उन्हें पार्ट टाइम काम करने या कार्यानुभव लेने की इजाजत है. अत: इन बच्चों को इनकी उम्र के मुताबिक स्कूल के समय और पढाई के अलावा उनकी रूचि और आगे के कैरियर से सम्बंधित असली ऑफिस या काम की जगह पर जाकर कुछ समय कार्यानुभव लेने के लिए उत्साहित किया जाता है.
इनमें १४-१६ साल तक के बच्चे अधिकतर किसी ऑफिस में, किसी दूकान में या स्कूल में दिन में कुछ घंटे या एक – दो हफ़्तों के लिए वहां काम करने के लिए जाते हैं. हालाँकि इस गतिविधि का मुख्य उद्देश्य स्कूल और घर से निकल कर वास्तविक दुनिया के काम -काज देखने , सीखने और वास्तविक कार्य का अनुभव लेने के लिए होता है परन्तु अधिकांशत: देखा जाता है कि कार्यस्थल पर ये बच्चे या तो किसी के पास बैठकर उसे या उसके कम्प्यूटर की स्क्रीन घूरते रहते हैं या इंतज़ार करते रहते हैं कि कोई बड़ा आये तो उसे चाय कॉफ़ी पूछ कर, बना कर दे दें या बहुत हुआ तो फोटो कॉपी करना, पेपर यहाँ से वहां पहुँचाना जैसे बेसिक काम कर दिए.
जहां न तो उन्हें अपने कैरियर से सम्बंधित किसी काम का कोई अनुभव मिलता है न ही उन्हें किसी काम को करने की आदत ही हो पाती है.
उसपर भी एशियाई मूल के माता पिता तो इन कामों में भी बेहद सिलेक्टिव हुआ करते हैं. जो काम उनके बच्चे को करना चाहिए उनकी लिस्ट बेहद छोटी और जो नहीं करना चाहिए उसकी लिस्ट बेहद लम्बी हुआ करती है. जैसे कि हर माता पिता चाहते हैं उनका बच्चा किसी बड़ी कंपनी में अच्छे सेटअप में कार्यानुभव के लिए जाए. कोई नहीं चाहता कि उनका बच्चा किसी सामाजिक संस्था में किसी सेवा कार्य से जुड़े किसी कार्य को करे. ऐसे में इन बच्चों के लिए ये कार्यानुभव एक छोटे स्कूल के माहौल से निकल कर एक बड़े स्कूल में बड़े लोगों के माहौल को देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। वह अपने कैरियर और जिंदगी को लेकर वैसा ही कन्फ्यूज और कूप मंडूक बने रहते हैं.
ऐसे में पिछले महीने लन्दन के वेस्ट फिल्ड मॉल में बच्चों का एक खेल केन्द्र खोला गया है. जो बच्चों के बीच महंगी टिकट के वावजूद बेहद लोकप्रिय हो रहा है. “सिटी” किडजानिया” नाम का यह प्ले सेंटर बच्चों के लिए पूरे एक शहर की तरह है. जहाँ अस्पताल, पोस्ट ऑफिस, पुलिस स्टेशन, फायर स्टेशन, स्कूल, थिएटर आदि ६० से भी ज्यादा प्रतिष्ठान हैं जहाँ बच्चे जाकर असली दुनिया के इन असली जगहों पर कैसे काम होता है यह खुद काम कर के देखते हैं. वहाँ उन्हें इन संस्थानों में काम के पैसे भी दिए जाते हैं और उन्हें कैसे संभालना है कैसे खर्च करना है आदि भी बाताया जाता है. इन अलग -अलग जगह पर अलग तरह के काम करके बच्चा न सिर्फ यह जानने में सक्षम होता है कि किस कार्य की क्या अहमियत है और किस कार्य में अधिक पैसा मिलता है बल्कि वह यह भी समझ पाता है कि उसे कौन सा काम करने में सबसे ज्यादा आनंद एवं संतुष्टि मिलती है. उसे समझ में आता है जिंदगी में काम पैसे के लिए नहीं जीने के लिए किया जाता है और कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता. बहुत से बच्चे यह कहते हुए पाए गए कि उन्हें पता ही नहीं था कि फलाना – फलाना भी एक काम होता है और उन्हें बाकियों से ज्यादा तनख्वाह मिलती है.
घर में बैठकर विडियो गेम्स में दुनिया ढूँढने वाले और स्कूल में एक -एक प्रतिशत के लिए तनाव झेलने वाले हमारे भविष्य के इन कर्णधारों के लिए इस तरह के केन्द्रों और गतिविधियों की आज बहुत अहमियत है. एकाकी परिवारों, कामकाजी माता पिता और अपने कमरे में अपने प्ले स्टेशन और फोन में सिमटी इस पीढ़ी के लिए बेहद आवश्यक है कि वह बाहर निकल कर वास्तविक समाज और उसकी वास्तविक समस्याओं से रूबरू हो.
आपकी लिखी रचना पांच लिंकों का आनन्द में सोमवार 20 जुलाई 2015 को लिंक की जाएगी…………… http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ….धन्यवाद!
मुम्बई में भी है किड्ज़निया । भारत में बस डॉक्टर इंजीनियर बनना चाहते हा
हाँ मुंबई में भी है …पर टिकट बहुत महँगी है. मिडिल क्लास के बच्चे तो सोच भी नहीं सकते जाने का.
वाह! दिलचस्प है यह .
स्वावलंबएन के पाठ के साथ कमाई भी!
और विभिन्न संस्थानो के कामकाज जानने के साथ सेवा भी!
दुबई में भी खुले हैं एस जगहें पर टिकट इतनी मंहगी है की कुछ वर्ग के लोग ही जा सकते हैं … पर अगर देश की बाल-स्कूलों में पढ़ाई भी इसी आधार पर हो तो कितना अच्छा …
हमेशा की तरह उपयोगी ज्ञानवर्धक एवम रोचक
तमाम बातों में पाश्चात्य की नकल करने वाले अपने देश में भी इस तरह के प्रयोग होने चाहिये. यहां तो छुट्टियों में सिवाय खेलने कूदने के या गर्मियों की दोपहर में घर में दुबके रहने के और कुछ न कर पाते बच्चे.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-07-2015) को "कौवा मोती खायेगा…?" (चर्चा अंक-2043) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अरे वाह…ये तो अच्छा है..काश यहाँ भी होता ऐसा कुछ !
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