हम बचपन से सुनते आये हैं ” डर के आगे जीत है ” , जो डर गया समझो मर गया ” वगैरह वगैरह। परन्तु सचाई एक यह भी है कि कुछ भी हो, व्यवस्था और सुकून बनाये रखने के लिए डर बेहद जरूरी है। घर हो या समाज जब तक डर नहीं होता कोई भी व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं चल सकती। घर में बच्चे को माता – पिता  का डर न हो तो वह होश संभालते ही चोर बन जाए, स्कूल में अध्यापकों का डर न हो तो अनपढ़ – गंवार रह जाए, धर्म – समाज का डर न हो तो न परिवार बचें, न ही सभ्यता। और अगर कानून का डर न हो, तो जो होता है , वह आजकल हम देख ही रहे हैं। यानि इतनी अव्यवस्था और अपराध हो जाएँ की जीना मुश्किल हो जाए। 
पता नहीं हमारे समाज में कानून या सजा का कभी डर था या नहीं परन्तु पिछले कुछ समय की घटनाओं को देखकर तो लगने लगा है कि हमाँरे भारतीय समाज में न तो कानून रह गया है न ही कानून के रखवालों का कोई भय . यही कारण है कि घिनोने से घिनोने अपराध बढ़ते जा रहे हैं और उनका कोई भी समाधान सामने दिखाई नहीं पड़ता। पिछले दिनों बर्बरता की परकाष्ठा पर हुए दामिनी केस ने सबके दिलों को हिला कर रख दिया। अरसे बाद जनता जागी, उसे एहसास हुआ कि अब व्यवस्था पर भरोसा रखकर बैठे रहने से कुछ नहीं होगा और शुरू हुआ आन्दोलन, परन्तु जैसे समाज दो भागों में बट चूका है एक वो, जो इंसान हैं, जिनके दिलों में धड़कन है , संवेदना है , जो परेशान हैं व्यवस्था से , उसके कार्यकलापों से और उसे बदलना चाहते, पर मजबूर हैं ,कुछ नहीं कर पाते। दुसरे वह, जो हैं तो व्यवस्था के संरक्षक पर जैसे साथ अपराधियों के हैं। उनपर किसी भी बात का कोई असर नहीं होता, इतने हो- हल्ले के बाद भी लगातार ऐसे ही घिनोने , हैवानियत भरे  और गंभीर अपराधों की ख़बरें आती रहती हैं। जैसे अपराधी एलान कर देना चाहते हैं कि ” लो कर लो , क्या कर लोगे “. समाज से कानून और सजा का डर बिलकुल ख़तम हो चूका है, अपराधी खुले सांडों की तरह मूंह खोले घुमते रहते हैं और निर्मम अपराध अपने चरम पर हैं।

आखिर इस अव्यवस्था की वजह क्या है ? जबाब बहुत से हो सकते हैं। तर्क , कुतर्क भी अनगिनत किये जा रहे हैं। परन्तु मूल में जो बात है वह यही कि हममें से हर कोई सिर्फ अपने काम को छोड़कर बाकि हर एक के काम में टांग अड़ाता नजर आता है। एक केस को लेकर जागृति  होती है तो आवाजें आने लगती हैं कि  ..इसपर हल्ला क्यों ? उसपर क्यों नहीं किया था ..गोया कि अगर पिछले अपराधों पर गलती की गई तो आगे भी नहीं सुधारी जानी चाहिए। उसको छोड़ा तो इसे भी छोडो। 

हम खुद अपने गिरेवान में झाँकने की बजाय बाकी सब पर बड़े आराम से उंगली उठा देते हैं।  कितना सुगम होता यदि हर कोई सिर्फ अपना काम ईमानदारी से करता और दुसरे को उसका करने देता फिर चाहे वो कोई लेखक हो, पुलिसवाला हो , वकील हो , जज हो,मीडिया हो या फिर सरकार .
कहने को हमारे समाज में हर बुराई और अपराध का ठीकरा संस्कृति पर फोड़ दिया जाता है, उसे पश्चिमी समाज का दुष्प्रभाव कह दिया जाता है। चलिए मान लिया कि पश्च्मि समाज में संस्कृति नहीं। पर यह बात फिर मेरी मान लीजिये की व्यवस्था तो है। कम से कम हर इंसान अपना काम तो करता है। 
यहाँ अपराध किसी भी स्तर का हो, माफ़ नहीं किया जाता, बेशक सजा उसकी कुछ भी हो पर होती अवश्य है। बात नो पार्किंग में कार पार्क करने की हो, बिना लाइसेंस के गाडी चलाने जैसी साधारण अपराधों की हो या नागरिक अधिकार के हनन वाली पत्रकारिता जैसे गंभीर और बड़े अपराधों की, न तो आम आदमी को बख्शा जाता है न ही ख़ास को। और सजा भी ऐसी प्रभावी और तुरंत दी जाती है कि सजा याफ्ता वह गुनाह दुबारा करने की सोचे भी नहीं , और दूसरा भी जो उसे सुने उसकी वह जुर्म करने की कभी हिम्मत न हो।

अभी फिलहाल का ही एक उदाहरण याद आ रहा है – एक रात करीब डेढ़ बजे दरवाजे की घंटियाँ जोर जोर से बजीं। देखा तो 2-3 पुलिस की गाड़ियां बाहर खड़ीं थीं और 6-7 जवान दनदनाते घर में घुसे की हमें आपके बागीचे में जाना है। हमने बगीचे का गेट खोला उन्होंने जल्दी जल्दी सब तरफ देखा और हमें “थैंक्स , सॉरी तो डिस्टर्ब यू” कहते चलते बने। हमने बाहर जाकर पूछा तो सिर्फ इतना बताया गया कि किसी अपराधी का पीछा कर रहे हैं जो लोगों के घरों में बागीचे के रास्ते भागता , छिपता घूम रहा है। करीब 10 मिनट बाद फिर एक पुलिस अफसर आया यह कहने कि आपका नाम और फ़ोन नंबर दे दीजिये। पीछा करने में आपके गेरेज का दरवाजा हमसे टूट गया है उसकी जिम्मेदारी हमारी है और हम इतनी रात को आपको डिस्टर्ब करने के लिए माफी चाहते हैं।पता चला कि कुछ लोगों के आपस के किसी झगड़े के तहत कोई साधारण गुंडा था जिसे उन्होंने पकड़ लिया था,और उसी के लिए इतना सब था, और अगर जरूरत पड़ती तो हेलीकाप्टर भी बुलाया जाता पर उसे छोड़ा नहीं जाता।
उसके बाद का काम कानून का है कि क्या सजा उसे हो , फिर कोर्ट का, कि सजा सुनाये, बेशक सजा कुछ भी हो परन्तु होगी जरूर और शायद यही व्यवस्था का मुख्य कारण है।

थोड़ी ही देर में इलाका शांत हो गया पर रह गया मेरे ज़हन में एक सवाल, कि अगर यही भारत में होता तो क्या होता ? वह गुंडा पकड़ा जाता या नहीं वह तो अलग बात थी, परन्तु जिन घरों के बागीचों से होकर वह भागा या छिपा, उन घरवालों का पुलिस क्या हाल करती। मतलब कि यह पुलिस का डर अपराधी के लिए नहीं, बल्कि बेचारे उन निर्दोष घरवालों के लिए होता।
यानि  हमारे समाज में भी डर तो है पर शायद गलत जगह, और सही लोगों के लिए है।

हालाँकि ऐसा नहीं है कि इन बाहरी देशों में कोई अपराध ही नहीं होते। होते हैं और गंभीरतम भी होते हैं। परन्तु  यह हर नागरिक जानता है कि कानून के खिलाफ कुछ भी किया तो उसे बख्शा किसी कीमत पर नहीं जाएगा और यही डर अपराधी मनोवृति को काफी कुछ काबू में रखता है, आम नागरिकों को कानून पर और उसके रखवालों पर विश्वास बना रहता है और उसे अपनी सुरक्षा के मूल अधिकार लेने के लिए अपने काम छोड़कर घड़ी घड़ी सड़कों पर आन्दोलन के लिए नहीं उतरना पड़ता।