प्रकृति अपना संतुलन खुद बना लेती है. कितने संकेत दिए उसने, ग्लोबल वॉर्मिंग, पानी की कमी, सुनामी, भूकम्पों द्वारा कि रुक जाओ , संभल जाओ, वर्ना सब ख़त्म हो जायेगा.

पर नहीं … हम मनु की संताने अपने आप को किसी ईश्वर से कम नहीं समझतीं. हम हर समस्या का हल निकाल लेंगे. दिमाग पाया है हमने ऐसा.

कितना ज्यादा हो गया था न… बाहर खाना, बाहर जाना, बिना बात की खरीदारी, अति का मनोरंजन. लोगों ने घरों में पकाना खाना ही बंद कर दिया. मॉल, होटल, रेस्तौरेंट्स, सिनेमा बस बनते गए… बनते गए. मिलने- जुलने, खाने – बतियाने की जगह घरों से निकल कर बार, पब और माल्स ने ले लीं. हमने धरती को कंक्रीट का जंगल बना डाला, हर प्राकृतिक साधन को कैमिकल में बदल डाला और अपने शरीर को कचरे का डिब्बा बना डाला.

तो जब प्रकृति के सारे संकेत फ़ैल हो गए तो डाला उसने अपना आखिरी दाव – ऐसा हथियार जिससे बचाव और जिसका इलाज ही वही था, जिसे हम भूल चुके थे या हमने पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया था – यानि – घर में रहना, स्वच्छता रखना, सादा खाना, प्रकृति का ख्याल और ईश्वर की नेमत इस शरीर की देखभाल.

तो बस … कोरोना और कुछ नहीं प्रकृति का तरीका है मनुष्य को मनुष्यता समझाने का, फिर से अपनी जड़ों तक ले जाने का. समझ जाएँ हम अभी तो अच्छा है… वरना अपनी सुरक्षा के लिए प्रकृति के पास हथियार, दाव और भी होंगे…

तो संभल जाओ – थम जाओ – बच जाओ…