रात के साये में कुछ पल

मन के किसी कोने में झिलमिलाते हैं

सुबह होते ही वे पल ,
कहीं खो से जाते हैं 
कभी लिहाफ के अन्दर ,
कभी बाजू के तकिये पर
कभी चादर की सिलवट पर 
वो पल सिकुड़े मिलते हैं.
भर अंजुली में उनको ,
रख देती हूँ सिरहाने की दराजों में 
कल जो न समेट पाई तो ,
निकाल इन्हें ही तक लूंगी 
बड़ी आशाओं से जब उनको 
जाती हूँ निकालने 
उस बंद दराज में मेरे सब पल 
मुरझाये मिलते हैं .

सहलाती हूँ वे पल ,
काश पा हथेली की गर्माहट.
जीवन पा सकें या 
शायद  फिर से खिल जाये.
पर पेड  से गिरे पत्ते ,
कहाँ फिर पेड पर लगते.
वो सूखे लम्हे भी 
यहाँ वहां बिखरे ही दिखते हैं.