कंपकपाते पत्ते पर
ठहरी एक बूँद ओ़स की
बचाए हुए किसी तरह
खुद को
तेज़ हवा उड़ा न दे
धूप कहीं सुखा न दे
उतरी है आकाश से
गिर न जाये धूल में
पर आखिर
मिलना पड़ता है उसे
उसी मिट्टी में
कंक्कड़ पत्थर के बीच ही
और वो लुप्त हो जाती है
उसी धूल मिटटी की धरा में
प्राणी भी तो
जन्म लेता है
लड़खड़ाते समाज की गोद में
फ़िर बचाता फिरता है
अपने अस्तित्व को,
अपनी पवित्रता को
इंसानियत को
इस संसारी थपेड़ों से
स्वार्थ की कड़ी धूप से
पर कब तक?
आखिर मिलना पड़ता है उसे भी
इसी जर्जर व्यवस्था में
बन जाता है वो भी
उनमें से ही एक
जो बनाते हैं
इस तथाकथित समाज को
जीना जो है उसे इसी परिवेश में.