देश में आजकल माहौल बेहद राजनीतिक हो चला है. समाचार देख, सुनकर दिमाग का दही हो जाता है.ऐसे में इसे ज़रा हल्का करने के लिए कुछ बातें मन की हो जाएँ.
हैं एक रचना लिखने के लिए पहले सौ रचनाएँ पढनी पड़ती हैं।परन्तु कभी कभी कोई एक रचना ही पढ़कर ऐसे भाव विकसित होते हैं मन में, कि रचना में ढलने को कुलबुलाने लगते हैं। ऐसे ही अभी फिलहाल में, बातों बातों में संगीता (स्वरुप) दी ने मुझे अपनी एक रचना पढवाई और उसे पढ़कर तुरंत जो भाव उपजे मैंने उन्हें लिख भेजे।फिर ख्याल आया कि ये तो जुगलबंदी टाइप कुछ हो गई तो क्यों न आप लोगों से साझा कर ली जाए। पहले ऐसी जुगलबंदियां बहुत किया करते थे हम। अब समयाभाव के कारण कम हो गईं हैं।अत: हाल फिलहाल की हमारी ये जुगल तुकबंदी आपकी नजर :). 
पहले दी की रचना।


मैं और तुम
और ज़िन्दगी का सफर
चल पड़े थे 
एक ही राह पर ।
पर तुम बहुत व्यावहारिक थे
और मैं हमेशा 
ख़्वाबों में रहने वाली ।
कभी हम दोनों की सोच
मिल नही पायी
इसीलिए शायद मैं
कभी अपने दिल की बात 
कह नही पायी ,
कोशिश भी की गर
कभी कुछ कहने की
तो तुम तक मेरी बात
पहुँच नही पायी ।

मैं निराश हो गई
हताश हो गई
और फिर मैं अपनी बात
कागजों से कहने लगी ।

मेरे अल्फाज़ अब
तुम तक नही पहुँचते हैं
बस ये मेरी डायरी के
पन्नों पर उतरते हैं
सच कहूं तो मैं
ये डायरियां भी
तुम्हारे लिए ही लिखती हूँ
कि जब न रहूँ मैं
तो शायद तुम इनको पढ़ लो
और जो तुम मुझे
अब नही समझ पाये
कम से कम मेरे बाद ही
मुझे समझ लो ।
जानती हूँ कि उस समय
तुम्हें अकेलापन बहुत खलेगा
लेकिन सच मानो कि
मेरी डायरी के ज़रिये
तुम्हें मेरा साथ हमेशा मिलेगा ।

बस एक बार कह देना कि
ज़िन्दगी में तुमने मुझे पहचाना नहीं
फिर मुझे तुमसे कभी
कैसा भी कोई शिकवा – गिला नहीं ।
चलो आज यहीं बात ख़त्म करती हूँ
ये सिलसिला तो तब तक चलेगा
जब तक कि मैं नही मरती हूँ ।
मुझे लगता है कि तुम मुझे
मेरे जाने के बाद ही जान पाओगे,
और शायद तब ही तुम
मुझे अपने करीब पाओगे ।
इंतज़ार है मुझे उस करीब आने का
बेसब्र हूँ तुम्हें समग्रता से पाने का
सोच जैसे बस यहीं आ कर सहम सी गई है
और लेखनी भी यहीं आ कर थम सी गई है.(संगीता स्वरुप )


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अब मेरी –


व्यावहारिकता, संवेदनहीनता तो नहीं होती 

ये बस बहाना भर है 
न समझने का 
कितना आसान होता है कह देना 
की हम दोनों अलग हैं 
हमारी सोच नहीं मिलती 
शायद कुछ रिश्तों की सोच 
कभी भी नहीं मिलती 
निभते हैं बस वह, 
क्योंकि निभाने होते हैं 
अपनी अपनी सोच के साथ 
बस चलते जाने होते हैं।
अकेलेपन का एहसास शायद हो 
किसी एक के बाद 
या हो सकता है न भी हो 

क्या फरक पड़ता है 
कोई आत्मा देखने नहीं आती 
की उसने मुझे समझा या नहीं 
जाना या नहीं,
ये बातें है सब रूहानी 

इसलिए दिखा देनी चाहिए डायरी 
जीते जी 
बेशक न हो कुछ असर 
पर सुकून तो रहेगा कि 
कोशिश की हमने समझाने की 
किया अपना फ़र्ज़ पूरा 
हो सकता है पूरा न सही 
थोडा सा एहसास हो ही जाए।
पिछले तो गए 
बचे कुछ पल ही संवर जाएँ।
(शिखा वार्ष्णेय )