कुछ ताज़ी हवा के लिए खिड़की खोली तो ठंडी हवा के साथ तेज कर्कश सी आवाजें भी आईं, ठण्ड के थपेड़े  झेलते हुए झाँक कर देखा तो घर के सामने वाले पेड़ की छटाई हो रही थी।एक कर्मचारी सीढियाँ लगा कर पेड़ पर चढ़ा हुआ था और इलेक्ट्रिक आरी से फटाफट टहनियां काट रहा था, दूसरा ,थोड़ी दूरी पर ही ट्रक के साथ रखी मशीन में उसे डालता जा रहा था , जहाँ हाथ की हाथ उन लकड़ियों के चिप्स बनते जा रहे थे जिन्हें उस ट्रक में इकठ्ठा किया जा रहा था , और फिर इन्हें फुटपाथ की खुली मिट्टी के ऊपर डाल दिया जाता है जिससे की मिट्टी या धूल न उड़े, यानि उन टूटी हुई टहनियों की रिसायकलिंग की जा रही थी। यह कार्य यहाँ प्रतिवर्ष हर इलाके में बारी बारी से इस मौसम में किया जाता है जब पेड़ पूरी तरह से पत्तियों से वंचित होते हैं और बसंत के आने में कुछ समय बाकी होता है, ऐसे में पेड़ों की लटकती शाखाएं जो नागरिकों की आवाजाही या कार्यकलापों में बाधा उत्पन्न करती हैं उन्हें काट दिया जाता है। और पेड़ों के ठूंठ फिर से नई पत्तियों और शाखाओं के लिए तैयार हो  जाते हैं। यह शोर उन्हीं मशीनों का था। 

टहनियां कटती और चिप्स बनकर ट्रक तक पहुँचती 




न जाने क्यों मेरा मन इस आवाज से बचने के लिए खिड़की बंद करने का नहीं हुआ, बहुत देर तक बाहर चलते इस क्रम को निहारती रही। जाने क्यों मन किया कि मैं भी पहुँच जाऊं वहां और काट डालूँ उन सूखी शाखाओं को जो जनजीवन में बाधा उत्पन्न करती हैं। कुछ तथाकथित पुरानी जर्जर परम्पराओं की तरह ,जो धर्म और संस्कृति के पेड़ से उपजीं। और समय के साथ फ़ैल गईं परन्तु हमने उन्हें हटाया नहीं, नए समय के अनुसार उनमें बदलाव लाने की चेष्टा नहीं की, अपनी संस्कृति को नई बहार के साथ फलने फूलने के लिए तैयार नहीं किया, बल्कि लटकने दिया उन सूखी शाखाओं को इतना कि वर्तमान परिवेश और रहन सहन में वह बाधा बनती गईं, एक बोझ और कुरीतियों को जन्म देती गईं, समय के बदलते हुए अर्थ हीन होती गईं, पर हम उन्हें सहेजे गए न जाने क्यों? 

मैला कर दिया हमने पवित्र कहे जाने वाले पानी को फिर भी अपना मैल उससे धोते जा रहे हैं, कैसे वह साफ़ होगा नहीं जानते पर परंपरा है तो निभा रहे हैं। करोड़ों की भीड़ में गुमा देते हैं अपनों को, धकम पेल में न जाने हो जाते हैं कितने आहत, अपनी गली, मोहल्ले की महिलाओं का करते हैं अनादर और फिर एक खास दिन , खास स्थान पर जाकर माँ और एक स्त्री रुपी देवी से गुजारिश करते हैं पाप धोने की, मानवता होती है हर पल शर्मसार , फिर भी पुण्य मिलता है हमें, परंपरा जो है। बेटा नहीं है, फिर भी माता पिता को शादी शुदा बेटी के घर रहने से पाप लगेगा, परंपरा जो है। देश बेशक मंदी के दौर से गुजरे पर महारानी के जश्न वैभवपूर्ण हों, आखिर परंपरा का सवाल है। ऐसा नहीं कि सभी परम्पराएँ गलत हैं, किसी की श्रृद्धा या भावना को आहत करने का मेरा मकसद नहीं है। परन्तु न जाने कितनी ही ऐसी परम्पराएं हैं दुनिया में, जो मानव ने अपनी खुशी के लिए बनाईं पर आज उन्हीं के बोझ तले दबा है। क्यों नहीं वह पेड़ की अवांछित टहनियों की तरह इन अनावश्यक परम्पराओं से भी छुटकारा पा सकता।
मन में ख्याल आया तो, कि जाकर मैं भी कोशिश करूँ एक बार इन्हें काटने की। पर क्या जितनी कुशलता से वह काट रहे थे इतनी कुशलता से मैं काट पाती , “जिसका काम उसी को साजे ” बेहतर है करने दिया जाये उन्हीं को, जो सक्षम हैं, जिन्हें ज्ञान है पूरा और जिन्हें नियुक्त किया गया है इसी कार्य के लिए। हमने टैक्स देकर अपना योगदान दिया है, हमसे सिर्फ इतना अपेक्षित है कि जब उन्होंने बोर्ड लगाया था पहले दिन कि, कल यहाँ वाहन न खड़ा करें तो उसे हम मानें। जिससे कर सकें वे सुचारू रूप से अपना काम। बेहतर है हर एक को करने दिया जाये उसका कार्य और हर कोई करे अपना काम, तभी बनती है व्यवस्था और साफ़ सुधरा रहता है समाज भी और वातावरण भी। क्यों हमें बताना चाहिए सीमा पर तैनात बहादुर सैनिकों को कि, उन्हें कैसे निबटना चाहिए दुश्मनों से, या कैसे सिखाना चाहिए उन्हें सबक, क्यों अड़ाई जाये किसी के काम में अपनी टांग,और दिए जाएँ बेवजह अपने उपदेश, क्योंकि है हमें आजादी अभिव्यक्ति की।
हाँ इतना जरूर है कि उनकी मदद हम कर सकते हैं। अपना हिस्से का कर्तव्य पूरा कर के। वह अपना कार्य सुचारू रूप से कर सके इसमें उनकी मदद ,अपना फ़र्ज़ पूरा करके।एक सभ्य और जिम्मेदार नागरिक की तरह क्यों नहीं हम वह करते जिसकी कि व्यवस्था के तहत हमसे अपेक्षा की जाती है। भरें सही टैक्स कि मिल सकें उन्हें सही सुविधाएँ, करें अपने मत के अधिकार का सही प्रयोग और चुने सही प्रतिनिधि, करें अपने विचार व्यक्त पर उन्हें थोपें नहीं.न करे ऐसा कोई काम जो बने बाधा किसी के भी कार्य में।
बस इतना भर …क्या इतना मुश्किल है करना ?.
तैयार पेड़ नई बहार के स्वागत में .