एक दिन उसने कहा कि
नहीं लिखी जाती अब कविता
लिखी जाये भी तो कैसे
कविता कोई लिखने की चीज़ नहीं
वो तो उपजती है खुद ही
फिर बेशक उगे कुकुरमुत्तों सी,
या फिर आर्किड की तरह
हर हाल में मालकिन है
वो अपनी ही मर्जी की।
कहाँ वश चलता है किसी का,
जो रोक ले उसे उपजने से।
हाँ कुछ भूमि बनाकर
उसे बोया जरूर जा सकता है।
बढाया भी जा सकता है,
कुछ दिमागी खाद पानी डाल कर .
संवारा भी जा सकता है,
कुछ कृत्रिम संसाधनों से।
फिर वो कविता जैसी तो होती है,
पर कविता नहीं होती।
कविता तो उगेगी खुद ही,
कभी भी, कहीं भी ..
उगतीं हैं कवितायें…
![](http://shikhavarshney.com/wp-content/uploads/2016/01/images15.jpeg)
yahi to hai natural kavita…. khud panapti
कुकुरमुत्ते सी ही
Hmmm:) sahi kaha
bahut sunder likhi hai ji ye kavita
isme kya shak hai kavita to khud hi ugegi kabhi bhi kahin bhi
vaakai kavitayen ugati hain aur dekho na kabhi kabhi kuchh aisa ghat jata hai ki charon taraph kavitaaon ke jhund se nikalane lagate hain. kab kaun chahata hai ki har koi ek bat par likhe.
इत्ती सुन्दर कविता तो उग आई , अपन तो उससे जबरी करते है तो वो भाग जाती है , इसीलिए कभी कभी भूले भटके आती है आपने पास.
बहुत सही कहा। जो उपजे , वही कविता है।
सुन्दर कविता
पर कविता नहीं होती।
कविता तो उगेगी खुद ही,
कभी भी, कहीं भी ..बहुत सुन्दर ..
जंगली फूल सी कविता में ही तो मादक गंध होती है…..
नशीली कविता…
क्या बात कही शिखा…
अनु
साहित्य निर्माण प्रक्रिया पर प्रकाश डालती सुंदर कविता। बधाई। सृजक को भी पता नहीं होता कि उसके भीतर से जो बाहर आ रहा वह कैसे, क्या होगा पर जो भी होगा वह सुंदर जरूर होगा। चंद शद्बों में सहज अभिव्यक्ति।
आज की ब्लॉग बुलेटिन दोस्तों आपकी मदद चाहिए – ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
दिल को धड़कने का सबब नहीं चाहिए… वो तो धड़कता है…बस यूँ ही…,
कविता भी उतर आती है… दबे पाँवों से काग़ज़ पर, सुनकर आहट उसकी…
बस यूँ ही…
~सादर!!!
अगली के उगने तक हम सब को इंतज़ार रहेगा 🙂
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
—
इंजीनियर प्रदीप कुमार साहनी अभी कुछ दिनों के लिए व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है और आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (03-04-2013) के “शून्य में संसार है” (चर्चा मंच-1203) पर भी होगी!
सूचनार्थ…सादर..!
सही है कवितायें कभी-कभी और कहीं कहीं ही उग पाती है…
सच है-कविता एक उछलती लहराती नदी की धारा है
jee haan ! kavita to avatarit hotee hai
बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ एक साथ सभी पोस्ट पढ़ी ।अच्छा लगा अलग देशो का रंग भरा त्यौहार आपकी कलम से जानना ।साहित्यिक गोष्ठी का चित्रमय वर्णन अच्छा लगा ।
और कविताओ का उगना बहुत सरे अर्थ देगया ।
सच है कविता अनायास फूट पड़ती है- और व्यक्त करने के लिए बाहरी उपादान भी उपस्थित हो जाते हैं !
सही है ……मन के भाव कब,कहाँ कुछ लिखने को मजबूर कर दे ..वो हम नहीं जानते
सच बात …
स्वतः ही आती है कविता …
जब कलेजे में हूक सी उठे,
जी मचले पर खिल उठे ,
लब मुस्कराएं और दिल रूठे ,
'दो हरफ' बन कविता बस जी उठे ।
खूब ….. जाने कब भाव शब्दों में ढल जाते हैं…..
सच ही
कविता उपजती है
स्वत: ही
जब मन की धरती
होती है भुरभुरी
तो सोख लेती है
भावनाओं का पानी
और बीज कविता के
फूट पड़ते हैं
निकल आते हैं अंकुर
और लहलहा जाती है
कोई नन्ही सी कविता ….
पर जब
हो जाता है मन बंजर
तो कैसे उगे कोई कविता ????????????
बहुत सुंदर रचना
बिल्कुल । कविता उगती है । कविता बहती है । बहुत सुन्दर ।
कविता जब उगती है मन खुशबु के भावों से भर जाता है
latest post कोल्हू के बैल
पानी, मिट्टी मिलेगी तो कविता बनेगी ही..सुन्दर निरूपण..
बिलकुल कविता तो स्वत: ही पल्लवित पुष्पित होती है।
सच कहा आपने कविता जन्म लेती है तो हमारे अन्दर से ही लेकिन पता नहीं शब्दों साथ कब ये रूप ले लेता है …….
कविता तो उगेगी,स्वंम ही—
सही कहा.
मैं सोचती हूं,कविता एक बिन बोया बीज है जो,जीवन की
पगडंडी के साथ-साथ फूट ही पडते हैं,जो सम्वेदनशील हैं
उन्हें खुशबू आ ही जाती है.
कविता के सच को लिखा है … वो अपने आप ही उगती है … बिना खाद पानी के भी उगती है … लाजवाब ..
फिर भी कुछ लोग हैं जो कविताएं लिखते हैं
सृजन तो अन्दर से ही निकलता है, इसपर जोर जबरदस्ती नहीं है।
जो स्वयं उगती है ! कविता भावों की निर्झरनी है , बहती है अपने आप , तब ही ज्यादा भली लगती है !
सच में !
हाँ कुछ भूमि बनाकर
उसे बोया जरूर जा सकता है।
बढाया भी जा सकता है,
कुछ दिमागी खाद पानी डाल कर .
संवारा भी जा सकता है,
कुछ कृत्रिम संसाधनों से।
फिर वो कविता जैसी तो होती है,
पर कविता नहीं होती।
कविता तो उगेगी खुद ही,
कभी भी, कहीं भी ..
SACH KAHA AAPPANE
कविता तो उगेगी खुद ही,
कभी भी, कहीं भी ….लाजवाब.
बिल्कुल सही कहा
स्वत: उपजी कविता ही जीवन्त होती है और श्रोता के मर्मस्थल को स्पर्श कर पाती है।
सही कहा वो तो अपनी मर्जी की मालिक है ….जब मिलती है भावनाओं की जमीं तो फुट पड़ते है नन्हे अंकुर ..और उग जाती कविता
सही कहा शिखा …कविता किसी ज़मीन की मोहताज नहीं होती …
वह तो उड़ती हैं उन्मुक्त …अपने ही परवाज़ में ….
डूबती उतराती है …बस अपने ही अंदाज़ में …..
खिलखिलाकर हँसती है …..जब टोहता है कोई …
आँखों में उभर आती है ….जब ग़मज़दा हो कोई
अच्छा तो ये बात है 🙂 🙂 🙂
वाह शिखा दी !!! मज़ा आ गया पढ़कर | बहुत सुन्दर लेखन | पढ़कर आनंद आया | आशा है आप अपने लेखन से ऐसे ही हमे कृतार्थ करते रहेंगे | आभार
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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बहुत सुंदर
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