कल रात सपने में वो मिला था 
कर रहा था बातें, न जाने कैसी कैसी 
कभी कहता यह कर, कभी कहता वो 
कभी इधर लुढ़कता,कभी उधर उछलता 
फिर बैठ जाता, शायद थक जाता था वो 
फिर तुनकता और करने लगता जिरह 
आखिर क्यों नहीं सुनती मैं बात उसकी 
क्यों लगाती हूँ हरदम ये दिमाग 
और कर देती हूँ उसे नजर अंदाज 
मारती रहती हूँ उसे पल पल 
यूँ ही, ऐसे ही, किसी के लिए भी।
मैं तकती रही उसे, यूँ ही 
निरीह, किंकर्तव्यविमूढ़  सी 
क्या कहती, कैसे समझाती उसे 
कि कितना मुश्किल होता है 
यूँ उसे दरकिनार कर देना 
सुनकर भी अनसुना कर देना 
और फिर भी छिपाए रखना उसे 
रखना ज़िंदा अपने ही अन्दर 
रे मन मेरे !! मैं कैसे तुझे बताऊँ 
जो तुझे मारती हूँ तो 
खुद भी मरती हूँ शनै: शनै:.