अपनी स्कॉटलैंड यात्रा के दौरान एडिनबरा के एक महल को दिखाते हुए वहां की एक गाइड ने हमें बताया कि उस समय मल विसर्जन की वहां क्या व्यवस्था थी। महल में रहने वाले राजसी लोगों के पलंग के नीचे एक बड़ा सा कटोरा रखा होता था। जिसमें वह नित मल त्याग करते थे और फिर उसे सेवक ले जाकर झरोखों / खिडकियों से नीचे वाली सड़क पर फेंक देते थे .जिसपर आम लोगों का आना जाना हुआ करता था और उस काल में नंगे पाँव ही लोग चला करते थे .कितनी ही बार ऊपर से फेंका हुआ मल उन आम लोगों के ऊपर भी  पड़ जाया करता था। उस गाइड का यह वृतांत सुन मेरा मन वितृष्णा  से भर गया .मन में आया कि हम कितने भी पिछड़े हुए सही पर किसी भी काल में इतने अभद्र तो कभी नहीं रहे।जाहिर है जिस काल समय में आज सभ्य और परिष्कृत कहे जाने वाले देशों को मूल भूत सभ्य समाज की तमीज भी नहीं थी, तब हमारा देश ज्ञानी कहलाता था।एक स्वच्छ ,श्यामला , पवित्र धरा।एक संस्कार , संस्कृति, संपदा  और ज्ञान का केंद्र।


फिर धीरे धीरे समय का पहिया घूमना शुरू हुआ और स्थितियां बदलने लगीं .वह असभ्य ,अज्ञानी देश हमसे सीख सीखकर सभ्य होते चले गए ,विकसित होते गए और हम जहाँ थे वहीँ अटक कर रह गए .अपने अतीत पर गुमान करते रह गए, और भविष्य को नजरअंदाज करना आरम्भ कर दिया।कहीं कोई  तो स्वभावगत  कमी हममें ही रही होगी कि विदेशियों का आकर्षण हम पर इस कदर हावी हुआ, कि अपना सब कुछ छोड़ हम दौड़ पड़े उनके पीछे। न जाने कैसा वो प्रभाव था कि हम उनका सब कुछ अपनाने को उतावले होते गए , संस्कृति, भाषा, रहन सहन सब कुछ। और इसी अंधी दौड़ में रह गए पीछे , बहुत पीछे, उससे भी पीछे जहाँ से हमने सभ्यता की शुरुआत की थी।

आज हम, अपने घर का कचरा खिड़की से बाहर  सड़क पर फेंकते हैं, सदियों बाद आज भी हमारी सड़कों के किनारे लोटे लेकर बैठे लोगों की पंक्तियाँ दिखतीं हैं।और हम आज भी जब बात दान धर्म की आती है तो शौचालयों की जगह मंदिर/मस्जिद  बनाने को महत्ता देते हैं। हालात यह कि इन सभी समस्यायों और हालातों के लिए हम एक दूसरे पर  उंगली उठा देते हैं। कोई आइना दिखाता  है तो कहते हैं, जा पहले अपनी सूरत देख कर आ। कोई कुछ कहने की कोशिश करता है तो कह देते हैं .तुम बाहर के हो तुम्हें कहने का कोई हक नहीं।कोई हमारी कमियाँ बताता है तो हम उसे सुधारने की बजाय दूसरे  की कमियाँ तलाशने लगते हैं। कहने का मतलब यह कि कोई भी गुनाह इसलिए गुनाह नहीं रहता क्योंकि दूसरा भी यही गुनाह कर रहा है।हर अपराधी यह कहकर अपराध मुक्त हो जाता है कि दूसरी पाली में भी एक अपराधी है।
यानि सजा किसी को नहीं।सब अपराधी तो सजा दे कौन। जब सजा नहीं तो अपराध कैसा . इसी मुगालते में वर्षों बीत गए .हमने अपनों के प्रति हीन भावना और बाहरी लोगों के लिए उच्च भावना बढ़ा ली । उनकी हर चीज़ से हम होड़ करने लगे, सब कुछ उनकी नक़ल से किया जाने लगे और उसी को विकास का मूल मन्त्र भी समझा जाने लगा।परन्तु उस विकास के वृक्ष की जड़ हम नहीं देख पाए न ही हमने कभी देखने की कोशिश की। ऊपरी हरे पत्ते हमें लुभाते रहे और हम उन्हें तोड़ तोड़ अपने व्यक्तित्व को सजाने की कोशिश करते रहे कुछ समय के लिए उन पत्तों से हम चमक गए , बाहर से दिखने में सब कुछ हरा भरा दिखाई देने लगा। परन्तु वे पत्ते कभी तो पीले  पड़ने  ही थे, पीले पड़कर गिर जाते और फिर समाज को दूषित करते। हमने कभी उस विकास रुपी पेड़ को सुचारू रूप से अपने समाज में ज़माने की कोशिश नहीं की, कभी उसकी जड़ में व्याप्त उर्वरकों को जानने की कोशिश नहीं की।कभी यह नहीं समझा कि जिस पेड़ के पत्ते हम तोड़ कर खुश हो जाते हैं  उस पेड़ को उगाने में कितनी मेहनत , कर्तव्य , और निष्ठा के खाद पानी की जरूरत पड़ती है।

ऐसा तो नहीं की वक़्त के साथ हमारे दिमाग को जंग लग गया है, या हमारी प्रतिभाएं समाप्त हो गईं हैं। आज भी दुनिया हमसे बहुत कुछ सीखती है, बहुत कुछ अपनाती है और खुद को समृद्ध करती है।हमारा फायदा उठाती है।  परन्तु हम अपना फायदा नहीं उठाते, हम अपने आप को भुलाए बैठे हैं .क्या हमारा देश हनुमानों का देश है जहाँ उसे हर बार कोई उसका बल याद कराने वाला चाहिए। या हम आत्म मुग्धता के शिकार हैं। अतीत में हमने दुनिया को जीरो दिया जिसे पाकर दुनिया ने सारी  गणनाएँ कर लीं और हम अपने जीरो में ही घुसे बैठे रहे। हमने अन्तरिक्ष में बांस घुमा कर ब्रह्माण्ड तलाशा. उस तकनिकी का ही इस्तेमाल करके दुनिया चाँद पर जा पहुंची और हम अपना बांस निहारते रह गए। तो आखिर चूक कहाँ है ? क्या हम भविष्य में उसे समझकर संभल पाएंगे ? क्या हम उगते हुए सूरज की रौशनी को आत्मसात कर पायेंगे या फिर वह सूरज जाकर छुप जायेगा पश्चिम में और हम उसकी तरह मुँह कर यूँ ही हुंकारते रह जायेंगे।

 क्या अब वक़्त नहीं,उस वृक्ष को अपने ही घर में रोपने का जिसपर स्वत: ही हरे पत्ते निकलें और हमारे दिन पर दिन झुलसते समाज को फिर से भरपूर छाया नसीब हो। क्या अब हमें पीछे मुड़ मुड़ कर अपने अतीत पर इठलाने की बजाय, उससे प्रेरणा ले आगे नहीं बढ़ना चाहिए.अब वक़्त उस वृक्ष के सिर्फ हरे पत्ते तोड़कर अपने घर भरने का नहीं बल्कि वक़्त है उस पेड़ की व्यवस्था रुपी जड़ें तलाशने का। जिससे हमारा भविष्य भी हमारे अतीत की तरह ही सुदृण और खूबसूरत हो।

एडिनबरा के होलीरूड महल में क्वीन मेरी का शयन कक्ष।
तथाकथित रूप से जहां पलंग के नीचे मल त्याग करने के लिए बाउल  रखा जाता था .
In Navbharat “Avakaash” 9th Dec 2012.