कुछ दिन पहले एक दोपहर को दरवाजे की घंटी बजी,जाकर देखा  तो सूटबूटटाई में ३- ४ महानुभाव खड़े थे. उनमे से एक ने बड़ी शालीनता से आगे बढ़कर एक परचा थमाया और धन्यवाद कहकर चले गए. दरवाजा बंद करके मैंने पर्चे पर नजर डाली तो समझ में आया कि वह एक राजनैतिक पार्टी के चुनाव प्रचार का परचा है जिसमें उस पार्टी को वोट देने की गुजारिश की गई है. पर्चे पर मौजूद एक तस्वीर पर नजर पड़ी तो समझ में आया कि परचा पकड़ाने वाला खुद इस इलाके का एम पी था. एक बार फिर देखने के लिए खिड़की से झाँका तबतक वह लोग काफी आगे जा चुके थे. कमाल था. उनके पीछे लोगों की न तो भीड़ थीन आगे पीछे गाड़ियों का रेलान बॉडी गार्ड और न ही नारे लगाते पार्टी के लोग. 
असल में सात मई को यू के में जनरल चुनाव होने वाले हैं. हालाँकि चुनाव के मैदान में काफी पार्टियां है परन्तु मुख्य मुकाबला लेबर और कंजरवेटिव पार्टी के बीच ही है. हालाँकि कयास यह भी लगाया जा रहा है कि बहुमत किसी भी पार्टी के हिस्से नहीं आएगा. 

यूँ सभी पार्टियों के अजेंडे में इस बार इकोनॉमी ही हैफिर भी ब्रिटेन में घरों की समस्या और उनके आसमान छूते  मूल्य, NHS (नेशनल हेल्थ सर्विस) और स्वास्थ्य  समस्याएं ऐसे मुद्दे हैं जो इस चुनाव में हर पार्टी के वादों में मुख्य रूप से शामिल हैं. कामकाजी माता पिता के लिए सहज चाइल्ड केयर और किराएदारों के लिए भी कुछ सुविधाएं दोनों पार्टियों की पॉलिसी लिस्ट में शामिल हैं. वोटर्स के लिए भी यही समस्याएं  हैं जिनके निराकरण के लिए वह अपने उम्मीदवारों की तरफ देखते हैं. वहीँ युवाओं के लिए विश्व विद्यालयों की बढ़ी  हुई फीस एक अहम मुद्दा है. जो युवा इस बार पहली बार वोट देंगे उनमें खासा उत्साह है और वे चाहते हैं जो भी पार्टी जीते वह विश्विद्यालयों की फीस के लिए अवश्य कुछ करे. पिछले कुछ सालों में फीस में हुई बेतहाशा वृद्धि के चलते युवाओं में काफी चिंता और अवसाद देखा जा रहा है.वे अपनी पढ़ाई और मनपसंद कैरियर छोड़कर अपने जीवन यापन की कठिनाइयों की तरफ देखने को मजबूर हैं. अत: वे अब अपनी समस्यायों पर सरकार का तवज्जो चाहते हैं. इस चुनाव के लिए करीब एक महीने से प्रचार चल रहा है परन्तु ना तो चुनाव को लेकर कोई हल्ला ना प्रचार को लेकर कोई तमाशा. हाँ इस चुनाव की एक खास बात है वह यह कि कंजरवेटिव पार्टी के चुनाव प्रचार में एक हिंदी का गीत भी शामिल है – जिसमें इमिग्रेंट्स को साथ लेकर चलने का आवाहन किया गया है. परन्तु यह गीत भी यू ट्यूब पर है सड़कों पर नहीं बजाया जाता। दीवारें साफ़ सुथरीलाउड स्पीकर का कोई शोर नहींकोई सेलेब्रिटी प्रचार में नहीं लगा हुआ , सड़कों पर भीड़ नहीं कहीं कोईमुन्नी बदनाम हुई या शीला की जवानी पर पेरोडी नहीं सुनाई देती .
कहने का तात्पर्य यह की  बेशक ये पश्चिमी देश कितने भी अमीर होंपरन्तु प्रचार के मामले में भारत हर तरह से बाजी मार ले जाता है. इन चुनावों में ना कोई शो बाजी होती हैना हल्ला गुल्ला। कोई जनता के बीच जाकर ना कम्बल बांटता दीखता है ना उनके घर जाकर चाय पी रहा होता है.ना घर घर जाकर हाथ जोड़कर वोट देने की गुजारिश होती है. हर उमीदवार की पालिसी और प्रचार वाले फ्लायर्स जरुर घरों में आ जाते हैं. परन्तु उनपर भी ऊपर लिखा होता है कि इन्हें बनाने के लिए टेक्स पेयर के धन का इस्तेमाल नहीं किया गया है. टीवी रेडियो या संसद में अपने प्रचार सत्र के दौरान दूसरे उम्मीदवार पर घिनोने आरोप और लांछन लगाने की बजाय अपनी पालिसी और काम का ब्योरा  दिया जाता है. बहस होती है पर कहीं कोई जूते – चप्पल नहीं चलते . सब कुछ निहायत ही नीरस सा होता है. वोटिंग वाले दिन भी कोई उठापटक नहीं. अधिकांश लोग पोस्ट से ही अपना वोटिंग धर्म निभा लेते हैं.और फिर इसी तरह शांतिपूर्वक वोटिंग भी हो जाएगी और गिनती भी.और इनके आधार पर अंत में एक विजेता भी घोषित हो जायेगा पर फिर भी कोई हंगामा नहीं होगा . बन्दूक से विजेता को कोई सलामी नहीं दी जाएगी. हाँ एक समानता भारतीय व्यवस्था के अनुरूप शायद होती है कि यहाँ भी सत्ता में आने के लिए वादे तो ढेरों किये जाते हैं पर उन्हें पूरा करना कोई आवश्यक नहीं होता।खैर जीत किसकी होगी इसका फैसला जल्दी ही हो जायेगा और उम्मीद है कि अपने वादों पर न सही पर अपनी पॉलिसी पर तो कम से कम जीतने वाले कायम रहेंगे।      



(आज ३ मार्च २०१५ से नवभारत के “संडे नवभारत” में हर सप्ताह नया  स्तंभ – “लन्दन नामा”)