बैठ कुनकुनी धूप में 
निहार गुलाब की पंखुड़ी 
बुनती हूँ धागे ख्वाब के 
अरमानो की  सलाई पर.
एक फंदा चाँद की चांदनी 
दूजा बूँद बरसात की 
कुछ पलटे फंदे तरूणाई के
कुछ अगले बुने जज़्बात के.
सलाई दर सलाई बढ चली 
कल्पना की ऊंगलियाँ थाम के.   
बुन गया सपनो का एक झबला 
रंग थे जिसमें आसमान से. 
जिस दिन कल्पना से निकल 
ये मन
जीवन के धरातल पर आएगा 
उस दिन मैडम तुसाद में एक बुत
इस नाचीज़ का  भी लग जायेगा.